भले ही भूंगडे बेचो,लेकिन दलितों व्यापार करो







 

यह बाजार युग है जहां हर क्षेत्र में बाजार तंत्र हावी है।हर तरफ पैसे का बोलबाला,चारों ओर बाजार की चकाचौंध गुजरे जमाने में सीमित बाजार होते थे जहां परिवार के जरूरत की चीजें ही बिना तडक-भडक के बिक्री होती थी।आज ज्यादातर बाजार अनावश्यक, गैर जरूरी व विलासिता की चीजों से अटा पडा है।बाजार तो क्या कालोनियों के घरों में बाजार विकसित हो गया है।घर अब घर नहीं कपड़ों की बुटिक,ब्यूटी पार्लर,जिम का ट्यूशन सेंटर के रूप में बदल गये हैं।हर तीसरी दुकान,हर दसवीं दुकान मिठाई तथा हर पंद्रहवीं दुकान कपडों की नज़र आती है।हर गली के नुक्कड पान,चाट या देशी विदेशी शराब की दुकानों से सजा हुआ मिलता है।छोटे व्यापारी तो छोड़ो बिड़ला,टाटा व अंबानी जैसे अमीर परिवार भी अब सब्जी व किराना का सामान बेचने लग गए हैं। गांव जहां कल तक कोई इक्की दुकान परचून की दुकान होती थी वहाँ भी शराब,गुटका,कपड़ों व इलेक्ट्रॉनिक्स चीजों के शोरूम खुल गए हैं।हल चलाता हुआ किसान व रिक्शा चलाता हुआ मजदूर भी मोबाइल रखना शान समझता है।

     हर घर के कमरें में अलग-अलग टी.वी.घुस गया है।कैमरों,सी.डी.प्लेयर,टी.वी.,कम्प्यूटर, मोबाइल, वाशिंग मशीन, रसोई की कई मशीनों के खराब होने पर चर कबाड़खाने बन गये हैं। सोना-चांदी ईतना महंगा फिर भी ज्वैलरी शोरूमों में इतनी भीड नजर आती है मानों गहने मुफ्त में मिल रहे हैं।एक बार खराब हुए स्कूटर,मोटरसाइकिल का कोई खरीददार नहीं मिलता।दिनों-दिन नई-नई चीजें खरीदने का चलन बढ गया है।हर व्यक्ति इन चीजों को खरीदने के लिए कई तरह के कर्जों में डूबता जा रहा है।शिक्षा का बाज़ार, स्वास्थ्य का बाज़ार व मंनोरजन के ब़ाजार ने दुनिया को मायावी बना दिया है।डाक्टर, इंजीनियर, सी.ए,आदि बनने के लिए कोंचिग सेंटरों की बाढ़ आ गई है जहांं की फीसहर कोई नहीं चुका सकता।शरीर को चुस्त-दुरूस्त रखने के लिए दवा की दुकानों, डायग्नोस्टिक सेंटरों,डाक्टरों व दवा निर्माता कंपनियों का बहुत बडा बाजार फलफूल रहा है। जिसका  अंदाजा लगाया जाना मुश्किल है।मनोरंजन के नाम पर टी.वी व मुम्बईया फिल्मों ने एक तरह से आम आदमी की कोई निजी,स्वंतत्र सोच तो रही ही नहीं है वह वही करता है जो टी.वी. व बाजार तंत्र कहता है।शेयर बाजार के बारे में आम व्यक्ति भले ही बहुत कम या नहीं के बराबर जाने लेकिन ये बिनि कोई मेहनत मजदूरी किए देश की अर्थव्यवस्था को उलठ-पुलट कर सकते है।इस तरह के बाजार से अलग धर्म का गेरूआ बाजार की माया ही अलग है।मंदिरों, राजमहलों, बाबाओं, धर्मगुरुओं, बापूओं व ढोंगी साधुओं के पास बेशुमार धन दौलत भरी पडी है उनसे कोई सवाल नहीं करता है कि इतनी अकूत सम्पत्ति कहां से आई।ये ढोंगी धर्मगुरु सोने के सिंहासन पर बैठ कर सादगी का उपदेश देते हैं।धर्म का बाजार दिनों दिन फलता फूलता जा रहा है।जिन मंदिरों से दलितों को दूर रखा गया उन मंदिरों में अब अरबों-खबरों के खजाने सामने आ रहे हैं।कुल मिलाकर आज का युग व्यापार व बाजार का युग बन गया है नेकी व ईमानदारी का व्यापार कोई बुरा नहीं है लेकिन ज्यादातर लोग शोषण,झूठ,बेईमानी,मिलावट,कालाबाजारी, जमाखोरी आदि गलत तरीकों से बाजार में हावी है।

