हाल ही में होली पूरे देश में मनाई गई। यह भगवान-विद्रोही हिरण्यकश्यप और उसकी बहिन की मौत के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसी प्रकार दशहरा पूरे देश में मनाया गया। इसके पीछे कारण यह बताया जाता है कि राम ने युद्ध में रावण का वध किया था और सीताजी को उसके चंगुल से मुक्त किया था। तब से रावण, कुम्भकरण और मेघनाद को बुराई का प्रतीक मान कर अच्छाई की विजय स्वरूप दशहरा मनाने की परम्परा चली आ रही है। और भी कई कारण इसके पीछे हैं। इसके बाद दीपावली का त्योहार आता है। रावण को मारने के बाद राम इसी दिन अपने राज्य अयोध्या लौटे थे। कई और भी त्योहार हैं जो किसी न किसी प्रतीक के रूप में मनाये जाते हैं।
त्योहार मनाने चाहिये और अवश्य ही मनाने चाहिये, जिससे जीवन में नीरसता और एकरसता समाप्त होकर सरसता और उल्लास का संचार हो। जीवन में कुछ बदलाव आये। लेकिन त्योहारों के कारणों पर गौर अवश्य करना चाहिये।
दशहरे को ही लें। रावण, कुम्भकरण और मेघनाद को बुराई का प्रतीक माना जाता है। लेकिन विगत इतिहास को देखें तो ऐसे हजारों चरित्र और व्यक्ति उभरकर आयेंगे, जिनके सामने ये तीनों बेचारे तो कहीं भी नहीं ठहरते हैं। रोज कितनी महिलाओं के साथ दुराचार तक हो जाता है, लेकिन समाज दुराचारी दुष्टों को ससम्मान स्वीकार कर बेचारी अबलाओं को ही दोषी करार दे उनका जीना हराम कर देता है। निर्भया केस के दुराचारियों को 20 मार्च 2020 को फाँसी दी गई, इससे थोड़ी राहत मिली है। असली दुष्कर्मी जीवित रहते हैं और जनता हर साल बेचारे रावण को फूंके जा रही है! कितना विरोधाभास है ? क्या ऐसे में दशहरा मनाना और हर साल इन तीनों के पुतले फूंक करोड़ों रुपयों के आग लगाना उचित है?
दशहरे के पहले नौ दिन तक देवी के विभिन्न नौ रूपों की पूजा की जाती है। इन सबका सारांश यही है कि देवी शक्ति का रूप होती है और हर बालिका और नारी देवी का ही रूप होती है।
काश कि भारतीय समाज, जो कि हजारों साल से इस पर्व को मनाते आ रहा है, इसके मूल तत्व को आज भी ग्रहण कर पाता तो देश में इतना दुराचार नहीं होता। बच्चियां और नारियां निर्भय होकर कहीं भी कभी भी विचरण कर सकती थीं, क्योंकि तब कोई दुराचारी होता ही नहीं और यदि कोई सिरफिरा ऐसा कार्य करता भी तो वह उसी तरह मारा जाता जिस प्रकार देवी ने दुराचारियों को मारा था। यह सजा समाज देता जो कि देवी की पूजा करता आया है। लेकिन ऐसा एक भी स्थान पर होता है ? फिर व्यर्थ में देवी पूजा का क्या फायदा ? जब हम सार-तत्व ही नहीं ले पा रहे और विरोधी बातों को अपना रहे हैं तो चाहे कितनी ही पूजायें कर लो, निरीह जानवरों की बलि दे लो, जिन्दगी भर ही दाढ़ी मत बनाओ या व्रत रह कर भूखे ही मरते रहो, क्या हांसिल कर लोगे ?
होलिका के रूप में एक नारी को जीवित जलाने की परम्परा जँहा हजारों वर्षों से जारी हो वहाँ नारी सम्मान की कैसे आशा कर सकते है ?
