यह कहानी है दलित समाज की प्रथम पीढ़ी के उन सभी पढ़े- लिखे व्यक्तियों की, जो या तो सेवानिवृत हो चुके हैं या होने के कगार पर हैं। क्या हम ही तो रामेश्वर नहीं हैं या आज भी हमारे आसपास ऐसे कितने रामेश्वर मौजूद हैं ? क्या हमारा ऐसे रामेश्वर के प्रति कोई दायित्व बनता है ?
’’यह तुमने अच्छा नहीं किया, रामेश्वर। एक ही गाँव का होते हुए भी तुमने मुझसे किस जन्म के बैर का बदला लिया है ?’’ अपना सामान-सट्टा समेट ट्रक में चढ़ाते हुए गौरीशंकर शर्मा ने बैंक मैनेजर रामेश्वार से कहा।
’’भाई गौरीशंकर, इसमें मेरा क्या दोष है ? मैंने तो तुम्हे जितनी हो सकी, उतनी मदद की थी। समय-समय पर तुम्हे चेताया भी था, किस्तें तो तुम्हें ही चुकानी थी, वो तुमने चुकाई नहीं। मैं बैंक का मुलाजिम ही तो हूँ, मालिक तो नहीं। ऊपर के आदेष का पालन तो मुझे भी करना ही पड़ता है।’’ उन्होनें अपनी विवशता जताई।
’’सब भाग्य का खेल है।’’ कहकर गौरीशंकर ने अपने हाथ ऊपर करके जोड़ दिये, मानों आसमान पर बैठा भगवान साक्षात् उसका प्रणाम स्वीकार कर रहा हो। उसका मुँह लाचारी, दुख और रंज से लाल-भभूका हो गया।
पण्डित गौरीशंकर शर्मा शहर में वैद्यकी किया करता था। मोटी थुलथुल काया, भारी चेहरा मोहरा, सिर पर पगड़ी, पैरों में जोधपुरी जूतियां, बदन पर धोती-कुर्ता, आँखों पर चश्मा। कभी कानों में मुर्कियां झूला करती थीं, परन्तु समय का खेल, अब केवल छेद ही उनके अतीत की कहानी सुनाते नजर आते थे, और आज यह मकान जो उसने बड़े जतन और मेहनत से बनाया था, वह भी आज बैंक ने कुर्क करके अपने कब्जे में ले लिया। यह सब उसके अनुसार भाग्य के खेल के अलावा और क्या हो सकता था ?
बैंक की जीप में बैठे मैनेजर रामेश्वरलाल बैरवा यह सब उदास भाव से देख रहे थे। गौरीशंकर शर्मा आखिर तो उनका बालसखा ही था। आसपास दो गाड़ियां पुलिस की खड़ी थीं। पुलिसकर्मी इधर-उधर बातें करते हुए घूम रहे थे, पर मुस्तैद थे।
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क्या से क्या हो गया, यह किसी को भी उम्मीद नहीं थी।
उनके मस्तिष्क में पुरानी घटनायें चलचित्र की भाँति घूम गई।
यह कोई चालीसेक बरस पुरानी बात है। तब वे आठ-दस साल के थे।
अपनी बगल में टाट का टुकड़ा दबाये, हाथ में घर में सिले हुए थैले में अपनी स्लेट-बर्ता और छोटी-छोटी दो किताबें लिये वे गाँव के साथियों के साथ स्कूल आते जाते थे। यह उनका रोज का नियम था।
लड़कों के दो अलग-अलग दल।
दलों के सदस्य एक-दूसरे से बात जरूर कर लेते थे, पर छूने या कापी किताबें लेने की बिलकुल मनाही थी। क्यों ? इस सवाल का जवाब उन मासूमों के पास नहीं था। बस उनके घर वालों ने जैसा कह रखा था, वे उसी को मानते थे।
रामेश्वर लाल और पण्डित गौरीशंकर शर्मा एक ही कक्षा में पढ़ते थे।
रामेश्वर लाल पढ़ने-लिखने में तेज़, लेकिन सुविधाओं से कोसों दूर। खाने को दो वक्त की रोटी मिल जाये, वही छप्पन भोग। चार हाथ कमाने वाले तो पाँच मुँह खाने वाले। गोविंदा और गोमती दिन भर खेत में बैल के साथ बैल और मिट्टी के साथ मिट्टी हुए हाड़-तोड़ मेहनत करते। वे महज हाळी (बंधुआ मजदूर) ही तो थे एक किसान के। रहना, खाना, कपड़ा मुफ़्त और डेढ़ सौ रुपये महीने के अलग से। किसी तरह गुजारा चल जाता था।
स्कूल से थोड़ी दूर ही गाँव का मंदिर था। वहीं गौरीशंकर का घर था। उमाशंकर मंदिर में पूजा करने के बाद अपने बाहर के कमरे में स्थित दवाखाने में बैठते। काफी नामी वैद्य थे। खूब भस्में और वटिकायें बनाया करते और लोग खुशी-खुशी लेकर जाते। गौरी का स्कूल के बाद का समय दुकान पर ही दवाईयां बनाने, रखने और वैद्यकी सीखने में बीतता। वैद्यजी बडे़ ठसके से कहते,’’ क्या कमी है इसे ? अरे बामन का बेटा है बामन का। वैद्यकी सीख ही रहा है, फिर गाँव का मंदिर है ही। फिर यहाँ आठ दिन नौ त्योहार हैं ही। रोज ही तीज, चौथ, पांच, छट्ट, नौमीं, दस्स, ग्यारस आती ही रहती हैं।’’
उनकी इन्हीं बातों से पंडिताइन को बड़ा दुख होता था। वह शहर में पाँच जमात तक पढ़ी-लिखी थी। घर वालों के दबाव में आकर जल्दी शादी करनी पड़ी। उसने शहर के रंग-ढंग देखे थे। कैसे पढ़े-लिखे लोग आनन-फानन में बाबू या अफसर बन जाते हैं और उनकी क्या शान होती है, क्या इज्ज़त होती है ? शहर में जात-पाँत को इतना कोई नहीं पूछता है। सब कोई अपने काम से काम रखते हैं। उसे बड़ा बुरा लगा था जब पाँचवीं पास करते ही उसकी सगाई गाँव के गाँवड़ी वैद्य के लड़के से कर दी गई थी। वह भी पढाई-लिखाई छोड़ पुस्तैनी वैद्यकी सीख रहा था। खूब रोई थी वह, पर घर वालों के सामने उसकी एक नहीं चली थी। आज गीता सोचती, अपने गौरी को खूब पढ़ायेगी, वह अफसर बनेगा, उसे गाड़ी में घुमायेगा, पर उसके अपने बापू के जैसे पुराने विचारों के उमाशंकर उसकी कब सुनते थे ? वह कितना लड़ती, ’’इसे स्कूल के बाद गृह कार्य करने दिया करो। देखो, मास्टर जी ने पर्ची पर क्या लिखकर भेजा है ?’’ वह अक्सर गौरी की किताब में रखी कागज की पर्ची निकाल कर उनको देती।
