कोरोना कालखण्ड में उजागर होते चेहरे...!

 


 



   सम्पूर्ण विश्व इस समय कोविड 19 महामारी से जूझ रहा है। नये मरीज सामने आते जा रहे हैं, अधिकांश पुराने मरीज ठीक होकर घर लौट रहे हैं और कुछ काल-कवलित भी हो रहे हैं जिनमें बुजुर्ग और बच्चे अधिक हैं। इन सबसे हटकर प्रवासियों की व्यथा अलग ही है।जिस प्रकार अपने प्रथम कार्यकाल में मोदी सरकार ने बिना कोई पूर्व तैयारी किये नोटबन्दी लागू की थी, कुछ उसी प्रकार की ’दूरदर्शिता’ का परिचय इस बार भी दिया है। उस समय का मंजर आज भी लोगों की आँखों में तैर जाता है, जब अचानक ही 500 और 1000 के नोट रातों-रात बंद कर दिये गये थे। नोट क्यों बंद किये गये और इससे सत्ताधारी पार्टी और इसके साथियों को क्या-क्या नफ़ा-नुकसान हुआ, यह अलग विषय है, बहरहाल जनता को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। बैंकों के बाहर लम्बी-लम्बी लाईनें लगीं, अपने ही धन को पाने के लिये परेशान होते बेबस लोग, शादी-ब्याह में नकदी की भारी किल्लत, रोजगार छोड़ लाईनों में लगे लोग, कितनों की तो लाईनों में लगे-लगे ही मौत हो गई।नोटबंदी के समय की परेशानियों से कुछ भी सबक नहीं लिया गया।


कोरोना कालखण्ड के लॉकडाउन में कुछ प्रश्नों पर गौर करना जरूरी हो जाता हैः-


1. भारत में पहला मरीज 30 जनवरी के आसपास मिल गया था। विश्व के कई देशों में मौतें होना शुरु हो गई थीं, तब यहाँ लॉकडाउन इतना देर से (25 मार्च से) क्यों लागू किया गया?


2. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का कार्यक्रम क्यों आयोजित किया गया, जबकि तब तक अमेरिका में इस महामारी से मौतें शुरु हो चुकी थी? आज कोरोना से गुजरात की भयावह स्थिति किसी से छिपी नहीं है।


3. यह जगजाहिर है कि यह महामारी विदेशी है। वहाँ से संक्रमित होकर आये लोगों के कारण ही यह महामारी फैली। फिर विदेशों से आने वाली फ्लाइटों को समय रहते क्यों नहीं रोका गया, जैसा कि आज रोका गया है? आज भी विदेशों से प्रवासी लोग नित्य ही आ रहे हैं और उनमें से कितने ही संक्रमित पाये जा रहे हैं।


4. सर्वाधिक परेशानी मजदूर वर्ग को हुई। ये काम-धन्धे के कारण दूसरे राज्यों में गये थे, लॅाकडाउन के कारण वहीं फंस गये। जब तक राशन पानी रहा, वे सहते रहे। राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार ने मदद की, लेकिन राशनकार्ड, आधार कार्ड, मजदूर डायरी, पंजीकरण और तमाम अन्य बाध्यताओं के साथ। भूख से लाचार जिन लोगों के पास खानापूर्ति के कागज नहीं थे, वे इनसे वंचित रह गये। ऐसे लोग एक दो नहीं, करोडों के आसपास थे। राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के व्यक्ति, जो अन्य राज्यों में लॉकडाउन के चलते फंस गये थे, अभावों के चलते अपने घरों को लौटने को मजबूर हो गये। ऐसी-ऐसी घटनायें सामने आई कि सुनने वाले सन्न रह गये। भूख-प्यास और फाकाकशी झेलना इनकी मजबूरी हो गई। साथ ही कितनों को राज्यों या जिले की सीमाओं को पार करते समय पुलिस द्वारा मारा-पीटा भी गया। इनमें कितने तो भूख-प्यास और थकान से ही बेदम हो गये। कुछ दुखद वाकये यहाँ उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगाः-


पेरूर (तेलंगाना) से 100 किमी दूर अपने घर आदेड़ (छत्तीसगढ़) के लिये पैदल चली 12 साल की बच्ची जमलो मड़कम की घर पहुंचने के मात्र 14 किमी पहले ही दिनांक 20 अप्रैल को मृत्यु हो गई। वह अपने परिवार की इकलौती संतान थी और दो महीने पहले ही रोजगार की तलाष में पेरूर (तेलंगाना) गई थी।


पैदल चलते-चलते पटरी पर थककर सोये 16 मजदूरों को मालगाड़ी दिनांक 8 मई 2020 को औरंगाबाद महाराष्ट्र में काटती हुई निकल गई।


जैसलमेर से पैदल चल कर दस लोग 9 मई 2020 को 11 दिन में बदनौर पंहुचे।  


 हैदराबाद से एक मजदूर परिवार 800 किमी की दूरी तय करके 10 मई 2020 को मध्यप्रदेश के बालाघाट पंहुचा। 


चगडरिया परिवार के लोगों ने पैसे खत्म होने पर 15000 के बैल को 5000 में बेचा और बेटे को बैलगाड़ी में जोत कर घर 10 मई 2020 को जुलवानिया से देवास आये।


