हिन्दी साहित्य में नाटकों की दो धारायें प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। पहली साहित्यिक नाटक दूसरी लोकनाटक, जो आज भी प्रचलित हैं। इनमें ग्रामीण जीवन में लोक नाटको का महत्वपूर्ण स्थान है। मध्यकाल में संस्कृत रंगमंच की परम्परा के पतन होने के बाद लोकनाटकों की परम्परा जीवित रही है। वर्तमान में लोक नाटकां की परम्परा विभिन्न प्रदेशों में उसी रूप में आज भी जीवित है।
लोक रंगमंच की परम्परा पूर्णतया दलित वर्ग पर ही आश्रित थी। निम्न वर्ग के लोग नाटक मंडलिया बनाकर गांव-गांव में घूमकर सामन्तों व जमीदारों का मनोरंजन करते थे। इनमें वैरासी, मदारी, भांड व अखाडेबाज तथा बाद में नौटंकी कलाकार प्रमुख थे। शुरू-शुरू में इन नाटकों में विरोध का रूप कम किन्तु मनोरंजन का प्रमुख उद्देश्य होता था। परन्तु बाद में इनमें तत्कालीन राज व्यवस्था के शोषण व उत्पीडन के प्रसंग बने। लोकनाटकों के अधिकतर पात्र दलित शोषित वर्ग से आते थे। नाटकों में सुख-दुख-संवेदना व भाषा शैली का सहजता से प्रतिनिधित्व होता था। इस प्रकार लोकगीत एवं लोक नाटक दलित समाज की परम्परागत निधि है। इसलिए एक लम्बे अरसे से मंच पर अभिनय करने वाले लोग दलित वर्ग के होते थे।
लोक नाटकों का उद्भव मानव की कलाबाजी, नृत्य देखने, कहानी सुनने के अनुकरण की नैसर्गिक प्रवृ़त्त से हुआ है। इनमें सहजता व सरलता होती थी। गम्भीर बात भी हल्के फुल्के ढंग से कही जाती थी। लोकनाटकों में स्वांग, तमाशा, नकल, भडैती, लीला व विदेशिया प्रमुख थे। इन नाटकों में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक व लौकिक आदि सभी विषय होते थे। लोककथाओं पर निर्मित नाटक सबके आकर्षण के केन्द्र होते थे। क्योकि ये लोक भाषा व लोक परिवेश में ही प्रस्तुत होते थे। खुले मैदान या चौपाल पर चार तख्ते डालकर प्रस्तुत किये जाते थे। लोकनाटकों के महत्व को समझकर स्वामी अछूतानन्द ने 20 वीं सदी में दलित लोकनाटकों की रचना की थी।
19 वी सदी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत में हाथरस के पं.नत्थूराम गौड व अवध में कृष्णा पहलवान प्रमुख लोकनाटककार व लेखक थे। लोकनाटकों के रंगमंच को अखाड़ा कहा जाता था। पं. मांगेराम शर्मा, चन्दर, बलवन्तसिंह व बुन्दूमीर लोकनाटकों की स्वांग परम्परा के प्रमुख कलाकार थे। ये सभी कलाकार ऐतिहासिक व पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर नाटक लिखते व प्रस्तुत करते थे। धार्मिक व सामाजिक समस्याओं को भी अपने नाटकों का विषय बनाते थे।
‘‘स्वामी अछूतानंद हरिहर’’ को हिन्दी दलित साहित्य में प्रथम दलित नाटककार के रूप में जाना जाता था। इनकी जीवन यात्रा सन् 1879 से 1933 के बीच मानी गयी है। हिन्दी रंगमंच का भारतेन्दु हरिशचन्द्र व्यवस्थित व दृढ़ आधार प्रदान किया था, उसी तरह दलित रंगमंच को अछूतानन्द हरिहर द्वारा, इन्होने सर्वप्रथम दलित विषयक नाटको की रचना करके उनका प्रदर्शन किया हरिहर ने ‘‘रामराज्य न्याय’’ 1926 ई. में तथा मायानन्द बलिदान 1931में बलिछलन व पारखवध नाटकों की रचना की। इनके