तब स्कूलों में कहाँ डायरियां चलती थीं ? यदि मास्टरजी को अभिभावकों से मिलना होता या अभिभावकों को कोई बात कहनी होती तो इसी तरह पर्चियों से संदेशों का आदान-प्रदान करते थे या फिर आपस में मिल लेते थे।
’’अरे भागवान! क्या सत्यनारायणजी का पतड़ा लेकर बैठ जाती हो रोज-रोज। इसे कमी किस बात की है ? पढ़ लिया तो ठीक, वर्ना वैद्यकी की दुकान और मंदिर तो कहीं नहीं गये। इससे कौनसी नौकरी करवानी है जो इतनी हाय-हाय करें ?’’ उमाशंकर अपनी ही धुन में बोले जाते।
वह कुढ़ कर रह जाती। पुस्तैनी वैद्यकी उसके बेटे के विकास का रोड़ा बन गई थी।
छरहरा बदन, गौरा रंग, तोते की सी सुंती नाक, चलती तो ऐसा लगता जैसे मोरनी चल रही हो, बोलती तो ऐसा लगता जैसे फूल झर रहे हों। इस गंवई माहौल में भी वह घाघरा-लूगड़ी न पहन कर साड़ी पेटीकोट ही पहनती। पर न पीहर में और न ही ससुराल में, कहीं भी उसकी कद्र नहीं हुई।
माता निर्माता है पर पिता भी तो कुछ कम नहीं है।
हुआ वही, जो उमाशंकर ने चाहा।
उसकी शह पाकर गौरी का ध्यान पढ़ाई-लिखाई पर से पूरी तरह हट गया और सातवीं में दो बार फेल होने के बाद गौरीशंकर ने पुस्तैनी दवाखाना संभाला।
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’’दादा, मैं पास हो गया। अब मुझे पढ़ने के लिये शहर जाना पड़ेगा।’’ रामेश्वर ने मिट्टी के ढेर पर बैठ बीड़ी पीते अपने पिता गोविंदराम से कहा।
’’बेटा, मेरी इतनी सरधा कहाँ जो तुझे शहर पढ़ने भेजूं ? घर की हालत तुझसे छिपी नहीं है। डेढ़ सौ रुपये में क्या होता है ?’’ कहते-कहते उसकी आँखें भर आईं।
’’ दादा, मैंनें पूरे स्कूल में सबसे ज्यादा नम्बर पाये हैं, यह देख।’’ कहता हुआ रामेश्वर घर में घुसा और झटपट अपनी मार्कशीट उसके सामने लाकर खोल दी।
काश, वह अपने बेटे की तरक्की को समझ पाता ! उसे अपने अनपढ होने का सबसे अधिक दुःख आज हुआ। पर वह दो बात जरूर जानता था कि जो पास हो जाता है वह आगे पढ़ने जाता है और जो फेल हो जाता है उसे उसी कक्षा में दुबारा पढ़ना पड़ता है। यह सब बातें उसने प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र में साइन करना सीखते समय सीखी थी।
रूंआसा रामेश्वर चला गया।
क्या रामेश्वर भी मेरी ही तरह मिट्टी के साथ मिट्टी होता रहेगा ???????
उसका मन चीत्कार कर उठा’’ नहीं, नहीं, नहीं।’
फिर ??????
बीड़ी का डूंड फेंक वह उठा। उसने ठान लिया कि जो दुख उसने झेले हैं और झेल रहा है, वे दुख अपने बेटे को नहीं झेलने देगा, उसे चाहे जो करना पड़े, करेगा।
वह था भी जीवट का धनी। लम्बा-चौड़ा शरीर, सिर पर अंगोछे की साफी, खिचड़ी बाल, बड़ी-बड़ी घनी मूंछे, ऋषियों जैसा चौड़ा ललाट, दृढ और मजबूत हाथ पैर, जो उसके मेहनती होने का प्रमाण दे रहे थे। तंबई रंग जो मेहनत से धीरे-धीरे काला पड़ता जा रहा था। शरीर पर बण्डी और घुटनों तक धोती, पैरों में चमरौंधी जूतियां या टायर की चप्पलें। कुल मिला कर यही व्यक्तित्व था गोविंद का। वह अनपढ़ जरूर था, पर था बड़ा ही दृढ़ निश्चयी। एक बार जो ठान ले उसे पूरा करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देता था। उसने पढे़-लिखे लोगों के ठाठ-बाट और शान-शौकत देखे थे। ’रामेश्वर को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाना है’ अब उसका एकमात्र ध्येय यही रह गया था।
जहाँ चाह वहीं राह।
वह झट उठा और मिट्टी के कोठे से अनाज में दबी अपनी शादी की काँसे की थाली निकाली। चमचमाती थाली, जैसी वह आज के पन्द्रह-सोलह साल पहले थी। वैसी का वैसी। इसमें पहली और आखरी बार उसने गोमती के साथ पण्डित के हाथ का बनाया घी, दही और शहद का बना परसाद (मधुपर्क) खाया था। उस दिन के बाद यह काम ही नहीं आई। यूं की यूं रखी हुई है। अनछुई।
थाली को झाड़ पोंछ, थैले में डाल वह सीधा वैद्य उमाशंकर के पास गया। वे मरीजों को देखने के बाद फुरसत में थे।
’’अरे आ गोविंद, आज इधर कहाँ ? सब ठीक तो है ?’’एक ही साँस में दो सवाल!
’’ठीक हूँ पंडीजी महाराज। एक परेशानी आ गई है, सो चला आया।’’ वह सकुचाते हुए बोला साथ ही अंगोछे से चेहरे पर चूते हुए पसीने को पौंछा।
’’ बोलो बोलो।’’ अपना चश्मा ठीक करते हुए वे बोले,’’ सिर में दर्द है या पैर में, पेट में दर्द है या कब्जी है। कब्जी ही सब रोगों की जड़ होती है और........
