सामाजिक परंपरा बनाम सामाजिक कुप्रथायें


      हमारे समाज में वर्तमान में सामाजिक परंपराओं का बडा कहर है जिनके बारे में सोचते ही मेरे रौंगटे खडे हो जाते हैं लेकिन हमारे समाज में हमारे सम्मानीय समाज बंधु बडे शौक से अपने पूर्वजों की सौगात मानते हुए इन्हें ढोह रहे हैं जिनके कारण समाज विकास की अपेक्षा दिनोंदिन दलदल में धंसता जा रहा है। शर्म तो तब आती है जब हमारे डिग्रीधारी बुद्धिजीवी इन्हें बडे उल्लास के साथ हमारे वंचित समाज में अपनी हैसियत प्रदर्शित करने के लिए यह कुकृत्य करते हैं। मुझे, इन कुरीतियों को अंजाम देना तो दूर, इनके बारे में सोचने में हीआत्मग्लानि हो होती है और इन कुप्रथाओं का आयोजन एक व्यक्ति करता है और प्रभावित कई परिवार होते हैं। हालांकि मैं यह नहीं कहता कि समाज में ऐसा कोई नहीं है जो इन कुप्रथाओं को छोड नहीं रहे हैं। आज तक हमारे समाज में हमारे कई समाज बंधु हैं जो इन सामाजिक कुप्रथाओं के उन्मूलनक उदाहरण बने चुके हैं और बन रहे हैं लेकिन उनका प्रतिशत नगण्य है जो सामाजिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इस संबंध में मेरा यही मानना है कि मैं हमारे समाज के पूर्वजों को किसी भी चीज में कम नहीं आंकता हूं क्योंकि उनके जीवनकाल में उन्होंने बहुत सभ्य, शिष्टाचार, संबल, बुद्धिमिता, समग्र विकास के साथ आगे बढे होंगे और उन्होंने ये परंपरायें उस समयानुसार समाज को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए स्थापित की होंगी लेकिन ज्यों-ज्यों वक्त बदलता गया और समाज इनके नुकसान के बारे में सोच भी न सका कि कब सामाजिक परंपरायें कुप्रथाओं में परिवर्तित हो गईं, परंतु वर्तमान समय की मांग को देखते हुए इन सामाजिक कुरीतियों में सुधार की आवश्यकता है जिनका विश्लेषण निम्न प्रकार किया जा रहा है :


1. अंधविश्वास/पाखंडः- अंधविश्वास/पाखंड सामाजिक कुरीति ही नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक कोढ है जिसमें समाज का अधिकांश धन इसी कुकृत्य के तहत सामाजिक अनुपयोगी कार्यों में लग रहा है। इस कुप्रथा में समाज का अधिकांश तन, मन, धन अनुपयुक्त रूप से व्यय हो रहा है। इसमें चाहे किसी भगवान की पूजा-पाठ हो, चाहे कोई धार्मिक यात्रा हो, चाहे किसी धार्मिक स्थल परअनावश्यक रूप से चढावा चढाया जावे। इस सभी पर जो भी व्यय होता है उसका समाज हित में कोई सदुपयोग नहीं है जबकि समाज इस क्षेत्र में मानसिक रूप से गुलाम बना हुआ है। इसमें यह सोचनीय बात है कि हमारे समाज बंधु एक निर्जीव वस्तु से बने हुए भगवान से डरते हैं। हालांकि इस संबंध में महामानव तथागत गौतम बुद्ध ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ईश्वर जैसी कोई चीज नहीं है, इसे ढूंढने में अपना समय व्यर्थ न गंवायें। इसलिए ईश्वर को कोई अस्तित्व नहीं है। हमारा शरीर एक मशीन की तरह है जब तक किसी मशीन के कलपुर्जे जुडे रहते हैं और उनमें कोई हृस नहीं होता है तब तक वह मशीनरी चलती रहेगी अर्थात् मशीनरी के कलपुर्जे हृस होने के बाद कार्योग्य नहीं होती है ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर के अंग जब तक कार्योग्य हैं तब तक जीवित हैं और जिस दिन हमारा शरीर पूर्णरूपेण हृसित हो जाता है उसी दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रक्रिया में किसी भी अदृष्य शक्तिनुमा परमात्मा का कोई हाथ नहीं होता है अर्थात् जबतक पुलिंग एवं स्त्रीलिंग का जुडाव नहीं होगा तब तक कोई सांसारिक जीव की उत्पत्ति नहीं होगी। महामानव गौतम बुद्ध ने कहा था कि अप्प दीपो भवः अर्थात् अपना प्रकाश स्वयं बनो। उन्होंने यहां तक कह दिया कि कोई भी व्यक्ति मेरे पीछे नहीं आना क्योंकि मैं किसी को कोई नेतृत्व नहीं दे सकता। यदि समस्या, आपके लिए या आपके द्वारा उत्पन्न की गई है तो उसका समाधान भी आपको ही ढूंढना है। इसलिए अंधविश्वास एवं पाखंड छोडकर बुद्ध के (अ) - पंचशील (1) अकारण हिंसा न करना, (2) चोरी न करना, (3) व्यभिचारिता न करना, (4) झूंठ न बोलना, (5) किसी प्रकार का नशा न करना एवं (ब) - अष्टांगिक मार्ग (1) सम्यक दृष्टि, (2) सम्यक संकल्प, (3) सम्यक वाणी, (4) सम्यक कर्मांत, (5) सम्यक आजीवीका, (6) सम्यक व्यायाम, (7) सम्यक स्मृति, (8) सम्यक समाधि का पालन करते हुए सत्य और मध्यम् मार्ग को अपनाओ, इसी में सभी का भला है और समाजोत्थान है। बौद्ध धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसे अपनी सामर्थ्यानुसार अपना सकते हैं अर्थात् जिसके अंधविश्वास/पाखंड छोड दिया वह स्वतः ही बौद्धिस्ट बन जाता है। इनके साथ ही बाबा साहब डॉ.भीम राव अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं का भी पालन करना चाहिए।