समय लोकनाटकों के कथानक राजारानी, आशिक-मासूक की प्रेम कहानी, हिन्दू संस्कृति के वाहक हरिशचन्द्र तारामती, भक्त प्रहलाद चरित्र, सत्यवान सावित्री, आल्हा-ऊदल, ज्ञानी चोर, गुरू गोरखनाथ रूप बसंत आदि की कहानियों पर आधारित होते थे। ये नाटक सबसे ज्यादा दलित शोषित व निम्न समाज के मनोरंजन के साधन थे। तत्कालीन दलित समाज में नौटंकियों का प्रचलन सर्वाधिक था जिनसे समाज में परम्परागत रूप से चली आ रही शिक्षा, संस्कारों के साथ-साथ रूढ़ियों व अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता था।
स्वामी अछूतानन्द ने दलित कलाकारां की सहायता से दलित रंगमंच खड़ा किया। 15-20 वीं सदी में महात्मा ज्योतिबा फूले, डॉ. अम्बेडकर व स्वामी अछूतानन्द जैसे महान विचारक दलित समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास कर रहे थे। अछूतानन्द के समय में समाज में जाति प्रथा। छूआछूत धार्मिक अन्धविश्वास, रूढ़ियों व मैला ढ़ोने की प्रथा, बालविवाह, नशाखोरी, पर्दाप्रथा व अशिक्षा आदि सामाजिक बुराईयाँ समाज में विद्यमान थी। सामाजिक वर्णव्यवस्था में दलित प्राचीन काल से ही धोर, नारकीय पीड़ा व अत्याचारों को सहते आ रहे थे। शूद्रों की छाया भी अपवित्र मानी जाती थी। अछूतानन्द ने शूद्रों की इसी दयनीय दशा का वर्णन ‘‘राम राज्य न्याय’’ नाटक में शंभूक के माध्यम से करते थे।
शंबूक कहता है कि ब्राह्मणों ने मेरे पिता को लूटकर दरिद्र बना दिया, और दीन हीन व्यवस्था में करके ब्राह्मण के घर गायें चराने के कार्य में लगाया था मेरे पिता 12 वर्ष तक दासता सहते रहें। ब्राह्मण इनका घोर अपमान व शोषण करता था वर्तन छूने नही देता था। आर्यों ने सामाजिक सहिताएें बनायी उनमें शूद्रों को मानवीय आधिकारों से वंचित कर दिया था। उनको वर्णशंकर व अंत्यज अछूत कहकर समाज में सबसे नीचे का स्थान दिया गया। इसी शोषण व अन्याय की अभिव्यक्ति स्वामी अछूतानन्द ने मायानन्द बलिदान में मायानंद और राम राज्य में शंबूक के माध्यम से करते थे और दलित एवं आदिवासियों में जागृति लाने का सन्देश देते थे। अछूतानन्द मनुस्मृति को मूलाधार मानते थे। इसलिए उन्होने डॉ. अम्बेडकर से भी पहले ‘‘मनुस्मृति’’ को जलाकर अपने आक्रोश को अभिव्यक्त किया था और सदियों से शोषित व उत्पीडित दलितों में विद्रोह की चेतना जगाने का क्रान्तिकारी कार्य किया था।
रामराज्य न्याय नाटक में शुरू वशिष्ठ राम को मनु द्वारा इसलिए वर्णव्यवस्था को भंग करने वाले शंबूक की हत्या करने का आदेश देते है, क्योंकि वह शूद्रों को वेद-शास्त्रों के विरूद्ध उनके आदि धर्म का उपदेश दे रहा है। तुम राजा हो तुम्हें ऐसे विद्रोही को मृत्यूदण्ड देना चाहिए। राम को शंबूक का अपराध समझ में नहीं आता है। वे उसे निर्द्रोष मानते है। उनका मन मृत्युदण्ड देने से हिचकिचाता है। गुरु वशिष्ठ फिर तर्क देते है कि देश में जो अकाल पड़ रहा है एवं युवा ब्राह्मण पुत्र की जो मृत्यू हुई है उसका कारण शंबूक द्वारा वर्णव्यवस्था के विरूद्ध सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा करना है। हे राम तुम उस वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थापित करने वाले मनु के सामाजिक नियमों को भंग करने वाले पापी का सिर अपने हाथ से काट डालो। मजबूरन राम शंबूक का प्राणदण्ड देते है। इसी स्थिती को अछूतानन्द मायानन्द बलिदान नाटक में मायानन्द की हत्या के माध्यम से व्यक्त करते है।