    ढोंगी साधू माया से दूर रहने का उपदेश देते हैं लेकिन खुद धन,वैभव से हर वक्त घिरे रहते हैं।संसार में पहला सुख निरोगी काया का है तथा दूसरा सुख घर में माया यानि धन का है। इसलिए घर परिवार में आवश्यक धन होना जरूरी है। मेहनत की कमाई से पूंजीपति होना कोई बुरा नहीं है।हमें पूंजी या पूंजीपति से नफरत नहीं करनी है बल्कि नेकी की कमाई से पूंजीपति बनकर खुद भी आर्थिक मजबूती प्राप्त करें तथा नेकी के कमाए पैसे से समाज का भला करें। सवाल यह है कि इस मजबूत बाजार तंत्र में दलितों की भागीदारी कितनी है।आज हर तरफ दुकान व बाजार की चकाचौंध नजर आती है।इस समय बाजारों में इतनी भीड होती है मानों चीजें मुफ्त में बंट रही है।गली की नुक्कड़ पर शाम को दो घंटे पानी की पतासी का ठेला लगाने वाले से ज्वैलरी शाप का मालिक रात को घर जाते समय अपनी हैसियत के अनुसार जेब भर कर ल जाता है।सारा बाजार प्रसन्न नजर आता है।कबाडे की दुकान वाला भी कमाता है और सब्जी की थडी वाला भी कमाता है।आज रिलायंस, बिग बाजार आदि के डिपार्टमेंटल स्टोर सब्जी से लेकर ज्वैलरी तक बेचने लग गए हैं।