2. शराब एवं अन्य नशा, मद्यपान इत्यादि में समाज की लिप्तता : हमारे समाज की यह भी एक अभिशापित कुरीति है या यों कह सकते हैं कि यह हमारे समाज के विकास में एक कोढ है। इसका भी समाज से उन्मूलन होना बहुत जरूरी है तभी हमारा समाज आर्थिक रूप से समृद्ध हो पायेगा। सबसे बडी बात यह है कि इसका प्रयोग दिनोंदिन बढता ही जा रहा है और इससे सबसे ज्यादा हमारे समाज की नई पीढी को नुकसान हो रहा है। इसलिए इस संबंध में हमारे समाज की सामाजिक संस्थाओं को हमारे समाज बंधुओं की बीच जा कर समझाइश करनी चाहिए। हमारी सामाजिक संस्थाओं को सरकार से भी इस ओर उचित कदम उठाने के लिए विचार-विमर्श करना चाहिए। अगर इस संबंध में समाज में चर्चा की जाये तो उसके बहुत ही दूरगामी विकासशील परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।


3. मृत्यु भोज : मैं इस लिखते हुए आत्मग्लानि है कि मृत्यु भोज एक ऐसी हिन्दुत्व सामाजिक परंपरा है जो समाज में विस्तृत रूप से व्याप्त है या यों कहें कि इस सामाजिक बुराई ने समाज में वृहद रूप ले लिया है और समाज बंधुओं  के दिमाग में प्रगाढ रूप से समाहित हैं। वे इस अनादरित परंपरा को संजोये हुए है जबकि एक जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर वियोग प्रकट करते हैं परंतु इस अनादरित परंपरा में मानव अपने परिवारजन के चले जाने पर, ऐसा लगता है जैसे मृत्यु प्राप्त व्यक्ति से उसके परिवारजन बहुत परेशान थे और उसके मरने के पश्चात् जश्न जैसी तैयारी में समाज जुट जाता है। उक्त अनादरित परंपरानुसार मृतक को स्वर्ग पहुंचाने के लिए गंगा नदी में अस्थियों को बहाने जाते हैं और तब से ही मृतक के परिवार का आर्थिक रूपी नरक प्रारंभ हो जाता है। इसमें हर कदम पर मृतक के परिवार को लूटा जाता है, चाहे घर से गंगा घाट तक जाने के लिए संसाधन जुटाने के लिए किया गया व्यय, उसके बाद पांडे जी की दक्षिणा, उसके बाद गंगा नदी का लाये हुए पानी को सामूहिक रूप से बांटने पर व्यय, उसके बाद तो अच्छे-2 पकवान बनाना और समाज बंधुओं को खिलाना इत्यादि। इन सबसे मृतक स्वर्ग जाता है कि नहीं परंतु मृतक का परिवार जरूर आर्थिक नरक में चला जाता है। इस परंपरा को तिलांजलि दे देनी चाहिए और उस धन राशि को बच्चों की शिक्षा एवं सामाजिक विकास में लगाना चाहिए। इस परंपरा को संजोने, बढावा एवं विस्तृत करने में पढे-लिखे एवं पूंजीपतियों का ही सबसे बडा हाथ है। यदि उक्त संबंधित समाज बंधु इस परंपरा के अनुसार मृत्यु भोज नहीं करें तो यह परंपरा स्वतः ही खत्म हो जायेगी। इसलिए हर समाज बंधु को समझना चाहिए और इस परंपरा को छोडना चाहिए। यह बडे दुःख के साथ कहना पडता है कि इस परंपरा को बंद करने के लिए राजस्थान सरकार ने 1960 में “राजस्थान सरकार मृत्यु भोज निषेध अधिनियम, 1960“ पारित किया हुआ है जिसके तहत यह अनादरित परंपरा दण्डनीय अपराध है इसके बावजूद भी बडे धडल्ले से इस अनादरित परंपरा का विस्तार हो रहा है। समाज में अपने आप को बडा दिखाने के लिए बडे स्तर पर मृत्यु भोज किया जाता है। उक्त अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान हैंः (1) मृत्यु भोज की कानून में परिभाषा-राजस्थान मृत्यु भोज निषेध अधिनियम, 1960 की धारा 2 के अनुसार किसी परिजन की मृत्यु होने पर किसी भी समय आयोजित किये जाने वाला भोज, नुकता, मौसर, चहल्लम एवं गंगा प्रसादी मृत्यु भोज ही कहलाता है। कोई भी व्यक्ति अपने परिजनों या समाज या पण्डों, पुजारियों के लिए धार्मिक संस्कार या परंपरा के नाम पर मृत्यु भोज नहीं करेगा। (2) मृत्यु भोज करना और उसमें