स्वामी अछूतानन्द रामराज्य न्याय व मायानंद बलिदान नाटकों से छुआछूत की समस्या को व्यंग्यात्मक रूप से प्रस्तुत करते है। अस्पृश्यता के बारे में शंबूक की पत्नी तुंगभद्रा कहती है कि बर्तनो को छूने से क्या वे अपवित्र हो जाते है। इससे वे द्विज जातियों की विरोधाभासी मानसिकता को उजागर करते हुए बताते है कि शुद्रां कि स्त्रियों को भोग करने से अपवित्र नहीं होते जबकि शूद्रों के स्पर्श करने से अपवित्र हो जाते हैं। मायानन्द बलिदान में एक तरफ तो पुरोहित ब्रह्मदत्त शूद्र दासी को भोगना चाहता है दूसरी तरफ ब्रह्मदत को शूद्र मायानन्द के भजन कीर्तन व तपस्या से वर्णव्यवस्था भंग होती नजर आती है और उसकी हत्या का षड़यंत्र रचता है। इस प्रकार अछूतानन्द ब्राह्मणों के दोहरे चरित्र व कुटिलनीति को उजागर करते हैं।
भारतीय समाज में रामराज्य को आदर्श राज्य के रूप में माना जाता है। उसे ही बार-बार समाज में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। अछूतानंद कहते है कि रामराज्य कहीं से आदर्श राज्य की स्थापना नही करता है। चाहे वह दलितों के संदर्भ में हो अथवा स्त्रियों के संदर्भ में हो। रामराज्य नाटक में राम शंबूक को महज इसलिए दण्ड देते हैकि वह ईश्वर की भक्ति व कीर्तन करता है एवं शूद्र व आदिवासियों में ज्ञान का प्रसार करता है। जो वर्णव्यवस्था के प्रतिकूल था। ऐसे में यह प्राणदण्ड कहां तक उचित कहा जा सकता है और सदियों से बार-बार इसी बात को लेकर बहस होती है कि जहां मानव को उसके मूल अधिकारों से वंचित किया जाता है। अछूतानंद सवर्ण लोग रामराज्य को नकारते हुए आदि हिन्दू समाज की स्थापना पर जोर देते हैं।
अछूतानन्द दलितों में से हीन भावना को निकालकर अपनी अस्मिता से पहचान कराते हैं। शंबूक स्वयं को ‘‘आदि हिन्दू मुनि’’ कहलाना पसन्द करते हैं। वे पूर्ण विश्वास से अपनी पत्नी तुंगभद्रा से कहते है कि मैं भी आर्य द्विज बनकर अपने आदि वंश व आदि धर्म को मिटाना नहीं चाहता हूँ। शंबूक व मायानन्द यही अस्ततित्व , दलित व आदिवासियों में करना चाहते हैं। इनके इसी कार्य से कुपित होकर ब्राह्मण उनको मारने का षड़यंत्र रचते थे। क्योंकि शूद्र ज्ञान प्राप्त कर सामाजिक भेद को समझकर अपने मूल आदि वंश को पहचान जायेगें एवं अपने अधिकारो की मांग करेंगे। इससे वर्णाश्रम व्यवस्था भंग हो जायेगी जो मनुस्मृति व वैदिक मत के विरूद्ध होगा।
