"हर व्यक्ति दुनिया को बदलने की सोचता है लेकिन कोई खुद को बदलने की नहीं सोचता"- लियो टॉलस्टॉय ।
आज चाहे अनचाहे हम परिवर्तन का हिस्सा हैं। समय के साथ सब बदल रहा है चाहे वे हमारे आर्थिक एवं सामाजिक हालात हों, हमारा वैचारिक स्तर हो या हमारी चेतना हो। कुछ एक परिवर्तनों को छोड़कर ज्यादातर परिवर्तन स्वार्थपरता से प्रेरित दिखते हैं एवं नकारात्मकता की ओर हैं। खैर! यह तो होना ही है। सब तरफ यही सब जो दिखता है तो हम इससे अछूते कैसे रह सकते हैं।
व्हाट्सएप पर हमारे ज्यादातर ग्रुप्स में मैं देखता हूँ कि अधिकांश पोस्ट ज्यादातर ब्राह्मणाद, वर्तमान व्यवस्था, धार्मिक कर्मण्काण्ड, एवं तथाकथित हिन्दू देवी-देवताओं के विरोध में एवं हम पर हो रहे अत्याचारों के बारे होती हैं और कुछ एक सकारात्मक चीजें बाबा साहब अम्बेडकर एवं हमारी उपलब्धियों पर होती हैं। इन सभी चीज़ों का होना हमारी जागरूकता के लिए अच्छा है। ये चीज़ें हमें कुछ सोचने एवं करने पर मजबूर करती है लेकिन हमारे अन्दर बहुत ज्यादा बदलाव दृष्टिगत नहीं होता है इसका क्या कारण है? समय के साथ कुछ बदलाव अवश्य दिखते हैं लेकिन ये अपने प्रयासों से नहीं हैं। बदलाव के लिए आखिर हम करते क्या हैं? और आखिर करें भी तो क्या? हर आदमी का अपना नजरिया, सोच-विचार एवं व्यवहार है और हर आदमी अपने नजरिये से खुश है यानि उसमें और विकास की आवष्यकता महसूस नहीं होती। सर्वोत्तम नज़रिया तो कोई एक ही हो सकता है फिर अपने-अपने नजरिये पूर्ण कैसे हो सकते हैं? यह विचारने योग्य है। सर्वोत्तम नजरिया क्या हो सकता है, तो मुझे इसका जो जवाब लगता है वह यह है कि हम किसी महापुरूष को अपना आदर्श बनावें और उसका अनुसरण करें, और हमारा नजरिया यदि उससे मेल खाता है तो वहीं सबसे उपयुक्त नजरिया होगा। आज हमारा कोई आदर्श नहीं है शायद इसी कारण हम अपने को बिखरा हुआ पाते हैं।
मेरी नजर में बाबा साहब एवं गौतम बुद्ध से अच्छा कोई और उदाहरण नहीं हो सकता जिन्होंने पूरी मानवता को आत्मोत्थान और प्रेम की राह दिखाई। वो ऐसा कैसा कर पाये? यह समझने के लिए हमें उनका जीवन संघर्ष देखना-समझना पड़ेगा। उनमें क्या खास था? मैंने उनके बारे में कुछ भी नहीं पढ़ा है, और बचपन में कुछ पढ़ा है तो वह याद नहीं है लेकिन मैं इतना ज़रूर समझता हूँ कि उनका ज्ञान एवं चेतना का स्तर बहुत ज्यादा था और उसके लिए दोनों महापुरूषों ने कितना संघर्ष एवं परिश्रम किया है हम सब जानते हैं। हम अपनी चेतना और ज्ञान के विकास के लिए कितना संघर्ष करते हैं यह भी हममे से हरेक आदमी जानता है। उनकी परिस्थितियॉं बिल्कुल विषम थी तो भी उनके संघर्ष, परीश्रम एवं ज्ञान के कारण सारा विष्व ना केवल उनको जानता है बल्कि उनके सामने नतमस्तक है। दूसरी तरफ हम हैं कि मानने को ही तैयार नहीं हैं। कुछ खास अनुकरण नहीं करते फिर भी अपने आपको बहुत बड़ा ज्ञानी मानकर चलते हैं। बाबा साहब की बदौलत आज हमारी परिस्थितियॉ बहुत अच्छी हैं, शायद इसीलिए हम संघर्ष नहीं करते और करते भी हैं तो अपने स्वयं के एवं परिवार के भौतिक उत्थान के लिए। हमारे भौतिक उत्थान से हमारे समाज को अवष्य कुछ लाभ हुआ है लेकिन वह कुछ सुख सुविधाओं के साधन जुटा पाने का ही लाभ है। हमारे आचार-विचार एवं चेतना में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखता है। जबकि बाबा साहब ने स्वयं कहा है कि- "मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है, मेरे बताए हुए रास्ते पर चलो।"अपेक्षित बदलाव नहीं दिखने का मेरे विचार में यही कारण है कि आज हम ज्यादातर जय-जयकार ही करते हैं और अपने ज्ञान एवं चेतना के विकास के लिए ज्यादा कुछ नहीं करते। इसका यह अर्थ नहीं है कि भौतिक उत्थान या सामाजिक उत्थान का कोई महत्व नहीं हैं, बहुत महत्व है लेकिन यही सबकुछ नहीं हैं। हमें दूसरे क्षेत्रों में भी उन्नति करनी पड़ेगी।
