भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी

 


 


 


 


 



            भारत के इतिहास में सबसे पहले हमारे संविधान-निर्माताओं ने महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीति में समानता का दर्जा दिलाया। यह मौलिक अधिकारों के रूप में संविधान में अंकित किया। संविधान प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अम्बेड़कर ने इन्हें संविधान की भूमिका में स्पष्ट लिख दिया था क्योंकि भारत में सभी नागरिक बिना किसी जाति, धर्म, वर्ग एवं लिंगभेद के समान होंगें। उन्होंने संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में भी उपर्युक्त, आदर्श उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए महिलाओं, बच्चों व पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान किये। इससे पूर्व 1948 में संसद में तत्कालीन प्रथम विधि मन्त्री के रूप में डॉ.अम्बेड़कर ने भारत की महिलाओं के हित में हिन्दू कोड बिल पेश किया था जिसे संसद में बहुमत का समर्थन नहीं मिलने से पास नहीं हुआ। यह बड़ा महत्त्वपूर्ण बिल था। डॉ.अम्बेड़कर के इस्तीफे के बाद संसद ने हिन्दू कोड बिल को पाँच छोटे-छोटे कानूनों के रूप में पारित किया।
            भारत की आज़ादी के बाद इस संदर्भ में बलवंतराय मेहता कमेटी ने 1957 में अपनी रिपोर्ट दी थी। पंचायती राज संस्थाओं व जिला परिषदों में कुछ स्थान महिलाओं के लिये आरक्षित किये परन्तु इन्हें समाज का पिछड़ा वर्ग होने से इन संस्थाओं में भी चुनकर नहीं आ पायीं। इसी कमेटी की रिपोर्ट के अंतर्गत किये गये प्रावधानों में ग्राम-पंचायतों व जिला-परिषदों में महिला व बच्चों के कार्यों में रूचि रखने वाली दो महिलाओं का सहवरण (कोप्शन) से लेना प्रारंभ किया था। सन 1992 में राज्य सरकार ने प्रथम बार एक-तिहाई पद महिला पंच व सरपंचों हेतु आरक्षण करने का राजस्थान पंचायत एक्ट में प्रावधान किया। जिसके अंतर्गत प्रत्येक पाँच वर्षों में चुनाव कराना अनिवार्य किया गया। अनुसूचित जाति व जनजाति के वर्गों में इनकी आबादी के अनुपात में पंच, सरपंच, प्रधान, प्रमुख व सदस्यों के पद आरक्षित किये गये। इसी कानून के तहत वर्ष 1995 में हुए प्रथम चुनावों के फलस्वरूप राजस्थान राज्य में 28 हजार महिला पंच, 79 महिला प्रधान व 12 सौ महिला सदस्य, 10 जिला प्रमुख तथा 200 महिला सदस्य चुनकर आयीं थीं। इस प्रकार कुल 32,500 महिलाएँ राजनीति में भागीदार बनी थीं। इस राजनीतिक भागीदारी का उद्देश्य उनकों राजनीतिक जागृति लाने, अपने अधिकारों के प्रति चेतना पैदा करने तथा घर-गृहस्थी के सीमित दायरे से बाहर निकालकर जनता के बीच लाना रहा। तब महिलाएँ खुली हवा में साँस लेने लगी थीं। उन्होंने अपने क्षेत्र व देश के कल्याण कार्यों में भागीदार बनने के लिये प्रथम कदम बढाया था।
