‘जाति! हाय री जाति!’ कर्ण का, हृदय क्षोभ से डोला।
कुपित सूर्य की ओर देख, वह वीर क्रोध से बोला।।
जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड।
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं, ये मेरे भुजदण्ड।।1।।
ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले।
शरमाते हैं नहीं जगत में, जाति पूछने वाले।।
शूद्र-पुत्र हूँ मैं लेकिन थे, पिता पार्थ के कौन।
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।।2।। (‘‘रश्मिरथी’’, प्रथम सर्ग, पृष्ठ-15)
ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर की रचना ‘‘रश्मिरथी’’ से ली गई हैं जिसमें जातिवाद पर प्रहार करते हुए तथा कर्ण को शूद्र होने के कारण अर्जुन से मुकाबला करने से रोके जाने की घटना से प्रेरित होकर लिखा गया है। इस घटना का आज भी वही महत्त्व है जो इस घटना के घटित होते समय रहा होगा। जातिवाद के विरुद्ध कर्ण का क्षोभ व दर्द उसी प्रकार छलक रहा है जैसे आज किसी भी अनुसूचित समाज की प्रतिभा को तथाकथित ‘‘सुपर-स्पेशियलिटी’’ के नाम पर ‘मेरिट’ का बहाना बनाकर उच्चस्तरीय शोध-संस्थानों से वंचित किया जा रहा है। हिन्दू सनातन धर्म के उपासक कितने पाखण्डी रहे हैं, यह उपरोक्त कालखण्ड के दृष्टान्तों से भी भली-भाँति स्पष्ट होता है। आप यदि उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी भी हैं तो भी आपको केवल अनुसूचित समाज का होने के कारण कई अवसरों से हाथ धोना पड़ सकता है तथा उसी अवसर का लाभ किसी ब्राह्मण-पुत्र या सवर्ण को बिना किसी विशेष प्रयास के प्राप्त हो जाता है। यदि आप इस तथ्य की सरलतम पुष्टि करना चाहते हैं तो किसी भी विश्वविद्यालय के ‘फैकल्टी’ सदस्यों की सूची का अध्ययन करके देख लीजिए। अपवाद स्वरूप कोई प्रतिभा चमकी हो तो मैं चुनौती देता हूँ, मुझे बताएँ।
लेकिन हम आज केवल यह बात नहीं करेंगें कि अनुसूचित समाज की जातियों से सवर्ण जातियाँ घृणात्मक रवैया रखती हैं बल्कि आज इस बात पर अधिक गहनता से विचार करने की आवश्यकता है कि क्यों अनुसूचित समाज की जातियाँ आपस में भी अत्यधिक वैमनस्यता का भाव रखती हैं?
इस लेख को लिखने से पहले मैं ‘‘तहलका’’ समाचार पत्र का 2013 में अर्पित पाराशर द्वारा लिखित एक लेख पढ़ रहा था। इस लेख में अर्पित पाराशर (जो कि एक ब्राह्मण है) ने तत्कालीन ‘‘जस्टिस पार्टी’’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री उदित राज (जो पहले भाजपा के सांसद रहे और अब कॉन्ग्रेस में शामिल हो चुके हैं) द्वारा उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के विरुद्ध गठित ‘‘उपेक्षित अनुसूचित समाज महापंचायत’’ पर टिप्पणी की थी। लेख में श्री उदित राज के हवाले से कहा गया है कि सुश्री मायावती के शासनकाल में केवल ‘जाटव’ जाति के उत्थान पर अधिक ध्यान दिया जा रहा था। अन्य जातियों को, जिन्हें श्री राज ने ‘‘उपेक्षित अनुसूचित समाज’’ (?) की संज्ञा दी है जैसे, वाल्मिकी, कोरी, धोबी, खटीक इत्यादि, विकास की बयार से दूर रखा गया है। मैं कोई राजनीतिक टिप्पणीकार नहीं हूँ अतः श्री उदित राज द्वारा गठित ‘‘उपेक्षित अनुसूचित समाज महापंचायत’’ पर तो कुछ नहीं कहूँगा (‘अनुसूचित समाज’ व ‘उपेक्षित अनुसूचित समाज’ में क्या अन्तर है? मुझे लगता था कि समस्त अनुसूचित समाज उपेक्षित ही हैं।) लेकिन जिस तरह चटखारे ले-लेकर अर्पित पाराशर ने अनुसूचित समाजों के बीच आ रही दरारों का वर्णन किया है वह दरअसल अति दुःखदायी है। सारे अनुसूचित समाज एक सूत्र में बँधे हुए नहीं हैं तथा इनके बीच की भाईचारे के रिश्ते और भी दरकते जा रहें हैं इससे अधिक सुखदायी घटना ब्राह्मणवादी ताकतों के लिए क्या होगी?