’’महाराज, मेरे कहीं दर्द नहीं है।’’ वह बोला,’’आपके टाबर रामेश्वर ने आठवीं जमात पास कर ली है, अब उसे शहर में पढ़ने भेजना है। पैसे-कौड़ी की थोड़ी जरुरत है, सो यह थाली गिरवी रखने आया हूँ।’’ वह सकुचाते हुए कातरता से बोला। वह मजबूर था पर फिर भी एक दृढ़ता उसके चेहरे पर थी।
पंडितजी चौंके, ’गरीब गोमदा (गोविंद) के लड़के ने आठवीं पास कर ली!! ये गरीब -गुरबे भी कहाँ से दिमाग पा जाते हैं ? उसका ’सपूत’ तो सातवीं में ही दो बार फेल हो गया।’ एक ईर्ष्या की दुर्भावना ने उनके मन में जन्म लिया।
’’अरे गोमदा, कहाँ रामेस्या को शहर भेज रहा है ? बिगड़ कर धूल हो जायेगा। मुझे देख, फेल होते ही छोरे को दुकान पर बैठा दिया। तू भी लगा ले उसे अपने साथ। तुझे काम में साथी मिल जायेगा और थोड़ी आमदनी भी बढ़ जायेगी। गाँव की अच्छी हवा पानी से वह जल्दी ही पट्ठा हो जायेगा।’’ अपने मनोभावों को दबाकर वे कुटिलता से बोले।
’’नहीं पंडीजी, नहीं।’’ तड़प उठा था वह, ’’चाहे जो हो जाये, मैं अपने रामेश्वर को अपनी तरह मिट्टी में मिट्टी नहीं होने दूंगा। मैं उसे बैल नहीं, आदमी बनाऊंगा।’’
उमाशंकर को लगा जैसे उसके सामने साक्षात् भीष्म पितामह अपनी विशाल भुजायें फैलाकर प्रतिज्ञा कर रहे हों,’’ चराचर के समस्त प्राणी, धरती, आकाश सुनें,.................।’
खिसियाकर वे बोले,’’ ला, क्या लाया है, दिखा।’’
गोविंद ने चमचमाती काँसे की थाली उनके सामने रख दी।
’’मैं इसके ज्यादा से ज्यादा दस-बारह रुपये दे सकता हूँ।’’ वे थाली को हाथों में लेकर देखते-परखते हुए टालने के मूड में बोले।
’’बस, दस-बारह रुपये ही !’’ उसका मुँह खुला का खुला रह गया।
निराश मन से थाली को कपड़े के थैले में डाल कर वह पाँचू महाजन की दुकान की ओर चला। रास्ते में उसके मन में आया कि पाँच-दस रुपये की दान-दक्षिणा तो वह हर साल इनके मंदिर में कर देता है। इनसे मेरे बेटे की भी नहीं सोची गई। उसने मन ही मन प्रण कर लिया कि अब वह मंदिर में अपना पैसा बरबाद नहीं करेगा। आज न मंदिर काम आ रहा है, न भगवान और न ही उसका पुजारी ।
दुकान पर पाँचू महाजन तो नहीं था पर उसका बेटा जरूर था। पाँचू उस समय बाणज करने गया था।
’’यह थाली गिरवी रखनी है।’’वह सीधे-सपाट लहज़े में बोला।
’’बैठो काका, क्या बात है?’’ उसने पूछा।
गोविंद ने सारी बात बताई।
’’ इसके गिरवी के बदले में बीस रुपये दे सकता हूँ।’’ वह देख-परख चुकने के बाद बोला।
’’दे दो।’’ वह बोला।
कागज-पत्तर सही करने के बाद वह पास की ही दुकानों से जरूरी सामान, कपड़े-लत्ते आदि खरीद कर घर लौटा।
अगले दिन साफ धुले हुए कपड़े पहने रामेश्वर और गोविंद शहर जाने वाली पहली गाड़ी में बैठे थे।
गाड़ी से ही रामेश्वर ने एक हायर सैकेण्डरी स्कूल का बोर्ड देखा।
’’दादा, गाड़ी रुकवाओ। स्कूल तो पीछे रह गया। वो बोर्ड देखो।’’ वह बोला।
गोविंद ने तुरन्त गाड़ी रुकवाई।
वे झटपट बस से उतर कर स्कूल की और लपके।
’’कहाँ जा रहे हो, रुको।’’ स्कूल का चपरासी उनको रोकते हुए बोला।
’’साब। यह मेरा बेटा है, इसे भर्ती कराना है स्कूल में।’’ अंगोछे से पसीना पौंछते हुए गोविंद बोला।
’’उस कमरे में जाओ।’’ प्रधानाचार्य कक्ष की ओर अँगुली से इशारा करते हुए वह बोला।
ज्यौ-ज्यौं प्रधानाचार्य जी ने उसकी अंक तालिकायें देखी, आश्चर्य से उनकी आँखे फटी की फटी रह गई। शुरु से अब तक प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान!! हर विषय में डिक्टिंशन मार्क्स!! वे खुद सीट से उठ गये।
एक बारगी तो दोनों बाप-बेटे का दिल बैठ गया। ये खड़े क्यों हो गये! क्या स्कूल का टाईम खत्म हो गया ? क्या उनको कल आना पड़ेगा ?
लेकिन जब नजदीक आकर उन्होनें रामेश्वर के सिर पर हाथ फेरा और उसे गले लगाया, तब उनका भय जाता रहा।
’’शाबास बेटा। इसी तरह मन लगा कर यहाँ भी पढ़ना।’’ कहते-कहते उनका गला भर आया। उनका अतीत उनके सामने घूम गया जैसे रामेश्वर के रूप में उनका भूतकाल ही खड़ा हो। रामेश्वर ने झट उनके पैर छू लिये। दोनों मन ही मन एक दूसरे से गुरू-शिष्य के पवित्र रिश्तें की डोर से बँध गये थे।
अच्छी कद-काठी, सफेद झक्क धोती-कुर्ता, आँखों पर नम्बर का चश्मा, रोबीला व्यक्तित्व, लेकिन दिल के दयालु, जैसे नारियल के कठोर खोल में मीठी और कोमल गिरि छिपी हो। कुल मिला कर यही व्यक्तित्व था श्री वर्माजी का जो प्रधानाचार्य थे।
’’यह एक दिन आपका नाम जरूर रोशन करेगा, गोविंदजी। इसकी पढ़ाई मत छुड़ाना।’’ वे बोले।
जैसे कानों में मिश्री घुल गई हो। गोविंद बस हाथ जोड़े कृतज्ञ भाव से खड़ा था।
’’साब, मैं गरीब आदमी हूँ। अपनी सरधा के अनुसार इसे जरूर पढ़ांऊगा। पर अब यह आपकी शरण में है।’’ अपने-आप हाथ जुड़ गये थे उसके। भगवान समझ कर बेटा उनके हवाले करते अपूर्व आनंद आ की अनुभूति हो रही थी।