आज हम ब्राह्मणवादी व्यवस्था की खि़लाफ़त करते हैं क्यों ? क्योंकि वह साधन सम्पन तो हैं लेकिन चारित्रिक रूप से उन्न्त नहीं हैं, अत्यधिक ज्ञान और धन सम्पदा होने के बावजूद भी वे पतन की राह पर हैं तो क्या केवल भौतिक उन्नति करके हम इस भावी पतन से बचे रह सकेंगे ? नहीं! तो हमें इसके लिए क्या करना होगा? हमें बाबा साहब एवं गौतम बुद्ध की तरह ही अपने ज्ञान, अपने चरित्र एवं अपनी चेतना पर काम करना होगा ताकि ये भी विकसित हो सकें। वर्तमान में मैं इसकी बहुत कमी देखता हूँ। क्योकि इसके बारे में हममे कभी संवाद नहीं होता और कभी होता भी है तो वह हिन्दु धर्म के कर्मकाण्ड, ब्राह्मणादी विचारधारा के विरोध एवं कुरीतियों की ओर घूम जाता है। हम अपने आप को ज्ञानी समझने लगते हैं और पूरी बात सही तरीके से सुनते भी नहीं हैं। जिनके पास कुछ ज्ञान एवं चेतना है तो उनके अन्दर अहंकार एवं खुद की महत्त्वाकांक्षायें बढ़ जाती हैं। इस ज्ञान व सम्पन्नता की वजह से वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लग जाते हैं। जिससे अन्ततः वैमनस्य बढ़ता है। इसीलिए आज हमें कोई आदर्श नहीं दिखता जो हमारे बीच जीवित हो। यह विडम्बना है कि गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को बाबा साहब ने स्वीकार किया और बौद्ध धर्म अपनाया। हममें से भी कुछ लोगों ने बौ़द्ध धर्म का कुछ ज्ञान अर्जित किया है और हिन्दु धर्म के स्थान पर कभी-कभी कुछ बौद्ध धर्म के कर्मकाण्डों को अपनाते हैं और खुद को उनका अनुयायी कहते हैं, पर केवल इतना ही। गौतम बुद्ध ने जो किया उससे हमारा बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं है। उनकी शिक्षाओं के नाम पर हम केवल तथाकथित हिन्दु देवी देवताओं को गाली देने एवं उनको नहीं मानने का प्रण अवष्य लेते हैं जोकि स्वयं बुद्ध एवं बाबा साहब ने कभी नहीं किया। उन्होंने जो किया हम वो करें। बाबा साहब ने बहुत मेहनत की, संघर्ष किया, ज्ञान अर्जित किया और अपनी चेतना और चरित्र को ऊँचा उठाया जो हमारे सामने हैं। और गौतम बुद्ध ने सभी धार्मिक व रूढ़ीवादी सोच से ऊपर उठकर ध्यान के माध्यम से अपनी चेतना को पराचेतना तक विकसित किया और मानवता को एक नई राह दिखाई।
आज हम भी स्वयं को केवल पैसा कमाने और हिन्दू धर्म एवं ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गाली देने तक ही सीमित नहीं रखें साथ ही साथ अपनी चेतना एवं आत्मोत्थान के लिए कुछ सकारात्मक चीजे़ भी करें। केवल ज्ञान से कुछ नहीं होता जब तक कि हम उसे आत्मसात नहीं कर सकें और अपने अनुभव में नहीं बदल सकें। यह हम देख भी सकते हैं आज ज्ञान बहुत सहजता से उपलब्ध है। कितना सारा ज्ञान तो हम व्हाट्सएप के माध्यम से रोज़ इधर-उधर करते हैं। और ज्यादा से ज्यादा उसे मोबाइल में कुछ दिन स्टोर करके रखते हैं लेकिन अपने जहन में नहीं उतार पाते। तो ऐसा क्या किया जाये कि हम ज्ञान को आत्सात कर पायें और उसे अपने अनुभव में ला पाऐं। इसका एक ही उपाय है कि ज्ञान को जीवन में उपयोग करना, उसे एप्लाई करना। लेकिन ये एप्लीकेशन ही मुश्किल है इस मुश्किल का आसान बनाता है ‘ध्यान’।
सारे विश्व की धार्मिक और आध्यात्मिक परम्पराओं में हम देव-तुल्य व्यक्तियों को भी ध्यान करता हुआ पाते हैं- गुरू नानक, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, संत कबीर, संत रविदास एवं स्वामी विवेकानन्द जैसी आध्यात्मिक हस्तियों ने अपने जीवन और शिक्षाओं के द्वारा ध्यान के महत्व को प्रतिपादित किया है। (महादेव एवं हिन्दु देवी-देवताओं व ऋषियों का उल्लेख मैं जानबूझ कर नहीं कर रहा हूँ क्योंकि उनके प्रामाणिक इतिहास की जानकारी मुझे नहीं है, लेकिन उनको भी तस्वीरों में ध्यान की मुद्रा में देखते हैं) खैर जो भी हो...