शामिल होना कानून अपराध है-उक्त अधिनियम की धारा 3 के अनुसार कोई भी व्यक्ति, न तो मृत्यु-भोज आयोजित करेगा, न जीमण करेगा, न जीमण में शामिल होगा और न ही मृत्यु भोज में भाग लेगा। (3) मृत्यु भोज करने व कराने वाले को सजा व दण्ड है-क्त अधिनियम की धारा 4 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति धारा 3 में लिखित मृत्यु-भोज का अपराध करेगा या मृत्यु-भोज करने के लिए उकसायेगा, सहायता करेगा, प्रेरित करेगा उसको एक वर्ष की जेल की सजा या एक हजार रूपये का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जायेगा। (4) मृत्यु भोज पर न्यायालय से स्टे लिया जा सकता है-उक्त अधिनियम की धारा 5 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति या पंच, सरपंच, पटवारी, लम्बरदार, ग्राम सेवक को मृत्यु-भोज आयोजन की सूचना एवं ज्ञान हो तो वह प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट को कोर्ट में प्रार्थना-पत्र देकर स्टे लिया जा सकता है, पुलिस को भी सूचना दे सकता है। पुलिस भी कोर्ट से स्टे ले सकती है एवं नुक्ते को रूकवा सकती है एवं सामान को जप्त कर सकती है। (5) न्यायालय से लिये गये स्टे का पालन न करने पर सजा-उक्त अधिनियम की धारा 6 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति कोर्ट से स्टे के बावजूद मृत्यु-भोज करता है तो उसको एक वर्ष जेल की सजा एवं एक हजार रूपये के जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जायेगा। (6) सूचना न देने वाले पंच, सरपंच, पटवारी को भी सजा-उक्त अधिनियम की धारा 7 के अनुसार यदि मृत्यु-भोज आयोजन की सूचना कोर्ट के स्टे के बावजूद मृत्यु-भोज आयोजन होने की सूचना पंच, सरपंच, पटवारी, ग्रामसेवक, कोर्ट या पुलिस को नहीं देते हैं एवं जान बूझकर ड्यूटी में लापरवाही करते हैं तो ऐसे पंच-सरपंच, पटवारी, ग्रामसेवक को तीन माह की जेल की सजा या जुर्माना या दोनो से दण्डित किया जायेगा। (7) मृत्यु भोज में धन या सामान देने वाले व्यक्ति को रकम वसूलने का अधिकार नहीं-उक्त अधिनियम की धारा 8 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति बनिया, महाजन मृत्यु-भोज हेतु धन या सामान उधार देता है तो उधार देने वाला व्यक्ति, बणिया, महाजन मृत्यु-भोज करने वाले से अपनी रकम या सामान की कीमत वसूलने का अधिकारी नहीं होगा। वह कोर्ट में रकम वसूलने का दावा नही कर सकेगा क्योंकि रकम उधार देने वाला या सामान देने वाला स्वयं धारा 4 के तहत अपराधी है। अतः यदि कोई व्यक्ति अंधविश्वास में फंसकर या उकसाने से मृत्यु-भोज कर चुका है और उसने किसी से धन या सामान उधार लिया है तो उसको वापिस चुकाने की जरूरत नहीं है। अतः सभी बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि मृत्यु-भोज को रूकवावें और न मानने पर कोर्ट से स्टे लेवें एवं मृत्यु-भोज करने व कराने वालों को दण्डित करावें। इस देश का जन सामान्य, भोले-भाले, अनपढ़, रूढीवादी धर्मभीरू श्रमजीवी वर्ग के लोग स्वर्ग-मोक्ष के अंधविश्वासी कर्मकाण्डों के सस्कारों में जीवन भर फंसे रहते हैं। ये संस्कार, कर्मकाण्ड इनके काले-भालू रूपी कम्बल की भांति लिपट गये हैं जो छोडना चाहने पर भी नहीं छूटते हैं बल्कि गरीबी, कंगाली व बर्बादी के गर्त में डूबते जाते हैं। हालांकि इस संबंध में मेरा अध्ययन कहता है कि इस कुप्रथा को अधिकांशतः समाज बंधु छोडना चाहते हैं परंतु समाज के कुछ ही बुद्धिजीवी एवं धनाढ्य लोगों का इस कुप्रथा के उन्मूलन में कोई भागीदारी नहीं है चाहे उनके बच्चे अशिक्षा के शिकार हों।