’’ जरूर-जरूर। हम इसका पूरा ध्यान रखेंगे। यह फार्म भर दो, यहाँ दसखत कर दो, बस हो गया काम।’’ एक लकीर खींचते हुए वे बोले।
रामेश्वर ने फार्म भरा। जो नहीं आया, वह वर्माजी से पूछ लिया। गोविंद ने हस्ताक्षर की जगह अपना नाम लिखा, जो प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में सीखा था।
’’दो दिन बाद पढ़ाई-लिखाई शुरू हो जायेगी। तब तक आप कपड़े-लत्ते और अन्य जरूरी सामान खरीद लो और इसे रहने का कमरा आदि दिलवा दो।’’वे बोले।
स्कूल के बाहर निकले तो दोनो के पेट में चूहे दौड़ लगा रहे थे। सबसे पहले उन्होनें पास ही लगे बरगद के नीचे चबूतरे पर बैठकर रोटियों की पोटली खोली और पेट पूजा की। उन्हें अब किसी बात की चिन्ता नहीं थी। रामेश्वर का दाखिला अच्छे बड़े स्कूल में हो गया और मास्टरजी भी इतने भले मिले कि पूछो मत। सोने पर सुहागा! घर का खाना, मधुर सुवास लिये। गाँव की गंध लिये। प्रेम में पगा खाना दोनो ने रंजकर खाया और तृप्त होकर उठे।
जरूरी सामान, मिट्टी का तेल, स्टोव, खाना बनाने के बर्तन, कोपी-किताबें आदि खरीदते-खरीदते दो ढ़ाई बज गये।
चपरासी भला आदमी था। उसने बोरे में भरा सारा सामान स्कूल के ही एक कोने में रखने की इजाजत दे दी ताकि कमरा ढूंढते वक्त इसे अनावश्यक रूप से ढ़ोना नहीं पड़े।
गोविंद तो समझता था कि यह बीमारी मात्र गाँवों में ही है। पर दो चार-घर घूमते ही उसका भ्रम जाता रहा। केवल रूप बदला था। ’’आखिर हम क्यों ऐसे समझे जाते है ? इसलिये कि ये गले में जन्देउ (जनेउ) नाम का एक धागा डाल लेते हैं। पर वह धागा भी तो हमारे जैसे ही कोली भाई बनाते हैं। यहाँ तो जितने हैं, सब एक से बढ़कर एक ऊँचे हैं, नीचा कोई नहीं है। चोरी ये करें, मिलावट ये करें, झूंठे मुकदमें ये लड़ें, जुंआ ये खेलें, फिर भी ऊँचे ? क्या दिर भर के पाप के बदले में शाम को थोड़ी देर सिर नवा देने से भगवान मान जाता है ! क्या इसलिये ऊँचे है या फिर इसलिये कि ये बामनी ठकुराइन की कोख से जन्म लेते है ? पर इसमें इनका या हमारा बस चलता है क्या ? फिर तो भगवान ही हमारे साथ अन्याय करता है जो हमें किसी छोटी जाति में पैदा करता है। क्या यही भगवान का न्याय है ?’’ यही विचार उसके मन में उथल-पुथल मचाये हुए थे। जहाँ भी पूछते, वहीं जात आड़े आ जाती और उन्हें कोई कमरा नहीं देता।
हैरान-परेशान कमरा तलाश करते-करते वे स्कूल से कोई दो-ढाई फर्लांग दूर पहाड़ी की तलहटी तक आ गये। वहाँ एक मकान का दरवाजा खटखटाया।
’’कमरा मिलेगा ?’’ दोनों एक साथ बोले।
एक साठ-सत्तर साल की बुढ़िया ने दरवाजा खोला।
सन से सफेद बाल। कमर कमान। धीरे-धीरे उसने कुण्डी खोली,’’क्या है भाई, क्या चाहिये ?’’
’’ किराये पर कमरा चाहिये माँजी। मेरा एडमिशन पास के ही बड़े स्कूल में हुआ है। गाँव दूर है, सो रहने के लिये कमरा चाहिये।’’ रामेश्वर एक ही सांस में सब बोल गया।
’’कितने जने हो ?‘‘ वह उन दोनो को घूरते हुए बोली।
’’अकेला हूँ माँजी। ’’ वह बोला।
’’तो ये कौन है?’’
’’ ये तो मेरे दादा हैं। मुझे छोड़ने आये हैं। कल वापस चले जायेंगे।’’
’’किनके हो ?’’ वो बोली।
डंक-सा चुभता यह प्रश्न हर जगह पूछा गया और इसका उत्तर जो था वही उनको कमरा दिलाने में बाधक बना हुआ था। एक बार तो सोचा कि गलत बता दें या वापस चलें, पर ये दोनों ही बातें उनके संस्कारों के खिलाफ थी। अतः थोड़ा गरम होते हुए गोविंद बोले,’’बैरवा हैं। क्या बैरवाओं को कमरा नहीं मिलेगा ?’’
’’नाराज मत होओ बेटा। सब एक ही भगवान के बेटे हैं। मैंने तो यूं ही पूछ लिया था।’’ वो बोली, ’’इस कमरे में मेरा सामान पड़ा है। एक में बेटे-बहू का सामान है। यह छोटा कमरा खाली है, यह इसके काम आ जायेगा, मेरा भी मन लग जायेगा। बेटा-बहू जयपुर में रहते हैं, यहाँ मैं अकेली ही रहती हूँ।’’
उन दोनों के साँस में साँस आई,’कहीं तो ठिकाना मिला। अब तो बस किराया और तय हो जाये तो बात बन जाये।
’’किराया क्या होगा?’’ धड़कते दिल से गोविंद बोले।
’’ दे देना बेटा जो भी दे। अब गये साल एक लड़का रहता था, वो पाँच रूपये देता था। थोड़ी सी महंगाई बढ़ गई है, सो तू छः रूपये दे देना।’’ वह बोलीं।
’’माँजी, गरीब आदमी हूँ । खेत में हाळी ही तो हूँ। डेढ़ सौ रूपये तो कुल पगार है। घर-परिवार है। पाँच ही रहने देते तो अच्छा था।’’ उनकी आवाज मजबूरी से भर्रा गई। उसने हाथ जोड़ दिये।
’’कोई बात नहीं बेटा। पाँच ही सही। मेरा भी सहारा हो जायेगा।’’ मैं कोलियों के हूँ।’’ वो बोलीं।
समान-सट्टा स्कूल से लाकर कमरे को झाड़-पौंछ कर जमा दिया गया। रात रुक कर गोविंद पहली गाड़ी से ही गाँव लौट गये। मन भारी था, पर इस बात की खुषी थी कि उसका बेटा आदमी बन जायेगा। आँखों का तारा पहली बार आँखों से दूर हुआ था, अतः दिल भर-भर आता था।
