‘‘बेनाम सा ये दर्द, ठहर क्यों नहीं जाता।
जो बीत गया है, वो गुजर क्यों नहीं जाता।।’’
मुझे निदा फाजली साहब की ये पंक्तियाँ रह-रह कर याद आती हैं जब मैं किसी भी नई पीढ़ी के अपने साथी को पुरानी रूढियों और परम्पराओं को ढोते हुए पाता हूँ और यह कहते हुए अपने आपको सही सिद्ध करते पाता हूँ कि-‘‘क्या करें सब करना पड़ता है, जो बुजुर्ग लोग बता गए वो तो करना ही पड़ता है।’’ या ‘‘ये परम्परा तो हमारे खानदान में पीढ़ियों से चली आ रही है। ये तो निभानी ही पड़ेगी।’’ या ‘‘हमारे यहाँ जो कभी नहीं हुआ, वो अब कैसे होने देंगे।’’ या ‘‘अरे भाई, हमारी नहीं तो कम से कम पूर्वजों की परम्पराओं का तो खयाल करो।’’
ये वो सब बहाने हैं जो उन लोगों से सुनने को मिलेंगे जिनको आप किसी दकियानूसी आडम्बरवादी कार्य के लिए टोकोगे या करने से रोकोगे। ये समय के ऐसे रोड-ब्लॉक हैं जो गुजरना ही नहीं चाहते या जिन्हें हम गुजरने देना ही नहीं चाहते।
इन रूढियों की श्रेणी में ऐसे कार्य आते हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को धत्ता बताते हैं जैसे- कोई अपशकुन (जैसे- छींकने पर या बिल्ली के रास्ता काटने पर रुकना इत्यादि) या टोना-टोटका (नींबू-मिर्च बाँधना, चौराहे पर मटकी में अगड़म-सगड़म रखना, नजर उतारने के लिए सिर के चारों ओर लाल-मिर्च-नमक घुमाना फिर आग में फैंक देना इत्यादि), पत्थर पूजना, भगवानों के नाम पर व्रत-उपवास रखना, लोट-पोट हो कर परिक्रमा करने धर्म-स्थलों तक जाना इत्यादि। कुछ काम तो बड़े खर्चीले होते हैं जैसे प्रतिवर्ष किसी धर्मस्थल की यात्रा करना (कई लोग तो मासिक रूप से भी करते हैं), त्यौहारों पर केवल परम्परा के नाम पर निठल्लों को खाना खिलाना, कुछ गैर-जरूरी सामान खरीदना, कुछ सामान स्वयं उधार लेकर खरीदना और बिना जरुरतमंद को दुःख पाते हुए दान करना, त्यौहारों पर अपनी हैसियत से अधिक व्यय करना इत्यादि।
भारत में ये अधिकतर कार्य कई पीढ़ियों से रोबोट की भाँति किए जा रहे हैं। कोई इनकी निरर्थकता की ओर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा है। दयनीय स्थिति तो उन वैज्ञानिकों, इन्जिनियरों, डॉक्टरों, समाज सुधारकों, विदेषों में पढाई कर लौटे उच्च शिक्षाधारियों की है जिनकी ओर पूरा समाज प्रेरणा के लिए देखता है और उनका अनुशरण करने का भरसक प्रयत्न करना चाहता है लेकिन जब उन्हीं को सदियों से चले आ रहे गर्हित बन्धनों और आडम्बरों में जकड़ा हुआ पाता है तो पहले से परम्पराओं का बोझा ढोने के लिए विवश आधुनिक पीढी भी वहीं की वहीं खड़ी रह जाती है। महाकष्टदाई तो तब होता है जब नई पीढ़ी इन रूढियों को और अधिक आडम्बर के साथ अपने ऊपर लागू करती हुई नजर आती है! हद तो तब हो जाती है जब निहायत ही बेवकूफी भरी परम्परा को लोग वैज्ञानिक कुतर्क देकर सही सिद्ध करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते! और अपनी जीत मनाते हुए, दूसरे भौंदूओं को और भौंदू बनाते हुए निकल लेते हैं। ऐसे कितने ही उदाहरण आपको मिल जाएँगे कि पुरानी वेदों, पुराणों, महाकाव्यों की निरर्थक परिकल्पनाओं को और उनके आधार पर चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराओं को लोग वैज्ञानिक कुतर्क देकर सही सिद्ध करते नजर आ जाएँगे।
जो भी कुछ हो रहा है वह क्यों हो रहा है, इसकी थाह कुछ बिरले ही लेने का साहस करते हैं। क्योंकि प्रश्न पूछना सभी के माद्दे की बात नहीं होती। आधुनिक भारत में प्रश्न पूछना बड़े ही साहस और परिश्रम का कार्य है। यदि कोई बुजुर्ग किसी भौमा बाबा की पूजा करता है और वह जीवित रहते हुए या मरने के साथ भी ये कह कर मरे कि भौमा बाबा नाराज नहीं होने चाहिए तो नई पीढी के भौंदूओं में इतना साहस नहीं होता है कि वे प्रश्न पूछ सकें कि इस पत्थर में भौमा बाबा आखिरी बार कब देखे गए! कुछ मनगढन्त दन्त-कथाएँ सृजित की जाती हैं और खाने-पीने के स्वार्थवष फैलाई जाती हैं ताकि किसी भी अदृश्य शक्ति के वास को एक विषिष्ट स्थान पर बताया जा सके। यह बड़ा तकलीफदेह है कि इन अदृश्य शक्तियों के नाम पर बड़ी कीमती-कीमती जमीनें रोक-कर पटक दी जाती है जिसे यदि काम में लिया जाए तो निर्धनता भगाने में अकल्पनीय लाभ होगा, भूत-प्रेत तो खैर भौमा बाबा के डर से कभी भागा होगा या नहीं!
नई और आधुनिक वैज्ञानिक तर्क बुद्धि होते हुए भी कुछ लोग पुरानी परम्पराओं से चिपके रहते हैं। और चाहते हुए भी पुरानी रूढ़िवादी सोच वाली प्रक्रियाओं को छोड़ नहीं पाते हैं। ये कोई सामान्य बात नहीं हैं बल्कि ये एक मानसिक अवस्था भी है। इसको मानस-शास्त्र में ‘‘संज्ञानात्मक विसंगति’’ कहते हैं। इसे मानसिक विकार तो नहीं कह सकते क्योंकि इससे बाहर आने के लिए किसी चिकित्सकीय सहायता की आवष्यकता मुश्किल से ही पड़ती है। लेकिन यह ज्ञान की तरफ से आँखे मूँदने की श्रेणी में अवश्य आता है। सामान्य रूप में इसको आप ऐसे समझ सकते हैं कि आपके परिवार में वर्षों से लक्स साबुन से नहाने की परम्परा है क्योंकि आपके दादाजी ने इसे अपनाया और फिर पिताजी ने भी इसे बड़ी श्रद्धा से जीवन भर काम में लिया। अब आप भी इस परिपाटी को आगे बढा रहे हैं। बाजार में कितने ही लक्स से अच्छे-बुरे साबुन आए, लोगों ने भी आपको समझाने के खूब प्रयास किए लेकिन ये आपका ‘‘खानदानी’’ साबुन है अतः आप इसे छोड़ नहीं सकते नहीं तो आपके पूर्वज और बुजुर्ग नाराज हो जाएँगे ओर उनकी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। यानि कि यदि आप किसी पुरानी परम्परा या विश्वास को छोड़ कर नया करने से डरते हैं या आपका मन करने के लिए तैयार नहीं होता है तो आप पक्का समझ लीजिए कि आप ‘‘संज्ञानात्मक विसंगति’’ के शिकार हैं!