शंबूक व मायानन्द बौद्धधर्म व संतमत के माध्यम से शुद्रों को बताते है कि वे शूद्र व अछूत नहीं थे। यह तो आर्यो ने षड़यंत्र करके बनाया है और हमें नीच व गन्दे काम करने को मजबूर किया है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। जो बाद में हिंसा व शोषण का कारण बने। इनमें ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। इन दोनों नाटको में ब्राह्मण कैसे राजा को भय दिखाकर समाज में अपना वर्चस्व कायम रखते हैं। ब्राह्मण वर्ग के सामने राजा राम तथा मायानन्द बलिदान में राजा किस तरह असहाय नजर आते है। वे न चाहते हुए भी पुरोहित वर्ग के इस घृणित कार्य में साथ देते है। यज्ञ में मायानंद की बलि दे दी जाती है।
प्राचीन काल से राजसत्ता पर पुरोहितवाद हावी रहा है। ब्राह्मण सहस्त्रालिंग बांध के निर्माण के लिए राजा से यज्ञ करवाने का परामर्श देते है। क्योंकि ब्राह्मणों का इसमें स्वार्थ होता है। वे अपनी आजीविका इसी के माध्यम से चलाते है। जब रानी को इस बात का पता चलता है, वह यज्ञ का विरोध करती है, क्योंकि एक तरफ तो प्रजा भूख और अनावृष्टि से मर रही है, लेकिन राजा राम को भूख से तडपती मरती प्रजा की चिन्ता नहीं होकर ब्राह्मणों की व उनके द्वारा किये जाने वाले यज्ञों के लिए अन्न, दूध व घी जैसी सामग्री की चिन्ता है। राजा जितनी चिन्ता ब्राह्मणों की करते है उतनी चिन्ता आम जनता व शूद्रों की नहीं करते है। अछूतानन्द को ‘‘राम राज्य’’ में सामाजिक समानता का अभाव दिखाई देता है।
अछूतानंद यज्ञां की आवश्यकता को नकारते हैं। उस समय गौमेघ, अश्वमेघ व नरमेघ जैसे यज्ञ प्रचलित थे। जिनमें गाय, अश्व व मनुष्य की बलि दी जाती थी। जो हिंसा पूर्ण व घृणित कार्य था। मायानंद बलिदान में रानी यज्ञ भूमि को शमशान के समान व यज्ञों की संज्ञा बूचडखाने से देती है, क्योंकि इनमें जीवों की नृषंश प्रकार से बलि दी जाती थी। इसलिए यज्ञ भूमि श्मसान के समान लगती थी। समकालीन भारतीय समाज में दलितों की अत्यन्त दयनीय दशा थी। लोगों को पेट भरने को भोजन नहीं था, वहीं ब्राह्मण व आर्य लोग यज्ञों को पुर्नस्थापित करने में अन्न, घी व दूघ को यज्ञो में होम कर जला देते थे। इसी सामग्री से लोगों की भूख मिट सकती थी। जैसे की वर्तमान में मन्दिरों में कृष्ण जन्माष्टमी तथा महाशिवरात्रि पर लोग हजारो टन दूध, घी, शहद, दही व पानी को मूर्तियों के अभिषेक पर फालतू में बहा देते है।
वर्णाश्रम व्यवस्था में शूद्रो को शिक्षा का अधिकार नहीं था। ब्राह्मणों का मानना था कि अगर शूद्रों को गुलामी से मुक्त कर दिया तो वे उनके दृष्टिकोण को समझ जावेंगे व घृणित कार्यों को छोड़ देंगे। शिक्षा का अधिकार भी इसलिए नही देना चाहते थे कि यदि शूद्रां को शिक्षा दी गई तो वो अपने मूल वंश व समाज में उत्पन्न भेदभाव को पहचान लेंगें और अपने अधिकारों की मांग के लिए विद्रोह करेंगे। ऐसा ही विद्रोहात्मक कार्य मायानंद बलिदान नाटक में मायानंद ने व ‘रामराज्य न्याय’ में शंबूक करते हैं।
अछूतानंद सारा जीवन दलितों में शिक्षा के प्रचार प्रसार व उनके लिए विद्यालय खोलने में व्यतीत कर देते हैं और दलितों ने शिक्षा के महत्व को समझा। क्योंकि हिन्दुओ ने उन्हें गुलाम बनाये रखने के लिए शिक्षा से वंचित रखा था। इसके लिए उन्हें अनेक समस्याओं व सवर्णो का विरोध झेलना पड़ता था। इन्ही समस्याओं व विरोधों को हम मायानंद व शंबूक नाटकों में देखते हैं। शंबूक अपनी पत्नी तुंगभद्रा से कहता है कि मैंने केवल अपनी जाति की उन्नति की है। ब्राह्मणों ने उन्हें सभी मानवीय अधिकारों से वंचित रखा था वे ही अधिकार मैंने उन्हें दिये है। दलितों ने अछूतानंद के संघर्ष को जाना कि उनकी गिरी हुई दशा को संघर्ष से ही बदल सकते है और अपने वंचित अधिकारों को हासिल कर सकते है।