रामेश्वर को अपनी जिम्मेदारी का अहसास था। उसने अपने सरल व्यवहार और योग्यता से सबका दिल जीत लिया था। वर्माजी को तो उसे दिन में कम से कम एक बार देखे बिना चैन नहीं मिलता था। वे वैसे भी स्कूल के बाद समय निकाल कर कई बार किराये के कमरों में रहने वाले बच्चों के कमरों पर चले जाया करते थे। उन्होनें उसे बेटे-सा प्यार दिया। वहीं रामेश्वर भी उनको हार्दिक रुप से सम्मान देता था। मकान-मालकिन माँजी को तो जैसे जीवनदान मिल गया था। वह उनका छोटा-मोटा सौदा-सुलफ ले आता और मकान की देखभाल भी ठीक ढंग से हो जाती थी।
दिन इसी तरह कटते जा रहे थे।
मजबूरी इंसान को सब सिखा देती है। मौके सबके सामने आते हैं। फर्क इतना ही रहता है कि कुछ लोग उनको चुनौती मानकर समस्या का समाधान ढूंढते हैं और जीवन में कठिनाईयों को दूर कर लेते हैं, जबकि अन्य कठिनाईयों के आगे हार मान लेते हैं।
एक बार घर से पैसे समय पर नहीं आये। गाँठ के पैसे खत्म हो गये चुके थे। रामेश्वर सोच में पड़ गया कि आखिर क्या करे, क्या न करे ! माँजी ने एक-दो बार इशारे से पैसों के लिये कहा भी, पर वह चुप कर गया।
एक दिन दोपहर में खाना खाने के बाद किताब लेकर इसी उधेड़बुन में वह खिडकी के पास बैठा था। खिड़की के दूसरी तरफ पहाड़ था जिस पर जंगल पसरा पड़ा था। उसका मन इसी समस्या में लगा हुआ था। अचानक उसे एक लकड़हारा लकड़ियां लेकर आता दिखाई दिया। उसे पता था कि उसके स्कूल के पीछे लकड़ियों के गट्ठर बिका करते हैं। समाधान पाकर वह खुशी से उछल पड़ा।
अब उसकी दिनचर्या ही बदल गयी। वह सुबह जल्दी उठता, अपना काम निपटा कर घण्टे भर पढ़ता। फिर खाना बनाकर दो चपाती खा लेता और दो चपाती कपड़े में लपेटकर टिफिन में रख देता। फिर स्कूल जाता, वहाँ मन लगा कर पढ़ता। वापस आकर खाना खाता, स्कूल का काम निपटा कर घण्टा-डेढ़ घण्टा कोई बात नहीं। शाम को लकड़ियां काटता और धुंधलाके में स्कूल के पीछे उनको पचास-साठ पैसे में बेच देता। वापस आकर खाना बनाता, खाता और दस बजे तक पढाई करके सो जाता।
दस-पन्द्रह दिन में ही उसने किराया चुका दिया। कुछ पैसे भी बचा लिये। पैसों में बड़ा बल होता है। पैसा गूंगे की ज़बान तो निर्बल की ताकत होता है। जहाँ शिक्षा शेरनी का दूध है वहीं पैसा साक्षात् शेर है। धीरे-धीरे इस पैसे से वह अपनी आवश्यकायें पूरी करने लगा।
एक दिन वर्माजी उससे नहीं मिल पाये। छात्रवृत्ति के फार्म भरे जा रहे थे, सो खाना खाने के बाद वे शाम को घूमते-घूमते रामेश्वर के घर की ओर निकल आये। मकान-मालकिन से पूछा तो बोलीं, ’’पता नहीं। अभी तो यहीं था। कुल्हाड़ी भी यहीं पड़ी है। शायद लकड़ियां बेचने गया हो।’’
’’कुल्हाड़ी ? लकड़ियां ??’’ वे आश्चर्य से बोले।
’’ हाँ, आजकल वह घण्टा-डेढ़ घण्टा पहाड़ी पर चला जाता है और लकड़ियां काट कर मण्ड़ी में बेच आता है।’’ वे बोलीं।
वर्माजी वापस लौट पडे़। यह लड़का इतना मेहनती और समझदार भी होगा, यह उन्होनें सोचा तक नहीं था। अचानक सामने से रामेश्वर आता दिखा। उन्होने आवाज दी,’’बेटा रामेश्वर, कहाँ से आ रहे हो?’’
रामेश्वर अचानक आई इस अप्रत्याशित आवाज से हड़बड़ा गया। देखा-सामने स्कूल के बड़े मास्टर साहब खड़े हैं। वह कुछ भी बोल नहीं पाया। नजरें झुका कर खड़ा हो गया।
’’बेटा, आज तुमसे मिल नहीं पाया था, और तुम्हारा मैरिट छात्रवृत्ति का फार्म भी भरवाना था। कल आखरी तारीख है, सो चला आया।’’ वे बोले।
रामेश्वर चुपचाप खड़ा रहा।
’’कहाँ गये थे?’’ उसी स्वर में उन्होनें पूछा।
रामेश्वर क्या कहे, क्या न कहे। वह बेबस हो गया। आँखे छलछला आई। बेबसी, लाचारी में आँसू आदमी का बहुत बड़ा सहारा होते हैं। जो बात आदमी ज़बान से नहीं कह पाता, कई बार आँसू उसे बहुत ही बखूबी से कह देते हैं।
वर्माजी ने उसके सिर पर हाथ फेरा। पास ही घर की एक चबूतरी पर वर्माजी बैठ गये। रामेश्वर को प्यार से पुचकार कर बैठा लिया।
’’कहो बेटा, क्या बात है ?’’ वे बोले।
’’गुरूजी, घर से पैसे नहीं आये थे। घर की हालत भी ऐसी नहीं है कि मैं दादा से कहूं। सो स्कूल से आने के बाद मैं पहाड़ी पर घण्टे भर विलायती बबूल की जलावन काट कर मण्डी में बेच आता हूँ।’’ नज़रें झुकाये वह बोला।
पढ़ाई के साथ-साथ इतनी समझदारी! यह अपनी पढ़ाई के लिये कितनी मेहनत कर रहा है ! वर्माजी की आँखे भर आई। उन्हें अपना बचपन याद आ गया। उनकी अपनी कहानी भी रामेश्वर से ज्यादा अलग न थी।
उन्होनें रामेश्वर के सिर पर हाथ रख सौ-सौ आशीष दिये,’’सदा सुखी रहो बेटा। पढ़-लिख कर बहुत बड़े आदमी बनों।’’ अपनी संवेदना को वाणी पर हावी होने से रोकने में उनको बहुत कोशिश करनी पड़ रही थी।
’’...................’’