इस बात को समझने के लिए कोई ‘‘रॉकेट-विज्ञान’’ की आवश्यकता नहीं है कि हमारी अधिकांश समस्याओं की जड़ में ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा फैलाया हुआ जातिवाद का जाल है। आपको ये जानकर आश्चर्य नहीं होगा कि कई पीढियों से विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के लोग भी तमाम आधुनिक परिवर्तनों के उपरान्त भी जातिवाद के आधार पर ही मित्रता करते हैं या वैवाहिक रिश्ते बनाते हैं। चाहे यह देखकर अन्य धर्मों के अनुयायी या उस देश के मूल निवासी यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हों परन्तु विदेशों में भी यह बेशर्म परम्परा बदस्तूर जारी है।
आधुनिक समाज के जाने-माने लेखक और विचारक ऐसी ही कुछ भावनाओं को प्रकट करते रहते हैं। पूर्व में भी भारतीय समाज में सक्रिय विभिन्न समाज सुधारकों ने जातिवाद के विरुद्ध समय-समय पर युद्ध छेड़ने के प्रयास किए परन्तु जातिवाद के दानव की भारतीय समाज पर पकड़ कभी ढीली नहीं हुई।
कुछ प्रयास शुरुआती ‘आर्य-समाज’ ने भी किए। कुछ उदाहरण अनुसूचित समाज की जातियों के सन्तों व समाज सुधारकों के भी हैं जैसे केरल की एझवा जाति में जन्में अनुसूचित समाज के नेता व समाज-सुधारक ‘नारायण गुरू’ (1854) ने जब जाति-प्रथा के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा तो नारा दिया- ‘‘न जाति पूछो, न जाति बताओ और न ही जाति के बारे में सोचो’’। उन्होंने ‘‘एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर’’ की धारणा पर चलने पर बल दिया। ‘सतनामी सम्प्रदाय’ के संस्थापक गुरू घासीदास (1756) ने सतनामी धर्म के मुख्य नियमों में प्रथम नियम लिखा है-‘‘मनुष्य की एक ही जाति है वह है-‘मानव-जाति’’। संत रविदास व संत कबीर के प्रयासों को भी भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने समाज सुधार के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर दी।
सबसे अधिक चिन्ता का विषय यह नहीं है कि सवर्ण जातियाँ जातिवाद को जीवित रखने के लिए प्रयासरत हैं बल्कि गहन चिन्ता का विषय यह है कि स्वयं अनुसूचित समाज वर्ग की विभिन्न जातियाँ जातिवाद में अधिक लिप्त हैं तथा आपस में विलय को रोकने का भरसक प्रयास कर रही हैं। यहाँ तक कि प्राचीन काल में अपनाए गए एक ही प्रकार के कच्चे माल पर आधारित व्यवसाय में संलग्न रहने वाली 5-7 जातियाँ भी एक ही समूह में विलीन होने के प्रयासों का विरोध करती रहीं हैं, जबकि इनके गोत्र इत्यादि भी समरूप हैं। इन जातियों के विचारक या भौंटी भाषा में कहें तो ‘ठेकेदार’, सार्वजनिक मंचों पर तो जातिवाद की समाप्ति व जातियों के विलय की बात करते हैं लेकिन व्यक्तिगत जीवन में सजातीय बन्धुओं में ही अपने सारे वैवाहिक कार्यकलाप इत्यादि निबटाते हैं तथा उपजातियों के बीच वैमनस्य फैलाने का कोई अवसर नहीं जाने देते। ये अपनी जाति के अतिरिक्त अन्य अनुसूचित समाज जातियों से भी उसी प्रकार घृणात्मक रवैया रखते हैं जिस प्रकार सवर्ण जाति के लोग अनुसूचित समाज की जातियों के लोगों से रखते हैं। यहाँ भी बाकायदा छोटी जाति व बड़ी जाति की परम्परा का निर्वाह किया जाता है जबकि सवर्ण जातियों की नज़रों में ये सभी जातियाँ अनुसूचित समाज हैं और समान रूप से घृणित हैं।
