यह कैसी आज़ादी है...?





 

भारतीय स्वतन्त्रता के 70वें वर्ष में प्रवेश करने वाली सुबह, आपके मस्तिष्क में सर्वप्रथम क्या ये विचार उत्पन्न नहीं करती कि ‘‘हमें अभी आजादी मिली भी है या नहीं?’’ क्या यह देश आज़ाद है जबकि उसके 90 प्रतिशत निवासी गुलाम हैं? यहाँ 90 प्रतिशत आबादी की कमाई को 10 प्रतिशत लोग डकार रहे हैं तो आज़ाद कौन है? यहाँ मानव विकास मानकों की धज्जियाँ उड़ रही हैं और जिनकी जिम्मेदारी इनको सुधारने की है वे लोगों को आज धर्म और पुराने सड़े गले इतिहास के महिमा मण्डन को कक्षाओं की पाठन सामग्री में ठूसने में लगे हुए हैं। पुरा-विचारशील साधु सन्यासियों को खुश करने में लगे हुए हैं! अपना ही भविष्य संवारने की जुगत में धन्धेबाजों और मोटा चन्दा देने वालों की और अधिक कमाई करवाने में उलझे हुए हैं!  देश के जिम्मेदार केवल यह कहकर पल्ला झाड़ रहे हैं कि मूलनिवासियों पर अत्याचार फर्जी लोग कर रहे हैं! तो फिर देश का कानून क्या उनको प्रश्रय दे रहा है? और हम उनके सामने इतने विवष हैं कि उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे? और यदि ऐसा है तो मूलनिवासियों को ये पूछने चाहिए कि ‘‘कब तक कुछ लोग यूँ ही गौण नागरिक की श्रेणी में बने रहेंगे?’’ या ‘‘और कितने स्वतंत्रता-दिवसों का इन्तज़ार करना पड़ेगा?’’ 

 

ये कैसी आज़ादी है? और ये किससे आज़ादी है? क्या झूठ-साँच बोलकर वोट लो और 5 वर्ष तक सक्षम को ही और सक्षम बनाओ और फिर से 5 वर्ष का समय माँगने निकल पड़ो और असक्षम को हर बार ठैंगा दिखाते रहो, क्या ऐसा करने की आज़ादी ही वास्तविक आज़ादी है? प्रसिद्ध उर्दू शायर निदा फ़ाजली द्वारा लिखित और जगजीत सिंह द्वारा गाई ये गज़ल, जो समस्त पीड़ा का एकदम सही-सही वर्णन करती है, क्या ये वर्तमान परिदृश्य का सही वर्णन नहीं करती है? आइए, देखते हैं-

 

यह कैसी आज़ादी है?

चंद घराने छोड़ के भूखी नंगी आबादी है।

जितना देश तुम्हारा है, उतना देश हमारा है।

दलित, महिला, आदिवासी सबने इसे संवारा है।।

ऐसा क्यों है? कहीं खुशी है, और कहीं बर्बादी है।

यह कैसी आज़ादी है?

अंधियारों से बाहर निकलो, अपनी शक्ति जानो तुम।

दया धर्म की भीख ना माँगों, हक अपना पहचानों तुम।।

अन्याय के आगे जो रुक जाए वो अपराधी है।

यह कैसी आज़ादी है?

जिन हाथों में काम नहीं है, उन हाथों को काम भी दो।

मज़दूरी करने वालों को, मज़दूरी का दाम भी दो।।

बूढ़े होते हाथों को जीने का आराम भी दो।

झूठों के दरबार में, अब तक सच्चाई फरयादी है।

यह कैसी आज़ादी है?

चंद घराने छोड़ के भूखी नंगी आबादी है।

यह कैसी आज़ादी है?

 

भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र होगा जो अपनी स्वतंत्रता के 70वें वर्ष में ‘‘विकसित’’ होने की बजाए ‘‘अविकसित’’ अधिक हो रहा है! यहाँ प्रथम बार आपको लग रहा होगा कि सब कुछ सही नहीं हो रहा है क्योंकि चहुँओर कम से कम मूलनिवासियों की तो जो दुर्गति सामने आ रही है वो मीडिया में तो कभी स्थान नहीं पा सकी थी। हमें धन्यवाद करना चाहिए पाश्चात्य देशों के आविष्कारों का जिसने फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप जैसे सोषल मीडिया इज़ाद किए। आज कोई भी बात आग से भी तेज गति से पूरे विश्व में फैलती है और विश्व के प्रत्येक कौने में होने वाली घटना सबको पल भर में पता चल जाती है वरना ऐसा थोड़े ही है कि मूलनिवासियों पर अत्याचार नए-नए अचानक आरम्भ हुए हैं! या बीच में समाप्त हो गए थे। बस बड़े स्तर पर पता चलने अब लगा है। 