पुरानी परम्पराओं को ढोने का ‘‘आम मनुष्य’’ स्वयं ही बहाने ढूँढता है। और फिर स्वयं ही उन्हें सही ठहराता घूमता है। ‘‘आम मनुष्य’’ शब्द समूह को मैंने उद्धहरण चिन्ह में इसलिए बन्द किया है क्योंकि ऐसे 99 प्रतिशत लोग ‘‘आम मनुष्य’’ ही होते हैं बाकि तो स्वार्थपरतावश किसी कार्य को आदत बनाते हैं जैसे एक ब्राह्मण पूजाघर में घण्टा बजाने, दस तरह के मंत्रोच्चारण करने, सभी से अपने ईष्टदेव की जय बोल कर अभिवादन करने इत्यादि को अपनी आदत क्यों बनाता है क्यों कि उसे इससे लाभ हो रहा है तथा उसकी पीढियों को भी इसी से लाभ होने वाला है अतः उसके लिए यह ‘‘संज्ञानात्मक विसंगति’’ नहीं है बल्कि उसका यह एक ‘‘सोच-समझ कर लिया गया निर्णय’’ है।
हमें ‘‘दिखावे’’ और ‘‘आदत’’ में भी अन्तर करना सीखना होगा। यदि आप नवरात्रा के दिनों में किसी को उपवास के साथ-साथ दाढ़ी बढाते हुए पाएँगे या नंगे पैर चलते हुए भी पाएँगे तो ये तो पक्का है कि यह उसकी ‘‘आदत’’ नहीं है। तो ये क्या है? ‘‘दिखावा’’ ही तो है। अब इन दिखावों को आप सम्पन्नता से जोड़ कर देखिए। क्या सभी सम्पन्न व्यक्ति (अम्बानी, अडानी या टाटा या अजीम जी प्रेमजी जैसे लोग) नवरात्रा में दाढ़ी बढाकर या नंगे पैर चल-चल कर धनाढ्य बने हैं? तो ये भी सिद्ध नहीं होता कि दिखावे से कोई सम्पन्नता हासिल कर सकता है। यदि ‘‘श्रद्धा’’ की भी बात की जाए तो क्या घर में ही अपने पूजा-स्थल रखने वालों में श्रद्धा की कमी होती है? ऐसा तो कभी किसी ने सिद्ध नहीं किया अभी तक!
अब हम परम्पराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी ढोने के एक पृथक दृष्टिकोण से परिचित होते हैं। परम्परागत रूढ़ियों की अपनी एक सामाजिक और राजनीतिक अर्थ-व्यवस्था होती है। आप सती प्रथा, दहेज प्रथा इत्यादि के आपराधिक घोषित होने से पहले की स्थिति का आकलन करके देखिए। आप पाएँगे कि किस रूढ़िवादी व्यवस्था से किसको अत्यधिक लाभ हो रहा था। जिस वर्ग को इन रूढ़ियों से सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक लाभ हो रहा था या हो रहा है वह भरसक प्रयास करता है कि यह परम्परा जारी रहे। आप इसका ज्वलंत उदाहरण विभिन्न पूजा-स्थलों पर जाकर देख सकते हैं। इस अर्थव्यवस्था का उदाहरण त्यौहारों पर देख सकते हैं। दीपावली तो रूढ़ियों को आँख मूँद कर निभाए जाने का सर्वोत्तम उदाहरण है। दशहरे से पहले नवरात्रा लीजिए। दुर्गा पूजा जैसे उत्सव देखिए। दशहरा देखिए। और फिजूल-खर्च की और आडम्बर के दिखावे की सभी हदें पार करती दीपावली देखिए। नवरात्रा के व्रत-उपवास, दाढ़ियों को बढ़ाने की होड़, नौ दिन तक खाने-पीने में परहेज करने की होड़, दुर्गा-पूजा पर सबसे बड़ी मूर्ती बनाने की होड़ फिर उसे सबसे अधिक शोर-शराबे के साथ विसर्जन करने जाने की होड़! ये सब क्या स्वयं कोई देवी-देवता कहता है करने के लिए? नहीं ये सब होड़ उन लोगों द्वारा पनपाई जाती है जिनको इस सब आडम्बरों से सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक लाभ होते हैं। आप व्रत-उपवास में शाकाहार