‘ध्यान’ शब्द से ही ऐसा लगता है कि यह बहुत मुश्किल काम है, जब बड़े-बड़े ऋषि-महात्मा इसे नहीं कर पाये तो हम कैसे कर सकते हैं। लेकिन यह मुश्किल नहीं है। ध्यान को इस तरह भी समझा जा सकता हैं- ‘किसी चीज़ के बारे में लगातार सोचना और उसको लेकर सचेत बने रहना ही ध्यान है’। ‘जब मन खुद-ब-खुद किसी चीज़ के बारे में सोचता रहता है या कुछ समय के लिए किसी चीज़ पर एक खास मकसद के साथ टिका रहता है और इसके फलस्वरूप उस इन्सान का व्यवहार प्रभावित होता है तो यह ध्यान कहलाता है।’ हम अक्सर अपने दैनिक जीवन एवं प्रोफेशन में ऐसा करते भी हैं।
ध्यान के बारे में कई लेखों से साभार ली गई निम्न लाइनें यहाँ लिखना मुझे उपयुक्त लग रहा है- हम भेड़चाल चलते हुए आत्मा के विकास की गठरी को उतार कर सिर्फ समाज में अपना स्थान पक्का करने को ही अहम मानते हैं और बाहरी कर्म-विधानों में खो जाते हैं। हम लगातार किसी कमी का अनुभव करते हुए जिन्दगी गुजार देते हैं।.....ध्यान से मन में धीरता आती है, भयमुक्त मन शान्ति से सोच पाता है। ध्यान से मन शान्त होता है, और एक शान्त मन ही हमको उचित निर्णय लेने में मदद करता है।.....ध्यान से हमारा चित्त शुद्ध होता है, हमारी निर्णय क्षमता बढ़ती है, हमारा विवेक बढ़ता है। स्वामी विवेकानन्द के कथनानुसार- "गहरी से गहरी निद्रा से भी उतना विश्राम नहीं मिलता जितना कि ध्यान से मिलता है।"
वस्तुतः ध्यान शब्द इतना व्यापक है कि यह जीवन के हर कदम, हर प्रारूप में नजर आता है, एक ओर चलते वक्त, नहाते वक्त, पढ़ते वक्त, खेलते वक्त जैसी अनगिनत क्रियाओं में तो दूसरी ओर ध्यान स्वयं को आत्मन् को जानने से लेकर परमात्मा और ईश्वर की खोज तक ले जाता है। इस तरह ध्यान हमारे जीवन की अनिवार्यता ही नहीं बल्कि अपरिहार्यता है। आप जिस कार्य़ पर भी इसे लगाते हैं उसे और बेहतर तरीके से करने लगते हैं यह कमोबेश हम सबने महसूस किया है। ध्यान से जीवन की हर परिस्थिति में अभय, धीर और स्थिर रहने में मदद मिलती है। ध्यान हमारे किताबी ज्ञान को अनुभव में तब्दील करता है।......हमारी इन्द्रियाँ जो कुछ भी ‘यहाँ और अभी’ अनुभव कर पाती हैं, ध्यान हमें उससे कहीं आगे ले जाता है।
मैं इस लेख का समापन स्वामी विवेकानन्द के एक आलेख से लिये गये निम्न पैराग्राफ के साथ करना चाहता हूँ- ध्यान की शक्ति हमें सब कुछ प्राप्त करा देती है। यदि तुम प्रकृति के ऊपर अधिकार चाहते हो, तो तुम ध्यान द्वारा उसे प्राप्त कर सकते हो। ध्यान-शक्ति द्वारा ही आज तमाम वैज्ञानिक तथ्यों की खोज की जाती है। वे विषय का अध्ययन करते हैं और सब कुछ भूल जाते हैं, स्वयं अपनी सुध और प्रत्येक वस्तु को भूल जाते हैं। तब वह महान तथ्य प्रकाश की तरह कौंधता हुआ आता है। कुछ लोग सोचते हैं कि वह अन्तः स्फुरण है। जैसे कोई बहिःस्फुरण नहीं है, वैसे ही कोई अन्तःस्फुरण नहीं है और कभी भी कोई वस्तु मु्फ्त में नहीं मिली। महान सत्य सतह के ऊपर उठ जाते हैं और व्यक्त हो जाते हैं। इसलिए ध्यान का अभ्यास ज्ञान की महती वैज्ञानिक पद्धति है। ध्यान-शक्ति के बिना कोई ज्ञान नहीं होता। इस समय ध्यान द्वारा हम अंधविश्वास आदि रोगों से मुक्त हो सकते हैं, और किसी से नहीं।.....ध्यान से तुम्हारी चेतना विस्तृत होगी। जितनी बार तुम ध्यान करोगे उतना ही अधिक तुम्हारा विकास होगा।
-कैलाश वर्मा
9694082407