4. शादियों में अधिकाधिक/अनावश्यक व्यय : अधिकांशतः यह देखा गया है कि हमारे समाज में शादियों में अनाप-शनाप धनराशि व्यय की जाती है। यदि इस धनराशि को शादियों में खर्च न करके बच्चों की परवरिश, अच्छी शिक्षा में किया जावे तो समाज का समग्र विकास होगा। इसलिए सामान्य रूप से कम से कम खर्च करना चाहिए। इसका आसान सा तरीका यह हो सकता है कि सारे काम एक ही दिन में निपटाये जायें और वह दिन भी अपनी मर्जी का हो जिस दिन कोई भी शादी विवाह समारोह न हो। मेरे कहने का मतलब यही है कि इसमें पंडित की भूमिका नहीं होनी चाहिए। यह तभी संभव है। इसमें केवल लडकी और उसके मॉ और पिता का समर्पण हो तथा लडका और उसके मॉ और पिता का अनुमोदन हो।जो इस प्रकार हैः (1) कन्या के मॉ-बाप द्वारा समर्पण -त्रिरत्न (बुद्ध-धम्म-संघ) की पावन-स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर, आपको अपनी पुत्री (नाम) को, आपकी पुत्र वधू के रूप में समर्पित करते हैं। आज से इसके सुख-दुख एवं सभी प्रकार माता-पिता तुल्य संरक्षण का उत्तरदायित्व आपको सौंपते हैं। कृपा करके इस उत्तरदायित्व को स्वीकार करें। हमें आशा और विश्वास है कि हमारा यह संबंध मधुर और दोनों परिवारों की सुख समृद्धि में सहायक होगा।  साधू - साधू - साधू (2) वर के मॉ-बाप द्वारा अनुमोदन-त्रिरत्न (बुद्ध-धम्म-संघ) की पावन-स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर, आपके द्वारा सौंपे गये उत्तरदायित्व को सहर्ष स्वीकार करते हैं और वचन देते हैं कि अपनी इस पुत्र वधू के सुख संरक्षण का पूरा ध्यान रखेंगे। हमें भी आषा और विश्वास है कि यह हमारा संबंध मधुर और दोनों परिवारों की सुख समृद्धि में सहायक होगा। साधू-साधू-साधू (3) कन्या द्वारा समर्पण-त्रिरत्न (बुद्ध-धम्म-संघ) की पावन-स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर, मैं अपने को श्री (वर का नाम) जी को, उनकी पत्नी के रूप में स्वीकार करके, जीवन भर इनके साथ रहने की प्रतिज्ञा करती हूं। (4) वर द्वारा अनुमोदन-त्रिरत्न (बुद्ध-धम्म-संघ) की पावन-स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर, मैं अपने को श्रीमती (कन्या का नाम) जी को, उनके पति के रूप में समर्पित करता हूं तथा इन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करके, जीवन भर इनके साथ रहने की प्रतिज्ञा करता हूं।