 

अब तो सब मान ही गए हैं और खड़गे साहब और शरद यादव जैसे नेताओं ने संसद में भी बयान देना प्रारम्भ कर दिया है कि जातिवाद आधारित उत्पीड़न आज चरम पर है। मूलनिवासियों (अनु. जाति., अनु. जन. जाति, निर्धन पिछड़ा वर्ग ओर धर्म परिवर्तित मुस्लिम/ईसाई/बौद्ध) को छोटी जाति होने पर ही नहीं बल्कि इस ढंग से सताया जा रहा है जैसे ये अवांछित जनसंख्या हो! 

 

ये इस देश के दुर्भाग्य की ही बात है कि इस देश की संविधान सभा में 300 से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति होने के बावजूद उन्हें जातिवाद के विरुद्ध कोई भी कानून बनाना उचित नहीं लगा। जाति का पालन करने वालों के विरुद्ध कड़ा कानून बनाने के लिए बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर तो पुरजोर प्रयत्न करने में लगे रहे लेकिन उनके विरोधियों ने उनकी एक ना सुनी और कहा कि ‘‘यदि इस देश का जातिवादी सामाजिक तानाबाना ही नष्ट हुआ तो इस देश का ही क्या वज़ूद रह जाएगा?’’ यह बात यदि तब सच नहीं होने दी तो अब सच होगी क्योंकि जातिवाद समाप्त होना तो दूर, और प्रबल होता जा रहा है! इसका अर्थ है कि, दबी-कुचली जातियाँ कब तक यूँ ही शोषित होती रहेंगी? कभी तो उनको अहसास होगा कि उनको एक योजनाबद्ध तरीके से दबाया जा रहा है ताकि वे केवल सेवक ही बने रहें और अपने मूल अधिकारों की माँग करने की हिम्मत ही ना कर सकें! इस धागे के टूटने की कल्पना कीजिए, जिस दिन दबा-कुचला मूलनिवासी वर्ग ढंग से जाग गया और विरोध में एक साथ उठ खड़ा हुआ, तो उस दिन की कल्पना से ही ये देश काँप उठेगा! जिसका सब कुछ लुट-पिट चुका हो वो तो अपने समूल नष्ट होने की क्या चिन्ता करेगा लेकिन जिसको अपना कुछ भी लुटने का डर है उसकी आज की शान्ति कल भी कायम रहेगी इसकी गारन्टी नहीं है। मूलनिवासियों को अपना वजूद बचाने के लिए असहिष्णु होना ही पड़ेगा। 

 

ये जो अजीब-सा शासन-प्रशासन आज विकसित हुआ है (कहना चाहिए अविकसित हुआ है) उसके दूरगामी परिणामों की जो प्रतीक्षा कर रहे हैं वे यह भूल रहे हैं कि यह 21वीं सदी है न कि 16वीं सदी! अब वो पोलपट्टी चलनेवाली नहीं है जो उस जमाने में चल जाती थी। यह सब रोहित वैमूला, किसी हद तक जे एन यू के तथा हाल ही में गुजरात के उना के मामलों में सरकार और आततायी देख भी चुके हैं। गुलामी और जुल्म सहने वाली वह पीढ़ी कुछ और थी लेकिन आज की पीढ़ी कुछ और है। 

  

आप अन्दाजा लगाइए कि आज हम भी पढे-लिखे हैं और सवर्ण भी पढे लिखे हैं। सभी किसी सीमा तक अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति सजग हैं फिर भी मूलनिवासियों पर 16वीं सदी की भाँति जुल्म हो रहे हैं! इसका अर्थ है कि सवर्णों ने अपने बच्चों के मस्तिष्कों में भी इस हद तक घृणा कूट-कूट कर भर दी है कि उन्हें मूलविसियों पर अत्याचार न केवल आम बात लगती है बल्कि इन अत्याचारों को जारी रखना अपना हक भी लगता है! चाहे उन्होंने कितने ही पाश्चात्य देशों के साहित्य पढ़-पढ़ कर समानता और समरसता के गुर रट डाले हों लेकिन जैसे ही पुस्तकों के संसार से बाहर आते हैं उन्हें पारिवारिक और सामाजिक समानता के वास्तविक स्वरूप से कोई सरोकार नहीं रहता है!     