’’बेटा, मैं कुछ मदद कर दिया करूंगा। यही समय पढ़ने में लगाओ।’’ वे बोले।
’’नहीं गुरूजी, इस समय तो वैसे भी सब खेलते हैं। मैं खेलने के बजाय लकड़ियां काटने चला जाता हूँ। ’’ उसने हाथ जोड़ दिये थे।
’सोना तपकर ही कुन्दन बनता है।’ सोचते हुए वर्माजी वापस आ गये।
पूरे दो साल यही दिनचर्या रही रामेश्वर की। छुट्टियों में जब कभी गाँव जाता, तो वहाँ भी इस बात का कभी जिक्र नहीं करता। गोविंद कभी शहर आता तो नौ-दस बजे तक आ जाता। शाम को आने वाली कोई गाड़ी ही नहीं थी। उस दिन वह लकड़ी काटने नहीं जाता। माँजी को उसने कह रखा था कि दादा को मत बताना नहीं तो उन्हें दुख होगा।
नवीं और दसवीं की परीक्षायें उसने प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। समाज कल्याण विभाग की नियमित छात्रवृत्ति उसे मिलती थी। इससे उसे काफी सहारा मिलता था।
ग्यारहवीं में पढ़ते-पढ़ते ही उसे बैंक में बाबू की भर्ती का फार्म भरने का मौका मिला। अर्द्ध वार्षिक परीक्षा के बाद शहर में ही लगभग डेढ़ महीनें उसने जमकर तैयारी की और महीने भर बाद ही उसे अपनी मेहनत का नतीजा मिल गया था। वह बैंक में बाबू चुन लिया गया था।
सर्दी की छुट्टियों में वह घर गया था। अबकी बार उसके चेहरे पर अलग ही चमक थी। वह ग्यारहवीं में पढ़ रहा था साथ ही बैंक में बाबू के लिये चुन लिया गया था। यह खबर उसने अब तक घर में नहीं बताई थी।
अच्छे पेण्ट-शर्ट पहने रेग्जीन के थैले में अपना सामान लिये जब वह गाँव के रास्ते वाली पगडण्डी के पास उतरा तो जल्दी से किसी ने पहचाना तक नहीं। वह सीधा घर गया।
कच्चा घर। घर के नाम पर खेत के एक कोने पर मिट्टी की चारदीवारी बना कर उस पर छान तानी हुई थी। उसी में दो कमरे और एक रसोई बनी हुई थी। काँटेदार बाड़ लगा कर आड़ की गई थी। पास ही एक टपरी गाय बाँधने के लिये थी। सरकण्डे का घर ’टोप’ थोड़ा दूर था जिसमें गायों के लिये चारा-खाखला भरते थे। यहीं उसके बचपन की खट्टी-मीठी यादें बसी हुई थी। ढाई साल पहले घर छोड़ते समय वह कितना रोया था ? आज उसके आँसू रंग लाये हैं और वह काम का आदमी बन गया।
एक बारगी तो गोविंद और तीजा उसे पहचान ही नहीं पाये। फिर जब उसने झुक कर उनके पैर छुए तब, उनको पता चला कि यह अपने कलेजे का टुकड़ा है।
’’ कितना बदल गया है रे तू ?’’ तीजा ने उसको उठा कर गले लगाते हुए कहा।
’’ कहाँ माँ, मैं रामेश्वर ही तो हूँ।’’ वह आत्मीयता से बोला’’ कपड़े ही तो बदले हैं।’’
उसने छोटे भाई- बहिन को शहर से लाये उपहार दिये।
’’ इतने पैसे कहाँ से आये, बेटा ?कहीं से उधारी तो नहीं की है!’’ गोविंद ने पूछा।
’’सब आपके ही भेजे पैसे हैं, दादा। वह बोला। ’’ थोड़ी छात्रवृत्ति मिली है और......’’ वह मुँह की बात मुँह में ही दबा गया। माँ, दादा को जानकर दुख होगा कि मैंने लकड़ियां काट कर बेची।
’’ जा छोटू, बैग में से डिब्बा ले आ।’’ शाम को खाना खाते बखत वह छोटे भाई से बोला।
छोटू दौड़ा-दौड़ा गया और ’भैया मिठाई लाये है, मैं बहुत सारी मिठाई लूंगा, मैं बहुत सारी मिठाई लूंगा।’’ कहते हुए उसके बैग से झट एक मिठाई का डिब्बा निकाल लाया।
’’ ईं बखत मिठाई को डब्बों!’’ गोविंद आश्चर्य से बोले।
’’ दादा, बैंक म म्हारी नौकरी लाग गी।’’ वह ठेठ देहाती में बोला।
’’नौकरी ??’’ गोविंद और तीजा एक साथ बोले।
’’ हाँ माँ, म्ह पढ़ाई क साथ-साथ बैंक की परीक्षा को फारम भी भर्यों। अबार गरम्या म घर इंर् लिये ही कोनी आयो।’’ वह बोला,’’ म्ह अब बैंक म बाबू बण ग्यो, माँ।’’ हर्ष से उसका गला रुंध गया। उसके दादा-जीजी की भी आँखों में आँसू आ गये, खुशी के आँसू।
’’पर अब पढ़ाई कैसे करेगा ?’’ अचानक गोविंद ने पूछा।
’’ अब मैं प्राइवेट पढ़ाई कर लूंगा।’’ वह बोला।
घर भर में खुशी का माहौल छा गया। गाँव-बस्ती में भी जिसने सुना, गोविंद के भाग्य को सराहा। सब्र का फल मीठा होता है और मेहनत रंग लाती है, यह लोगों ने सुना था, लेकिन इसका साक्षात्कार आज पहली बार किया था। खुद गोविंद को विश्वास नहीं था कि उसकी तपस्या का इतनी जल्दी फल मिल जायेगा। वैद्य जी के तो तन-बदन में आग लग गई। ’कल की ही तो बात है। यही गोमदा थाली गिरवी रखने आया था। इतनी जल्दी इसका बेटा बैंक में बाबू बन गया और अपना गौरी ?? सब भाग्य का खेल है।’ उसने ठण्डी आह भरी।
दो-तीन महीनें में रामेश्वर ने थाली भी छुड़ा ली। साल बीतते-बीतते घर-परिवार को भी बैंक क्वार्टर में बुला लिया। शुरु-शुरु में उसे थोड़ी परेशानी जरूर हुई, पर उसने अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लिया।