दोनों नाटकों से ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग के षड़यंत्र का ज्ञान करा देते है। जिनकी कुटिल चालों से राजा को मृत्युदण्ड देने के लिए भी मजबूर कर देते हैं। किन्तु मायानंद व शंबूक का बलिदान व्यर्थ नहीं जाता है, इनके बलिदानों की सार्थकता इस बात में दिखाई देती है कि इससे दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगे। वर्णव्यवस्था को उन्होंने नकार दिया और उनके शोषण व उत्पीड़न के प्रति समझ पैदा होने लगी। स्वामी अछूतानंद ने साहित्यिक व रचनात्मक कार्यो जैसे नाटक, कविता, पत्रकारिता व भाषणों के माध्यम से दलितों में चेतना व आत्मसम्मान की भावना जगाने की सर्वप्रथम आधारशिला रखी। उनके द्वारा शुरू किये कार्यो को वर्तमान में अनेक लेखक, साहित्यकार, पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता लगे हुए हैं।
19 वीं सदी में स्वामी अछूतानंद ने अपने लोकनाटकों के माध्यम से समाज में जिस परिवर्तन का सूत्रपात किया था। उसी की परिणति आज दलितों के द्वारा विद्रोह किये जाने के ज्वलन्त उदाहरण देखे जा सकते हैं। इसके अलावा उनके रचनात्मक कार्यो द्वारा यह कार्य प्रभावी रूप से कई रूपों में किया जा रहा है जैसे संजीव जायसवाल द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘‘शूद्र -द- राईजिंग’’ में दिखाई देता है तथा ममूटी ने डॉ. अम्बेडकर पर फिल्म बनाकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित की गई है। इसके अलावा अछूतानंद की शिक्षा व प्रेरणा का प्रभाव हिन्दी फिल्मों में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। इसके बावजूद भी दलित समाज अनेकोंं अंधविश्वास व आडम्बरों जैसे झाडू फूंक, टोने-टोटके व अघोरी बाबाओं द्वारा मानवीय शोषण को देवीय प्रकोप मानता है।
भारतीय संविधान में दलितों को भारतीय नागरिकों के सभी राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक अधिकार दिये गये है, किन्तु आज भी लोगों के व्यवहार में ऊंच-नीच, छूआछुत दलितों पर अत्याचार जैसी अमानवीय घटनाऐं देखने को मिलती है। अछूतानंद के बाद दलित नाटकों में समाज में आमूल-चूल परिवर्तन को आधार बनाया गया है। जिसमें आम आदमी के सुख-दुख उनकी मूलभूत जरूरतों का अभाव शोषण व उत्पीड़न को लेकर नाटक लिखे जा रहें है, समाज में दलित वर्ग में ये नाटक मनोरंजन के साथ नवीन चेतनाओं का संचार कर रहें है।
दलित रंगमंच का विकास व उसकी गति यह दर्शाती है कि अछूतानंद के आदर्शो व रचनात्मक कार्यो को आगे बढाया जा रहा है। इसमें हमे दलित समाज व दलित रंगमंच का भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है।
- एड. यादरामसिंह यादव
जयपुुुर, मो.नः 9414389598