 

आप राजनीति में भी देखिए, बोलनेवाले नेता केवल नई उम्र के ही मिलेंगे, वरना पुरानी जमात के नेता (शरद यादव जैसे इक्के-दुक्के को छोड़ दें तो) आज भी स्वीकार्य परतंत्रता की घुट्टी के नशे के आगोश में ही हैं। क्यों चुप रहते हैं मूलनिवासी इतने सारे अपमान के घूँट पीकर भी? ये बात, आज जो देश का माहौल है, उससे स्पष्ट झलकती है कि हमें अपने आप को शासित और अनुशासित करना बिल्कुल नहीं आता। जैसा कि शिवमंगल सिंह सुमन ने अपनी कविता में कहा है कि-

 

घर आंगन सब आग जल रही, सुलग रहे सब वन उपवन।

दर दीवारें चटख रही हैं, जलते छप्पर छाजन।।

तन जलता है मन जलता है, जलता जन धन जीवन।

एक नहीं जलते सदियों से, जकड़े गर्हित बन्धन।।

दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगाने वाला।

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।।

 

दीनों के नेतागण बनते अधिकारों के हामीं।

किन्तु एक दिन को भी हमको अखरी नहीं गुलामी।।

दानों को मोहताज़ हो गए दर-दर बने भिखारी।

भूख अकाल महामारी से इन सबकी लाचारी।।

आज धार्मिक बना धर्म का नाम मिटाने वाला।

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।।

 

मूल निवासियों का अवज्ञा आन्दोलनः क्रान्ति का एक सूत्रपात-ःउना के मूलनिवासियों ने मृत मवेशियों को उठाने से मना कर एक प्रकार के अवज्ञा आन्दोलन का सूत्रपात किया है! क्या हम सभी ऐसा कर सकते हैं? क्या पूरे देश के मूलनिवासी ऐसा कर सकते हैं? बिलकुल कर सकते हैं यदि हमारे तथाकथित नेता लोग अपने आराम के दायरे से बाहर निकल कर सही मायने में कुछ करने का कष्ट करें तो। खैर, हमारे नेता लोग कुछ करें या ना करें ऐसा एक दिन तो होना ही है। अभी तक जितने भी आन्दोलन आप देख रहे हैं उन सभी में नए चेहरे ही उभर कर सामने आए हैं पुराने तो अधिकतर अपने आकाओं की गोद में बैठे ही दिखे! काश, रोहित वेमूला, उना या डेल्टा मेघवाल जैसे प्रकरणों में हमारे मुख्यधारा के नेताओं का साथ मिल जाता तो आज हकीकतें कुछ और ही होती! लेकिन यदि हमारे तथाकथित बड़े नेताओं का विवेक जागृत नहीं हुआ और वे केवल अपनी जमात को ही धनी बनाने में लगे रहे तो आखिरकार, हमारा सर्वहारा समाज ही एक दिन जागेगा और अपने हक माँगेगा नहीं बल्कि छीन लेगा क्योंकि-

 

जाति, धर्म, गृह हीन युगों का भूखा-नंगा प्यासा।

आज सर्वहारा तू ही है, एक हमारी आशा।।

ये छल-छन्द शोषकों के हैं, कुत्सित ओछे गन्दे।

तेरा खून चूसने को ही, ये दंगों के फन्दे।।

तेरा ऐका गुमराहों को राह दिखाने वाला।

मेरा देश जल रहा कोई नहीं बुझाने वाला।।

मेरा देश जल रहा कोई नहीं बुझाने वाला।।

 

हमें गुलामी की मानसिकता से बाहर निकल कर सर्वहारा को जगाने की आवश्यकता है जो अपनी गुलामी को सही ढंग से यदि समझ गया तो जंजीरें तोड़ने का सूत्रपात करेगा। इस देश को गुलाम अंग्रेजों ने बना रखा था या हमारे अपने ही लोगों ने अंग्रेजो को हमें गुलाम बनाए रखने के लिए कहा हुआ था कि आप इस देश पर राज करो क्योंकि हम स्वयं वास्तव में हैं ही इसी लायक कि कोई अन्य ताकत हमारे ऊपर राज करती रहे! इस विश्लेषण की आवश्यकता है। ये संघर्ष है अपना वजूद बनाए रखने का! वरना स्वतन्त्रता की 100वीं वर्षगाँठ तक कहते ही रहें कि ‘‘ये कैसी आज़ादी है’’! 

 

-सीताराम स्वरूप