देश के हिन्दुकरण की शुरुआत हो चुकी है
    

  हमारा देश भारत विविध संस्कृतियों का देश है और इसमें अनेक सभ्यताओं का मिश्रण है। यह सब जानते-बूझते हुए भी कुछ लोग, जब भी वे सत्तासीन होते हैं, अपनी संस्कृति के विचार और मान्यतायें दूसरों पर थोपते रहते हैं। भारत में संविधान के अनुसार सबको अपनी-अपनी संस्कृतियों, मान्यताओं और परम्पराओं के अनुसार रहने और जीने का अधिकार है, साथ ही इनका प्रचार-प्रसार करने का अधिकार भी है। परन्तु यह प्रचार प्रसार अपने खर्चे से होना चाहिये न कि जनता के खजाने के पैसे से। ये किसी पर लादी नहीं जानी चाहिये। किसी पर अपनी मान्यतायें थोपना लोकतन्त्र में तानाशाही माना जाता है।

   ताजा प्रकरण राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों के पुस्तकालयों में गायत्री परिवार द्वारा प्रकाशित अखण्ड ज्योति नामक पत्रिका को नैतिक शिक्षा के नाम पर अनिवार्य किये जाने का है। 

  भारतीय संस्कृति की शुरुआत प्रागैतिहासिक काल होती है, जब मानव जंगलों और गुफाओं में रहता था। तत्पश्चात भारत की प्रथम सभ्यता के रूप में सिंधु घाटी सभ्यता का अस्तित्व सामने आया जिसने नगर नियोजन और व्यापार सिखाया। इसके बाद वैदिक अथवा ब्राह्मण संस्कृति का आगमन हुआ जिसके बारे में विभिन्न मत हैं जो सुधि पाठक जानते हैं। इसके बाद जैन और बौद्ध सभ्यता और संस्कृति यहाँ फली-फूली। प्रेम, अहिंसा, शांति, सहिष्णुता, स्यादवाद, अचौर्य, अपरिग्रह आदि इनकी ही देन है। कालान्तर में मुस्लिम और ईसाई सभ्यताओं से देश परिचित हुआ जिन्होनें देश का नई तहजीब, नई दुनिया और विशेषकर आधुनिक विज्ञान से परिचय कराया। ये सभी सभ्यतायें अलग-अलग होते हुए भी आज इस कदर घुल-मिल गई हैं कि इनको वर्तमान में कही जाने वाली भारतीय संस्कृति से अलग करना बहुत ही मुश्किल है। आज हिन्दु कोट-पेण्ट पहनते हैं जो ईसाई सभ्यता के परिचायक कहे जाते हैं। शादी में पहनी जाने वाली शेरवानी मुस्लिम संस्कृति का हिस्सा है। इस प्रकार देखें तो भारतीय संस्कृति में हर सभ्यता से कुछ न कुछ लिया गया है और इन सब से मिलकर ही भारतीय संस्कृति बनी है। यहाँ तक कि ’हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान आदि’ शब्द भी फारसी भाषा के हैं और आज इन्हीं के आधार पर हिन्दुओं में एकता की बात की जाती है!!

    भारत में वर्तमान सरकार विशेष रूप से हिन्दुत्व की विचारधारा से जुड़ी हुई है और इसके कार्यों से भी ऐसा प्रकट होता रहता है। इस बार तो विशेष रूप से पूर्ण बहुमत की सरकार है और विपक्ष न के बराबर है अतः कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं है। इन कार्यां में अपनी विचारधारा के कर्मचारियों को महत्त्वपूर्ण स्थानों पर लगाना, गाँवों, कस्बों, शहरों, और महानगरों तक में अपनी विचारधारा वाले संगठनों को विस्तार देना, हिन्दू धर्म से जुड़े धार्मिक कार्यक्रमों यथा-रामायण पाठ, सुन्दरकाण्ड पाठ, पूजापाठ आदि को बढ़ावा देना प्रमुख है। इसी क्रम में पाठशालाओं में अखण्ड ज्योति की शुरूआत करना भी है। 

  सरांषतः भारतीय संस्कृति का दूसरा नाम हिन्दू संस्कृति नहीं है, जैसा कि कई अतिवादियों का सोचना है। यह तो ऐसी संस्कृति है जिसके विकास में कबीलाई संस्कृति, हिन्दू संस्कृति, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई और और यहाँ तक कि लोक संस्कृतियों का भी समुचित योगदान है। यह बात उक्त आदेश जारी करने वाले मानें चाहे नहीं, पर सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। एक छोटा-सा उदाहरण है कि हिन्दू संस्कृति में सर्वत्र राम की पूजा होती है और रावण का दहन, परन्तु क्या इसी देश में रावण की पूजा करने वाले और उसके दहन पर शोक मनाने वाले नहीं हैं ? क्या उन पर जबर्दस्ती हिन्दू संस्कृति लादी जा सकती है ?      

        अखण्ड ज्योति, जिसमें पौराणिक कथाओं, धर्म चिन्तन, हिन्दू आध्यात्म, उपनिषद और इसी प्रकार हिन्दू अवतारों की कपोल-कल्पित कथाओं (जिनमें कृष्ण की रासलीलाऐं और वस्त्रहरण जैसी बातें भी शामिल हो सकती हैं।) की भरमार रही है, किस प्रकार विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र को अच्छा बनायेगी, यह स्पष्ट नहीं है। निश्चित रूप से इसमें प्रेरक प्रसंग भी शामिल होते हैं, पर उनमें भी बहुतायत से हिन्दू संस्कृति वाले उद्धरण ही होते हैं।

   अतः सरकार को चाहिये कि किसी एक धर्म विशेष के प्रचार-प्रसार का कार्य अपने हाथ में न ले। यह कार्य धर्माचार्यों और उससे भी बढ़कर धर्म के अनुयायियों का है, जिनके आचरण से धर्म अपने-आप फलेगा-फूलेगा। अगर नैतिक शिक्षा देना ही है तो कक्षा एक से ही पाठ्यपुस्तकों में हर धर्म, मत, पंथ, और सम्प्रदाय से जुड़े महापुरुषों के जीवन के प्रेरक प्रसंग शामिल किये जा सकते हैं। इससे अन्य धर्मावलम्बियों को यह नहीं लगेगा कि उनको उपेक्षित कर दिया गया है। वैसे भी ज्ञान-विज्ञान के इस युग में पौराणिक कथाओं, शेषनाग, अवतार, विष्णुलोक, पाताल, स्वर्ग-नरक, आदि पर पाठकों का विश्वास कठिन ही है। 

 

-श्याम सुन्दर बैरवा