5. दहेज प्रथा : दहेज प्रथा भी समाज में एक कोढ की तरह व्याप्त है जिसके दहेज से संबंधित मामले समाज में सुनने को मिलते रहते हैं। इस बुराई की वजह से हमारे समाज की लडकियॉं बलि चढ जाती हैं। इस कुप्रथा के उन्मूलन के बारे में भी समाज को सोचने की आवश्यकता है। इसके कुरीति के उन्मूलन के लिए राजस्थान सरकार ने ”दहेज उन्मूलन अधिनियम, 1961“ पारित किया हुआ है इसके बावजूद भी इसमें कोई आमूलचूल परिवर्तन नजर नहीं आता है। इस कुरीति के उन्मूलन के लिए हमें समाज की लडकियों की अच्छी शिक्षा की ओर ध्यान देना बहुत जरूरी है।
6. भात सेरेमनी : भात सेरेमनी भी एक कुप्रथा का रूप ले चुकी है। इसमें किया गया खर्च किसी रूप में सराहनीय नहीं है। यदि इस प्रथा पर होने वाले व्यय की धनराशि को समारोह के आयोजक को एक मुस्त दे दी जावे तो वह धनराशि संबंधित कार्यक्रम के आयोजक के द्वारा किये जा रहे व्यय में एक सहायक रूप ले सकती है। रही समाज बंधुओं सम्मान की बात तो सम्मान तो सम्मान होता है चाहे वह एक रूपया हो या उससे अधिक हो, उससे किसी समाज बंधु के सम्मान में कमी नहीं आ सकती। इसलिए कृपया संपूर्ण समाज भी इस ओर पूर्णरूपेण ध्यान दें और इस कुप्रथा में भी परिवर्तन लायें।


7. बाल विवाह : बाल विवाह भी इस समाज की एक कुप्रथा है और इसमें बहुत कुछ सुधार भी हुआ है लेकिन अपने ग्रामीण माहौल में रह रहे हमारे समाज बंधुओं में कुछ हद तक सुधार की आवश्यकता है जिसके लिए राजस्थान सरकार के द्वारा बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 पारित किया हुआ है जिसकी अनुपालना भी की जा रही है जिसके तहत काफी कुछ सुधार हुआ है फिर भी इस ओर हमें मानसिक रूप से मानसिक रूप से तैयार होना चाहिए और सकारात्मक सोच रखनी चाहिए। उक्त कानून के तहत शादी के लिए लडके की उम्र 21 वर्ष होनी चाहिए और लडकी की उम्र 18 वर्ष होनी चाहिए तभी दोनों शारीरिक रूप से तैयार हो पाते हैं।


8. कुआ पूजन/डस्ठौन : इस प्रथा में धनराशि व्यर्थ ही व्यय होती है। इस कुप्रथा पर व्यय होने वाली राशि को अगर बच्चे की परिवरिश एवं शिक्षा पर व्यय की जावे तो बच्चे का भविष्य भी सुधरेगा और समाज में एक सुदृढ परिवर्तन होगा। इसलिए इस प्रथा को हमेशा के लिए संपूर्ण रूप से त्याग देना चाहिए।


9. महिला उपेक्षीकरणः मैं इसे यहां कुप्रथा भी नहीं कह सकता है क्योंकि वह निन्दनीय कुकृत्य है जिसके बारे में सोचने पर भी आत्मग्लानि होती है। इतिहास के पन्नों उलटने पर मालूम होता है कि इस देश के मूलनिवासी कभी मातृसत्तात्मक हुआ करते थे अर्थात् हमारे समाज की महिलायें घर की मुखिया हुआ करती थीं लेकिन आज हम उन्हें अन्य सम्मान देना तो दूर उन्हें हमारे बराबर में बैठने तक की अनुमति नहीं है जिसके कारण समाज हर क्षेत्र में पिछड रहा है। सबसे बडी बात यह है कि अगर किसी महिला से वार्तालाप की जाये तो हमारे समाज बंधुओं की वार्तालाप भाषा का ही रूख बदल जाता है और यह सबसे बडे शर्म की बात है कि किसी लडकी की शादी करते समय संबंधित लडकी का कन्यादान किया जाता है लेकिन लडका दान कभी नहीं किया जाता, क्यों? ऐसा लडकी ने क्या गुनाह कर दिया कि उसका दान किया जा रहा है। इसमें मेरा ऐसा मानना है कि यदि हम महिलाओं को बराबर का दर्जा दें तो हमारे समाज से हर प्रकार की बुराई को दूर करने में सहयोग मिलेगा और उक्त कुप्रथाओं का उन्मूलन भी शीघ्र हो सकेगा। इसलिए महिलाओं की उपेक्षा के वजाय उन्हें हर प्रकार से सम्मान देना चाहिए और हम उनसे बहुत सारी अपेक्षाएं कर सकते हैं।


-रूप सिहं