    सवाल यह है कि इस सम्पूर्ण बाजार तंत्र में दलित, पिछड़ा व आदिवासी इस व्यापार तंत्र में सिर्फ ग्राहक बना हुआ है जो मानों कमाता ही इस बाजार के लिए है।सड़क,खेत व मकान पर काम करने वाले मजदूर से लेकर दलित, कर्मचारी/अधिकारी चाहे कितना ही सरकारी नौकरी से कमाएं उसका बहुत बडा भाग वह वणिक वर्ग द्वारा संचालित बाजार में ही खर्छ करता है।जन्म से मृत्यु तक एक आम दलित अपनी गाढ़ी कमाई का अंधिकाश भाग रीति रिवाज, धार्मिक कर्मकांड में खर्च करता है।जिसका सारा पैसा ब्राह्मण या वणिक वर्ग की जेब में जाता है।आज दिनों दिन विकसित हो रहे बाजार में हम कहीं नहीं है सिर्फ एक जगह हम नजर आते हैं।चकाचौंध भरे बाजार में कहीं-कहीं एक पेड के नीचे जूते गांठता हुआ मोची नजर आता है बस सिर्फ वही दलित समाज का प्रतिनिधि बन कर बाजार तंत्र का हिस्सा बना हुआ है। वरना सम्पूर्ण दलित समाज ग्राहक से ज्यादा कुछ नहीं है।दलित समाज का जो वर्ग पढ़ लिखकर गांव से शहर आया,पाश कालोनियों में भी बस गया लेकिन अगलु पीढ़ी के लिए कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं होने से व्यथित है।अब न सरकारी नौकरियां, न गांव में खेती-बाड़ी और न ही व्यापार।ऐसे में खुद शिक्षित दलितों के सामने भी विकट समस्या खडी हो रही है।जाति मालूम होने पर,प्राइवेट सेक्टर में हमें प्रवेश नहीं मिलता है।प्राइवेटाइजेशन व ग्लोबलाइजेशन के कारण होने के बावजूद हम अहसास है सिर्फ आरक्षण का झुनझुना लिए घूम रहे हैं। ब्राह्मण व वणिक वर्ग बाजार व प्राइवेट सेक्टर को मजबूत करता जा रहा है।साथ ही पिछले दरवाजे से साजिशपूर्ण सरकारी नौकरियां खत्म करता जा रहा है।वणिक वर्ग के बच्चे सी.ए.,सी.एस.मैनेजमेंट, होटल व्यापार, ज्वैलरी, रियल स्टेट, बिजनेस व ब्रिटेन की बातें करते हैं जबकि दलित वर्ग ग्राम सेवक,सिपाही, पटवारी, क्लर्क,टीचर बनने की कार्यवाही में उलझा हुआ है।ब्रिटेन तो दूर हम अभी तक गांव की रूढ़ियों व धार्मिक अंधविश्वासों व कर्मकांडों से भी मुक्त नहीं हो पाये हैं।जमाना इंग्लिश का है और हम आज भी हिन्दी व संस्कृत के गुणगान कर रहे हैं।वणिक वर्ग का बच्चा ग्रेजुएट होकर कमाई का साधन ढूंढता है जबकि दलित वर्ग के बच्चे डिग्रियां लेकर भी गांव में गुटके चबाते आवारा घूमते हैं।वणिक वर्ग लाखों करोड़ों कमा रहा है और हम लोग अभी तक राशन कार्ड बनाने में ही उलझे हुए हैं।आखिर हममें व्यापारिक सोच कब पैदा होगी?हम पांच लाख रूपए रिश्वत देकर चपरासी की नौकरी के लिए कोशिश करते हैंं लेकिन इतनी पूंजी से कोई छोटा बिजनेस करने की नहीं सोचते हैं।मुश्किलें तो आती हैं लेकिन व्यापार सफल होने पर आने वाली कई

    पीढियों का कल्याण हो जाता है जबकि सरकारी नौकरी में तो कलेक्टर के बेटे को भी पूरी मेहनत करनी पडती है  कलेक्टर का बेटा कलेक्टर नहीं कहलाता  जबकि व्यापारी का बेटा व्यापारी ही कहलाता है।बड़े व्यापार की छोड़ों फलों की दुकान वाला भी महीने की अच्छी रकम कमाता है।पानी के गोल गप्पें वाला या छोटा हेयर ड्रेसर भी खूब कमाता है फिर बड़े व्यापार की तो बात ही क्या।बस इसके लिए माहौल,सोच व फैसला लेने की हिम्मत की जरूरत है।याद करो,मारवाड़ी बनिये लोग एक जमाने में लोटा,अंगोछा व मन में कुछ करने की हिम्मत लेकर मारवाड़ से बाहर व्यापार के लिए निकले थे वे आज भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के व्यापार में छाए हुए हैं।वे राशन कार्ड की बजाय पेन कार्ड,बस की बजाए हवाई जहाज, हिन्दी की बजाए इंग्लिश में ज्यादा विश्वास रखते हैं।बाबा साहेब का सपना था कि दलित समाज पूंजीपति बने।सिर्फ नौकरी मांगने वाला नहीं बल्कि नौकरी देने वाला वर्ग भी दलित में पैदा हो.बाबा साहेब का ये सपना कब पूरा होगा...?


 


-डा.एम.एल.परिहार