गोविंदराम और तीजा की अभी उम्र ही क्या थी! वे शहर में अपने आप को बेकार महसूस करने लगे। दिन भर खेत में कड़ी मेहनत करने वालों को घर में बेकार बैठा रहना कैसे सुहाता ? यह बात कई बार वे रामेष्वर से भी कह चुके थे। रामेश्वर भी इस बात को समझता था। अतः काफी सोच-विचारकर उसने क्वार्टर खाली कर दिया और बैंक से थोड़ी सी दूर पर एक मकान किराये पर ले लिया। दो कमरे, एक रसोई, लम्बा चौड़ा दालान, दालान में नीम का बड़ा-भारी पेड, पेड के एक तरफ दीवार से सटा सीमेंट के चद्दरों का शेड। दरअसल उसके एक अधिकारी श्री खोईवाल जी का तबादला भोपाल हो गया था। उन्होनें तो सिर्फ देखभाल की शर्त पर मकान दिया था, फिर भी रामेश्वर ने किराया तय कर ही लिया था।
नया मकान देखकर सभी खुशी से फूले नहीं समाये। धीरे-धीरे घर में दूध का काम भी चल निकला। गोविंदराम और तीजा का समय गायों की देखभाल और रस्सियां बंटने में कटने लगा।
रामेश्वर अब भी मेहनती था। वह नौकरी के अलावा घर के काम-धन्धों में हाथ बंटाता, पढ़ाई भी करता। अब उसने ग्रेजुएशन कर ली थी। छोटे भाई-बहिन भी उसी स्कूल में पढ़ रहे थे। वे भी दसवीं और ग्यारहवीं में आ गये थे।
उधर गौरीशंकर के दिन अच्छे नहीं चल रहे थे। गाँव में विकास कार्य होने से नई डिस्पेंसरी खुल गई थी जहाँ डॉक्टर और नर्स मरीजों की देखभाल करते थे। लोगों का कम-धन्धों की तलाश में शहरों की और पलायन बढ़ा। कई बार तो मंदिर में झालर बजाने वाला तक नहीं मिलता। उसने शहर आकर धन्वन्तरि चिकित्सालय खोला। सातवीं फेल पुस्तैनी पण्डित और वैद्य के पास और कोई काम धन्धा था भी नहीं । वाचाल और चतुर वह था ही, सो यह धन्धा जम गया। शहर में भी राज मंदिर जाना और रामनामी धारण कर पूजा-पाठ करना और सामाजिक-धार्मिक कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना उसकी दिनचर्या में शामिल थे।
इस तरह कई साल बीत गये। इसी बीच उसने उलझन वाला एक प्लॉट खरीद कर उस पर मकान बना लिया। उसी में डिस्पेन्सरी डाल ली। लोन लेना था, तब जात-पाँत सब भूलकर रामेश्वर के पास आया था। स्कूल के दिनों में कभी उसको न छूने वाले गौरीशंकर ने उस दिन रामेश्वर के पैर पकड़ कर मदद माँगी थी और उसकी मंगाई चाय पी थी। गरज बावली थी। कागजात पूरे कर रामेश्वर ने उसको बैंक से भेजा।
कुछ दिनों बाद ही खोईवाल जी आये थे। उनका तबादला अब सतना हो गया था। वे मकान बेचकर वहीं बसना चाह रहे थे। इस बाबत उन्होनें रामेश्वर को बताया। रामेश्वर को मानों मुँहमांगी मुराद मिल गई। बिना किसी को हवा दिये रामेश्वर ने सौदा कर लिया। कुछ नकद दिये, बाकी बैंक से लोन ले लिया।
समय-समय की बात होती है। समय बहुत बलवान होता है। यह चाहे तो आदमी को अर्श से फर्श पर पटक सकता है और चाहे तो फर्ष से अर्श पर बैठा सकता है। इसी ने विश्वविजेता सिकन्दर का वह हाल किया कि वह जीते जी घर नहीं लोट पाया। अर्जुन जैसे महारथी के सामने भीलों को निमित्त बना गोपियों का अपहरण भी तो समय का ही खेल था। फिर गौरीशंकर तो चीज ही क्या ? समय जो न कराये, कम है।
गौरीशंकर की नैया डगमग ही चल रही थी। एक दिन की बात। रामेश्वर गौरीशंकर से मिला। उसकी कुछ महीनों से किस्तें बकाया थी। घर के आगे भारी भीड़ थी। गौरीशंकर जोर-जोर से चिल्ला रहा था,’’इन छोटे लोगों का कोई ईमान तो होता नहीं। देखो, पूरा पाव भर घी कम है। अरे, गरीब समझकर इसे मजदूरी पर रखा था। मेरे ही कान काटने लगी।’’
एक मजदूर स्त्री सिर झुकाये चुपचाप सब सुन रही थी। लोगों ने उससे हकीकत जानना चाही,’’ बोलो, तुमने पण्डित जी को कम घी क्यों तोलकर दिया ?’’
’’थोडी देर रुको, म्ह अबार आई।’’ वह अपनी जगह से हिली। पास ही उसका घर था। वह दो लोगों के साथ घर तक गई, ताला खोला और आळे में से एक थैला लेकर तुरन्त वापस आ गई।
’’काल म्हारा घर म्ह सक्कर कोन छी। म्ह यां बैद्यजी की दुकान सूं शाम न मजदूरी खतम कर एक किलो सक्कर तुलाई छी। जदही ये बोल्या छा क घी हेव तो ल्याजो, सक्कर का पीसा ऊम सं ही काट्र बाकी पीसा देदेउंला। म्हारा घर मं बाट कोन। जो डब्बा को धड़ो करबा क बाद म ईं थैली सूं ही एक किलो तोली। रामदेवजी की सौगन, जो ईं थैली मं सू एक दाणों भी नखाळयों हेई। या गांठ भी यां पंडीजी की ही लगायेड़ी छ।’’ कहते हुए उसने शक्कर भरी प्लास्टिक की थैली आगे बढ़ाई।
अब गौरीशंकर सुट्ट!! लोगों को पता चल गया था कि कौन बेईमान है और कौन शरीफ।
’’जात के बाभन हो और करम ऐसे!! मेरा हिसाब कर दो।’’ वह बोली।
अपने पैसे लेकर वह घर गई। भीड़ भी छँटने लगी।
रामेश्वर उसके सामने पँहुचा तो वह उससे नज़रे नहीं मिला पा रहा था।
कुछ दिनों बाद शहर में हुई संदिग्ध मौतों ने चिकित्सा विभाग के कान खड़े कर दिये। अवैध और झोला छाप डॉक्टरों की धर-पकड़ होने लगी। गौरीशंकर भी पकड़ा गया। आगे से बिना उचित योग्यता के ऐसी प्रेक्टिस नहीं करने का लिखित में आश्वासन देने के बाद ही वह छूट पाया। अब आमदनी का टोटा हो गया। झूठे जातीय घमण्ड ने उसे कई धन्धे करने से रोका, सो अलग। पढ़ा-लिखा वह अधिक था नहीं, अतः कोई और रोजगार उसे मिल नहीं पाया। उसे अब पता चला कि सब भाषाओं की जननी कहलाने वाली संस्कृत का दावा कितना खोखला है ? ‘विदेशी’ भाषा अंग्रेजी का सब जगह कितना बोलबाला है?