            राजनीति के क्षेत्र में वर्तमान में राजस्थान की चौदहवीं विधानसभा के 200 सदस्यों में से केवल 28 महिलाएँ अर्थात् 14 % महिलाएँ ही विधायक चुनकर आयी हैं, जबकि 168 महिलाएँ विभिन्न दलों व निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनावी दंगल में उतरीं थीं। राज्य की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में तेरहवीं विधानसभा के निर्वाचन से ही अचानक उछाल आया है। जहाँ 1985 में 17 महिला विधायक चुनकर आयी थीं वहीँ 1996 में केवल 9 महिला विधायकों ने अपनी भागीदारी दर्ज करायी थी। इसके उलट 2008 में 29 महिलाएँ विधानसभा में चुनकर आयी थीं जो कि अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड रहा है। वर्तमान में राज्य की विधानसभा में अ.जा. की 12, जनजाति की 3 तथा सामान्य जातियों की 13 कुल 28 महिलाएँ निर्वाचित हुयी हैं। आश्चर्य की बात यह है कि राज्य की आधी आबादी में से मात्र 14 % महिलाओं ने विधानसभा में दस्तक दी है जो कि बहुत कम है। दिलचस्प बात यह है कि चुनाव में खड़ी हुयी  
168 महिलाओं में से 27 विभिन्न राजनीतिक दलों से एवं मात्र एक निर्दलीय महिला विजयी हुयी हैं। इन तथ्यों से यह बात तो स्पष्ट साबित होती है कि महिलाओं की राजनीति में रूचि बढ़ती जा रही है और इससे राज्य की महिलाओं में आशातीत जागरूकता पैदा हुयी है। महिलाओं के निर्वाचन इतिहास पर प्रकाश डालें तो प्रथम निर्वाचन 1952 से लगाय चौदहवीं विधानसभा निर्वाचन 2013 तक कुल 118 महिलाएँ निर्वाचित हुयी हैं। जिनमें से गत एवं वर्तमान विधानसभा की क्रमश: 29 व 28 कुल 57 निर्वाचित विधायक महिलाएँ भी शामिल हैं। चौदहवीं विधानसभा में सर्वाधिक मतों से विजयी रहने वाली महिला श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया (मुख्यमंत्री) रही हैं जिनको 1,14,384 मत प्राप्त हुए। जबकि सबसे कम, 33052 प्राप्त मतों से विजयी रहने वाली श्रीमती सुशील कँवर (मसूदा) रही हैं। इसी प्रकार सबसे कम, 640 वोटों के अंतर से निर्वाचित विधायक श्रीमती अनीता कटारा (सागवाड़ा) से हैं।
            इस विषय पर संसद के सन्दर्भ में आकलन करें तो पता चलता है कि वर्तमान संसद सोलहवीं लोकसभा सन 2014 में राजस्थान से निर्वाचित 25 सांसदों में से केवल मात्र एक महिला सांसद श्रीमती संतोष अहलावत झुंझुनूं से भारतीय जनता पार्टी से चुनकर पहुँची हैं जो कि बड़ी सोचनीय स्थिति है। राज्य की कुल जनसँख्या की आधी महिला आबादी में से केवल चार फीसदी का राजनीति में चुनकर आना अत्यन्त निराशाजनक स्थिति का द्योतक है।
            पिछले दो दशक से देश के सभी राजनीतिक दलों, प्रमुख महिला संगठनों, राष्ट्रीय महिला आयोग तथा अन्य मानवतावादी संगठनों की यह माँग रही है कि राजनीति में महिलाओं को 33 % आरक्षण दिया जाए। निवर्तमान काँग्रेस दल की केन्द्रीय सरकार ने महिलाओं को आरक्षण देने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी परन्तु संसद की बैठक में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं हो सका। किन्तु आशा की जाती है कि संसद के आने वाले सत्रों में यह विधेयक पारित हो जायेगा। यदि ऐसा हो जाता है तो देश की नारी शक्ति की राजनीति में भागीदारी का यह विधेयक मील का पत्थर साबित होगा। वर्तमान सरकार की उपलब्धि भारत के इतिहास में महिला कल्याण के क्षेत्र में स्वर्णिम अक्षरों में लिखी जायेगी। महिलाओं की भारतीय राजनीति में बढ़ती भागीदारी से पुरुषों का एकाधिकार टूटेगा और इससे अपराधों में कमी आने के साथ-साथ देश उन्नति के रास्ते पर बढ़ेगा। आगे आने वाले समय में निश्चित रूप से महिलाओं का भविष्य उज्जवल होगा।


      -एड.यादराम सिहं यादव
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