खाएँगे, हलवाईयों की चाँदी! पूरा दुर्गा-पूजा वाला ‘‘शो’’ प्रबन्धन नौ दिन तक पैसे की बारिस लाता है। पाण्डाल सजते हैं, डाण्डिये होते हैं, युवक-युवतियाँ डाण्डिये के लिए नए वस्त्र खरीदते हैं, प्रोफेशनल लोगों से नाच सीखते हैं फिर विभिन्न स्थलों पर डाण्डिए में सम्मिलित होने के लिए प्रवेश-शुल्क देते हैं। यह एक अर्थ-व्यवस्था नहीं है तो क्या है? फिर दशहरे पर रावण दहन के चन्दे की कमाई, और किसी भी राजनीतिज्ञ या राजषाही के गुलाम क्षेत्रों में किसी भूतपूर्व महाराजा की तीर से रावण को जलवा कर उसके सामाजिक और राजनीतिक अहम और रुतबे को पुनः-पुनः स्थापित करने की लालसा को शान्त किया जाता है।
दीपावली तो पराकाष्ठा है हमारे दिखावे और रूढ़ियों के ढोए जाने की! आपको धन-तेरस के छलावे में धकेला जाता है। सारे बाजार की आर्थिक व्यवस्था पूरे वर्ष के नुकसान की भरपाई करने पर तुल जाती है। अमीर कमाता है गरीब लुटाता है। उधार ले-ले कर लुटाता है। छोटी-छोटी होड़ पूरी करने में ही कई-कई महिनों तक कर्ज चुकाता रहता है। ऐसी आँधी चलाई जाती है कि छोटे-बड़े सब इसमें उड़ते नजर आते हैं। रोशनियों के नए-नए तरीके इजाद किए जाते हैं। केवल दियों से काम नहीं चलता। मैं तो धन्यवाद दूँगा चीन के सस्ते सामान को जिसकी वजह से गरीबों को रोशनी करने में कुछ फायदा हुआ है। पटाखों पर लाखों-करोड़ों लुटा दिए या कहें फूँक दिए जाते हैं। फिर प्रदूषण-जनित और जलने की दुर्घटनाओं सम्बधित रोग होते हैं और निजी अस्पतालों की चाँदी होती है! यह एक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था नहीं है तो क्या है?
अब आप इसका दूसरा पहलू देखिए। आप सादा आदमी हैं। साधरणतया आप अपनी श्रद्धा को अपने तक सीमित रखते हैं। कभी कोई दिखावा नहीं करते। कभी होड़ नहीं करते। आपने अपने पूर्वजों और बुजुर्गों से भी किसी परम्परा को ढोने का कोई वादा नहीं किया। आप वैज्ञानिक तरीकों से जितना उत्सव मना सकते हैं उतना मनाते हैं। कभी किसी टोने-टोटके या शकुन-अपशकुन को नहीं मानते। आपने कभी भूत-प्रेत, भौमा बाबा या ऊपली-नीचली हवा की परवाह नहीं की। सभी समस्याओं का हल अपनी तर्क-बुद्धि के दम पर निकाला। तो समझ लीजिए, आप इस दुनिया के सबसे सुखी व्यक्ति हैं। केवल विकासशील विचार ही आपके मनमस्तिष्क में आएँगे और आपका अन्जाना भय आपको कभी नहीं सताएगा। मैंने इन सभी सिद्धान्तों का पालन कर अपने आपको निहायत ही सुखी बनाया है, आप भी अपने आपको सुखी बनाइए। आडम्बरों और रूढ़ियों की जंजीरें तोड़िए और अपना खर्चा बचाकर दूसरों की नहीं स्वयं की अर्थव्यवस्था सुधारिए। जो बुजुर्ग और पूर्वज आपको परम्परा के नाम पर किसी आडम्बर को निभाने या ढोने के लिए विवश करते हैं वे अपना जीवन जी गए और आपको इन परम्पराओं का गुलाम बना गए। अब आपकी बारी है अपना बढा हुआ ज्ञान लगा कर उन्हें समझाने की और यह बताने की कि आप उनसे कम नहीं अधिक समझदार हैं और उनसे बेहतर आर्थिक और सामाजिक स्थिति अपनी अगली पीढी को देने का हौसला रखते हैं।
-सीताराम स्वरूप