अहमदाबाद से मध्यप्रदेश के रतलाम के लिये निकली नौ माह की गर्भवती स्त्री को 196 किमी छह दिन तक चलने के बाद सहायता मिली। इन्हें एम्बुलेंस से घर पंहुचाया गया।इनके अलावा हजारों मजदूर पैदल, ट्रकों में या अन्य साधनों से परेशान होते हुए अपने-अपने घर को लौट रहे हैं। कितने मजदूरों के साथ ठगी और चोरी की वारदातें भी हुई। हाथों और पीठ पर बच्चे या सामान और आंखों में मजबूरी, ऐसे दृश्य आज भी आम हैं।


5. होना यह चाहिये था कि आवागमन पूर्णतया बंद करने (ताकि महामारी नहीं फैले) के साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा राहत राशि, जो अब मई में जारी की गई है, मार्च में ही जारी कर दी जाती, पार्षद, सरकारी कर्मचारी व स्काउट्स आदि गली-गली व मोहल्ले-मोहल्ले में बिना किसी सरकारी औपचारिकता के उचित पात्र व्यक्ति व परिवार को राहत सामग्री प्रदान करते और अपने-अपने स्थान पर ही रोकते, उनके पलायन को रोका जाता, ताकि न उनको तकलीफ होती और न ही यह महामारी अधिक फैलती। पूरे देष में लॉकडाउन लगाने के बजाय मात्र उन हिस्सों में ही लगाया जाता, जहाँ संक्रमित व्यक्ति मिले, तो इतनी अव्यवस्था नहीं होती। अभी भी समय रहते इसे अपना लिया जाये तो काफी कुछ मदद मिल सकती है।  


6. अब लगभग पचास दिन बाद मजदूरों को उनके गंतव्य स्थान पर पहुँचाने के लिये ट्रेने और बसें शुरु की गई हैं। जबकि प्रवासी लोग विदेशों से आते रहे हैं। जब चौतरफा दबाव बढ़ने लगा तब सरकारों को इनकी सुध आई। यह बात समझ से परे है कि जब विदेशों से हवाई जहाज भर-भर कर प्रवासी पावणे लाये जा सकते हैं तो देश के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वालों को उनके घर सुरक्षित पहुँचाने में क्या आपत्ति थी? अब भी तो भेजे जा रहे हैं। जो आधारभूत सुविधा आज दी जा रही है, महीने भर पहले भी दी जा सकती थी। जो व्यवस्थायें हवाई अड्डों पर की जा रही थी, रेल्वे स्टेशनों और बस स्टेण्डों पर भी की जा सकती थी। कहने को तो एक सभा में यह कहा गया था, ’’मैं उन लोगों को हवाई जहाज में उड़ते देखना चाहता हूँ, जो हवाई चप्पल पहनते हैं।’’ लेकिन हवाई चप्पल तो क्या, नंगे पैरों तपती सड़क पर चलते मासूमों को देख कर भी इनका दिल नहीं पसीजा और हवाई बाते बनाने वालों ने हवाई जहाज तो क्या, एक बस तक उपलब्ध न कराई। 


  इन सबसे क्या यही साबित नहीं होता है कि सरकारें गरीबों और मजदूरों के लिये हृदयहीन हो चुकी हैं और आज यदि ये कर रही हैं तो अपनी बदनामी से बचने के लिये कर रही है? श्रमिक एक्सप्रेस के नाम पर ट्रेने चलाई गई, जो तमाम औपचारिकताओं के साथ किराया भी लेती है उन मजदूरों से जिनको बेरोजगार हुए लगभग डेढ़ माह हो गया है जिनके रोटी के लाले पड़े हुए है जबकि कुछ ही दिनों पूर्व 15-15 लाख रूपये देने वाली का वादा करने वालीसरकार ने भगौड़े उद्योगपतियों के 68000 करोड़ रुपये माफ किये हैं।


ऐसे समय में सरकार द्वारा किराये की मांग करना अमानवीयता है। सरकार को चाहिये कि कालेचोरों से धन वसूले और इस समय काम ले ताकि बेरोजगार जनता को कुछ राहत मिल सके। साथ देश के मंदिरों में पड़ी अकूत सम्पदा को भी देश हित में काम लिये जाने का बिल पास करवाये। 


   मित्रों, अब एक और विपत्ति आने वाली है और वह विपत्ति यह है कि जो मजदूर इन हालातों में पैदल ही घर चले गये हैं, वे जल्दी तो वापस आयेंगे नहीं, अतः सभी सेक्टरों में श्रमिकों की भारी समस्या होगी, जिसके चलते उत्पादन का पहिया धीमा हो सकता है या रुक सकता है। इस बारे में भी सरकार को समय रहते विचार कर लेना चाहिये।


   अतः सरकारों और देश के नीति-नियामकों से आग्रह है कि यह वायरस जनित महामारी इतनी आसानी से जाने वाली नहीं है, इसलिये इसके बारे में दूरदर्शिता पूर्ण और दूरगामी नीति बनाने की आवश्यकता है। पोलियो भी इसी प्रकार की बीमारी रही है जिसको समाप्त करने का संकल्प 1988 में लिया गया था भारत में इसके टीके सन 1995 से पिलाने शुरु हुए थे और अंतिम मामला 13 जनवरी 2011 को पश्चिमी बंगाल में मिला था।    


 

-सुनील कुमार

  संपादक-दीक्षा दर्पण,जयपुर