दीपावली को ही लेते हैं। भारत के सोलह महाजनपदों में कौशल की राजधानी अयोध्या थी। इससे बड़े-बड़े कितने ही राज्य थे। इनमें कितने ही महत्त्वपूर्ण कार्य नित्य प्रति होते रहते थे जिनके सामने एक राज्य के राजकुमार का घर लौटना कोई अहमियत नहीं रखता था। विगत तीस-पैंतीस साल पहले तक दीपावली बड़ा त्योहार अवश्य था, लेकिन इतना बम्पर नहीं जितना अब है। इसके पीछे कारण है। पूंजीवादी ताकतें त्योहारों को नियन्त्रित करने लग गई हैं। दीपावली के पहले तक फसलें कट जाती हैं और उनकी राशि किसानों के हाथ में आ जाती है। यही समय उनकी आवश्यकता की वस्तुएं खरीदने का होता है। बाजार में पैसे का आवागमन होता है, इस प्रकार अर्थव्यवस्था को बल मिलता है और कई व्यक्ति दीपावली के दिनों में ही सालभर की कमाई कर लेते हैं। इस प्रकार दीपावली अब बाजार नियंत्रित त्योहार हो गया है। राम के अयोध्या आने की कथा तो प्रतीक भर बन कर रह गई है।
होली को लेते हैं। इसके आसपास भी फसलों का पैसा किसानों के हाथ में आ जाता है। कहना न होगा कि आज भी कृषि काफी हद तक देश की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करती है। इस प्रकार यह भी मूल स्वरूप को छिपाये बाजार- नियंत्रित त्योहार होता जा रहा है। लाखों-करोड़ के सौदे इस त्योहार पर होते हैं और बाजार को गति मिलती है।
अन्य दूसरे पर्वां की और देखें तो वे अर्थव्यवस्था से इतने जुड़े नहीं हैं लेकिन सब में विरोधाभास देखने को मिलता है। नागपञ्चमी पर साँपों की ढूंढ-ढूंढ कर पूजा करने वाले लोग जब कभी भी साँप को देखते हैं तो उसे जान से मारे बिना चैन से नहीं बैठते हैं। उसे सही सलामत बिना मारे जाने देना इन्हें गंवारा नहीं होता है।
औरतें बच्छबरस पर बछड़ों की पूजा करती हैं और अपने पुत्र की लम्बी आयु की कामना करती हैं। परन्तु आज बछड़ों की क्या दुर्गति है, यह किसी से छिपा नहीं है। सवाल फिर वही है-क्या इस प्रकार प्रतीकों की पूजा करने और मूल-तत्व को बिसरा देना कहाँ तक उचित है ?
गौवर्धन पर गाँवों और शहरों तक में औरतें गोबर का गौवर्धन पर्वत बनाकर पूजती हैं। लेकिन गौवर्धन का अर्थ होता है-गाय का वर्धन, बढोत्तरी या उत्थान। यह इसलिये कि भारत कृषि प्रधान देश रहा है और पहले बिना गाय के उत्थान के देश का किसी प्रकार से भला होने वाला नहीं था। लेकिन आज गाय का और गौवंश का किस प्रकार भला हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। क्या इस प्रतीक पूजा को छोड़कर गौवंश के वर्धन के लिये कुछ अच्छा कर सकते है? यदि नहीं तो लकीर के फकीर बनने का कुछ फायदा है?
इस प्रकार अगर गिनाने बैठें तो यहाँ सात दिन और नौ त्योहार हैं और सबके पीछे इसी प्रकार ढोल की पोल है। अतः त्योहारों को मनाना बुरा नहीं अच्छा है, लेकिन उनके पीछे छिपे मूलतत्व को समझकर तदानुसार व्यवहार में लाना बहुत ही अच्छा है।
आशा करें कि हर त्योहार हमारे जीवन में खुशियों के नये रंग घोले और सभी का जीवन खुशहाल हो।।
-श्याम सुन्दर बैरवा
प्रतिकात्मक फोटों गुगल से साभार