मेरे कविता-संग्रह ‘माटी हिन्दुस्तान की’ से ‘मजदूर दिवस’ पर मेहनतकश लोगों को समर्पित मेरी रचना
मेहनतकश मज़दूर
मैं खुद अपना नसीब हूँ
मैं मेहनतकश गरीब हूँ।
मैं नहीं जानता शोषण के षड़्यंत्र
मैं नहीं जानता कोई मन्त्र,
अपने कर्म पर पोषित हूँ
छल-छद्म से शोषित हूँ,
मुफ़लिसी में मैं जीता हूँ
मगर ना खून किसी का पीता हूँ।
ऐसा नहीं कि अमीरी मेरी चाह नहीं
मगर किसी को रौंद कर,
गुजरती मेरी राह नहीं।
कच्ची पगडंडियों से
मैं चलकर आता हूँ।
और पक्की सड़कें बनाता हूँ।
मेरी राहों में आती है
अनगिनत झाड़ियां,
मेरी ही बनायी हुई सड़कों पर
दौड़ती हैं आलीशान गाड़ियां।
रेल की लाइनें मैं ही बिछाता हूँ
ट्रक और बसें मैं ही दौड़ाता हूँ।
हवार्ड अड्डों पर मैंने ही
अपने पसीने की बूँदें गिरायी है,
तभी हवाई पट्टी बन पायी है।
मेरे ही हाथों से बने हैं कल-कारखाने
इनमें आज भी मैं ही करता हूँ काम
मगर धन्ना सेठों का होता है नाम।
नदियों को रोककर
बाँध मैंने ही बाँधे हैं,
औरों की अमीरी का बोझ
ढोते मेरे काँधे हैं।
ये जो सुन्दर हवेलियाँ
और आलीशान महल-किले हैं,
इन्हें बनाने के बदले
मुझे सिर्फ चने मिले हैं।
ये जो शानदार शोरूम
और मॉल-दुकान है,
इनके बनाने में
मेरी मेहनत का योगदान है।
मेरा घर भले ही कच्चा है
मगर किरदार मेरा सच्चा है,
मैं खुद कच्चे घर में रहता हूँ
मगर औरों को
पक्के मकान बनाकर देता हूँ।
जितने भी सुन्दर मकान है
या तामीरात आलीशान है,
वो अमीरी की पहचान है
मगर ये सब मेरे किये निर्माण है।
विलासिता से भरी हुई
अमीरों की जिन्दगी है,
मज़दूर का शोषण करना भी
एक तरह की दरिन्दगी है।
सब लोग फैलाते गन्दगी है
मगर सफाई करना भी मेरी बन्दगी है।
जिसे करने में अमीर को आती शर्म है
वो आज भी मेरे पेट पालने का कर्म है।
मैं निर्धन हूँ उनके कारण
नीयत जिनकी खोटी है,
आसानी से आज भी
मुझे मिलती नहीं रोटी है।
मैं ही मवेशी चराता हूँ
उनका गोबर तक उठाता हूँ,
अमीरों को दूध-दही खिलाता हूँ
फिर भी उनकी नज़रों में
गंवार कहलाता हूँ।
खेतों और खलिहानों में
मैं ही पसीना बहाता हूँ,
फल-सब्जी और अनाज
सब तक मैं पहुँचाता हूँ।
मैंने ही बनाये मन्दिर मस्जिद
मैंने ही बनाये चारों धाम,
जहाँ ईश्वर और अल्लाह को
सारी दुनिया करती है प्रणाम।
सदिया बीत गयी मगर
मुझ मज़दूर का नहीं उद्धार हुआ,
मेरे कष्ट मिटाने में
कामयाब नहीं मन्त्रोचार हुआ।
समाज की ये कैसी व्यवस्था है
कि मेहनतकश इन्सानों की,
आज भी हालत खस्ता है।
लाचारी से भरी उनकी अवस्था है,
गरीब की गर्दन मरोड़कर
अमीरी का निकलता रस्ता है।
मैं मेहनत करता भरपूर हूँ
फिर भी मुफ़लिसी से मजबूर हूँ,
रोटी कपड़ा मकान
आज भी जरूरत है मेरी
मैं ऐशो आराम से दूर हूँ
मैं मेहनतकश मजदूर हूँ।
✍🏻कवि अनजाना