इस प्रवृत्ति के कारण अनुसूचित जातियों का राजनीतिक क्षेत्र में खासा नुकसान हो रहा है तथा सवर्ण जातियों के ‘फूट डालो, राज करो’ की जाँची-परखी विधा के दम पर अनुसूचित समाज जातियों को निरन्तर गुलाम बनाए रखने में अनुसूचित समाज जातियों के ही ये तथाकथित कर्ता-धर्ता अच्छा साथ निभा रहे हैं। प्रत्येक बार विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ आरक्षित सीटों पर अलग-अलग उपजाति का उम्मीदवार खड़ा कर देती हैं ताकि एक ही जाति से कोई एक या दो ही दबंग-टाइप के समाजबन्धु न उभर सकें जो कि पार्टी में उनकी सत्ता को चुनौती दे सकें। यह एक ऐसा कुचक्र है जिसे समझते तो सब हैं लेकिन एक साथ मिल-बैठकर उम्मीदवार तय करने की नीति पर ध्यान कभी नहीं देते।
मुद्दे की बात यह है कि पहले केवल अनुसूचित समाज जातियों को आपस में मिलकर जातिवाद के दलदल से बाहर निकलना होगा तभी ये जातियाँ सवर्ण जातियों से दृढ़ता से जातिवाद को मिटाने की अपील कर सकती हैं। हमारे अपने बीच जो जातिवाद का कीचड़ फैला हुआ है वह सवर्ण व अवर्ण के बीच के भेदभाव से अधिक खतरनाक है। यहाँ कुछ और पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर की रचना ‘‘रश्मिरथी’’ से उद्धृत की जा रही हैं, यदि 10 पाठकगणों को भी इनसे जातिवाद के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न होता है तो मेरा और राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर का उद्देश्य सफल सिद्ध होगा।
1. मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का वीरों का।
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या, होता रणधीरों का।।
पाते हैं सम्मान तपोबल से, भूतल पर शूर।
जाति-जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।। (‘‘रश्मिरथी’’, प्रथम सर्ग, पृष्ठ-16)
2. ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है।
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग।
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।। (‘‘रश्मिरथी’’, प्रथम सर्ग, पृष्ठ-13)
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं, गोत्र बतला के।
पाते हैं जग से प्रशस्ति, अपना करतब दिखला के।।
हीन मूल की ओर देख जग, गलत कहे या ठीक।
वीर खींच कर ही रहते हैं, इतिहासों में लीक।। (‘‘रश्मिरथी’’, प्रथम सर्ग, पृष्ठ-13)
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम।
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धाम।। (‘‘रश्मिरथी’’, प्रथम सर्ग, पृष्ठ-18)
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत का हाल।
निज आँखों से नहीं सूझता, सच है, अपना भाल।। (‘‘रश्मिरथी’’, प्रथम सर्ग, पृष्ठ-18)
धँस जाए वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान।
जाति-गोत्र के बल से ही, आदर पाते हैं जहाँ सुजान।। (‘‘रश्मिरथी’’, द्वितीय सर्ग, पृष्ठ-26)
नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो।
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो।।
मगर मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं।
चुनना जाति और कुल अपने, बस की तो है बात नहीं।। (‘‘रश्मिरथी’’, द्वितीय सर्ग, पृष्ठ-26)
मैं कहता हूँ अगर विधाता, नर को मुट्ठी में भर कर।
कहीं छींट दे ब्रह्मलोक से ही, नीचे भूमण्डल पर।।
तो भी विभिन्न जातियों में ही, मनुज यहाँ आ सकता है।
नीचे हैं क्यारियाँ बनी तो बीज कहाँ जा सकता है? (‘‘रश्मिरथी’’, द्वितीय सर्ग, पृष्ठ-26)
‘कौन जन्म लेता किस कुल में?’ आकस्मिक ही है यह बात।
छोटे कुल पर किन्तु यहाँ, होते तब भी कितने आघात।।
हाय! जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे।
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे रहे लाख चाहे खोटे।। (‘‘रश्मिरथी’’, द्वितीय सर्ग, पृष्ठ-26)
फोटों गुगल से साभार