ऐसे में बैंक की ओर से अन्तिम नोटिस आ ही गया। यह गौरीशंकर के लिये भगवान के घर से बुलावे से कम नहीं था। वह भागा-भागा रामेश्वर के घर गया। रामेश्वर उसे रास्ते में ही मिल गया।
’’रामेश्वर, यह क्या किया तूने ? तू कुछ कर, नहीं तो मैं बरबाद हो जाऊंगा। गाँव में भी अब तो कुछ नहीं बचा है, सिवाय खण्डहर के। सारी जमीन-जायदाद बेचकर तो यह मकान खरीदा था। अगर यह भी नहीं रहा तो मैं दर-दर का भिखारी हो जाऊंगा।’’ एक ही साँस में वह सब बोल गया।
’’मैं अब कुछ भी नहीं कर सकता। मैंने कितनी ही बार तुम्हें बुलाकर समझाया भी कि बैंक का कर्ज़ा समय पर चुकाओ, नहीं तो परेशानी हो जायेगी। अब बैंक मेरे घर का तो है नहीं। मैं तो मात्र मुलाज़िम हूं। ऊपर का आदेश तो मुझे भी मानना ही पड़ेगा। मेरी भी नौकरी का सवाल है। अतः अब भी कुछ जमा करा सको तो करवा दो, अन्यथा इस कुर्की को कोई नही रोक सकता।’’ रामेश्वर ने सीधे-सपाट लहजे में कहा।
’’ठीक है, भाई । भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा।’’ मरी-सी आवाज में वह बोला और अपना सा मुँह लेकर आ गया।
अगले दिन पौ फटते-फटते बैंक की गाड़ी के साथ मैनेजर बैरवा दो पुलिस गाड़ियों में जाब्ता लेकर गौरीशंकर के घर के बाहर खड़े थे।
गौरीशंकर के तो मानों प्राण ही निकल गये। उसने झट तीन हजार रुपये सहायक मैनेजर मि. शर्मा को देने चाहे।
’’कितने हैं ?’’ उन्होनें पूछा।
’’तीन हजार’’
’’गौरीशंकर जी, कम से कम किस्तों के पैसे तो जमा करवाइये। बाकी शाम तक जमा करवा देना। नहीं तो बैरवा साहब ने जो नोटिस दिया है, उसकी पालना करना ही पडे़गा।’’ फिर वे रामेश्वर जी से मुखातिब होते हुए बोले,’’कार्रवाही शुरू करें, सर?’’
’’और क्या रास्ता है ?’’ वे मायूसी से बोले।
पूरी तरह ढह गया था गौरीशंकर। बड़ी हवेली का कंगूरा झोपड़ी के दरवाजे पर पड़ा सिसक रहा था।
रामेश्वर का इशारा पाते ही इंस्पेक्टर ने दो सिपाही भेज कर गौरीशंकर को एक तरफ बैठाया। बैंककर्मी फुर्ती से अपने साथ लाये नोटिस के पर्चे मकान पर जगह-जगह चिपकाने लगे। साथ में आये पेण्टर ने पर्चे का ही मजमून 3 फिट बाई 4 फिट की जगह में लिखना शुरू कियाः-
’’ यह मकान, जो कि गौरीशंकर शर्मा पुत्र उमाशंकर शर्मा, जाति ब्राह्मण, निवासी सिरोही के नाम रजिस्टर्ड है, इस पर इन्होनें हमारे बैंक से साढ़े नौ लाख रूपये का लोन लिया था। इसकी किस्तें सालभर से जमा नहीं करवाई गई है। बैंक द्वारा अन्तिम नोटिस जारी होने के बावजूद भी कोई किस्त जमा नही करवाई गई, लिहाज़ा बैंक नियमानुसार यह मकान कुर्क किया जाता है। यह मकान आज से बैंक की सम्पत्ति है। इस नोटिस के जरिये हर खास और आम व्यक्ति को सूचना दी जाती है और आगाह किया जाता है कि वह इस मकान से सम्बन्धित कोई सौदा आदि नहीं करे, अन्यथा होने वाले नुकसान का स्वयं जिम्मेदार होगा।’’
आज्ञा से
शाखा प्रबन्धक
रामेश्वरजी सारा नजारा देख रहे थे। अचानक दो मोटरसाईकिले उनके पास आकर रुकी। वे सतर्क हो गये। दो-चार पुलिस वाले भी फुर्ती से किसी अनहोनी की आशंका के चलते उनकी ओर लपके।
युवकों ने गाड़ियां खड़ी की। रामेश्वरजी के पास आकर हेलमेट उतार कर ज्योंही पैर छुए, वे बोले,’’ अरे गोठवाल तुम, और जीनगर तुम। कैसे हो भई ? बहुत दिनों में दिखे।’’
’’ सब आपकी कृपा है सर। कल आरएएस का रिजल्ट आ गया है। हम दोनों का सलेक्षन हो गया है।’’
’’बहुत खूब भाई बहुत खूब। आखिर तुमने अपनी मंजिल पा ही ली।’’ वे बोले,’’ रैंक क्या-क्या आई है ?’’
’’सर, इसकी 51वीं और मेरी 71वीं।’’ उनमें से एक बोला।
’’ वेरी गुड, वेरी गुड। दायें-बायें एक-एक आरएएस।’’ वे हर्ष से बोले। आरएएस सुनकर इंस्पेक्टर थोड़ा चौंका।
ये उस वृक्ष के फल थे जिसे रामेश्वर ने अपनी मेहनत की कमाई का कुछ हिस्सा खर्च कर के लगाया था। बैंक की नौकरी में अच्छी तरह सेट होने के बाद से ही वे जरूरतमंद गरीब विद्यार्थियों की मदद किया करते थे। गोठवाल और जीनगर ऐसे ही लड़कों में से थे। ये आज उनको धन्यवाद ज्ञापित करने आये थे।
दोनों ने गाड़ियों से एक-एक मिठाई का डिब्बा निकाला और रामेश्वरजी को दिया। मनपसंद मिठाई देखकर एक बारगी तो उनका चेहरा खिल उठा, पर तत्कालीन परिस्थिती का ध्यान आते ही वे उदासी से बोले, ’’सुनो, यह सब यहाँ अच्छा नहीं रहेगा। यह मेरे ही साथ पढ़ा, मेरे ही गाँव का बालसखा गौरीशंकर शर्मा है। बैंक का लोन नहीं चुका पाने के कारण इसका मकान कुर्क हो रहा है। अभी यहाँ मिठाई खाना किसी को भी अच्छा नहीं लगेगा। शाम को घर आओ, और बातें भी होंगी।’’
’’जी सर’’
तभी हार्न से उनका ध्यान उधर आकर्षित हुआ। बैंक कर्मी अपना कार्य पूर्ण कर उनका इन्तजार कर रहे थे।
उनके कदम जीप की तरफ बढ़ चले।