त्योहारी वातावरण में लगभग सारा भारत वर्षभर नहाया रहता है। सुदूर पूर्वांचल से गुजरात तक, जम्मू से कन्याकुमारी तक। सब तरफ धार्मिक होने की होड़ लगी हुई है। कौन दूसरों से अधिक धार्मिक है, इसे सिद्ध करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। एक प्रकार की प्रतियोगिता लगी हुई है ज्यादा से ज्यादा धार्मिक दिखने की। सबसे अधिक प्रतियोगिता का माहौल नारी जगत में है। सास-बहुओं में प्रतियोगिता है, ननद-भौजाईयों में प्रतियोगिता है, देवरानी-जिठानियों में प्रतियोगिता है। कभी पूजा के थाल सजाने की प्रतियोगिता है कि कौन अधिकतम अटरम-सटरम एक ही थाल में सजा सकती है। कोई पूजा से सम्बन्धित अपने ज्ञान का बखान करने में अधिक बढ़त बनाए हुए है। कोई और कुछ नहीं तो अपने पूजा से सम्बधित अधिक से अधिक साड़ियो व पौशाकों के ‘‘कलैक्शन’’ को दिखाने में अपनी शान बघार रही है। कोई सवेरे सबसे पहले उठकर नहाने में (और बाद में जुकाम लगाकर पति को चिकित्सको की परेड कराने में) अपनी बढ़त बनाए हुए है। कुछ शूद्र वर्ग की नारियाँ अपनी तथाकथित ‘उच्च वर्ग’ की (पाखण्डी और मज़बूर) मित्र नारियों से प्राप्त ज्ञानकोष को अपनी ‘‘धर्म के ढकोसलों’’ में कम समझदार बहिनों में वितरित कर गौरवान्वित महसूस कर रही हैं। कुछ सज सँवर कर मुँह-अँधेरे सबसे दूर-दराज के मन्दिर में पूजा-पाखण्ड करके आने को ही अपनी शान समझकर दिन भर उसका बखान करती घूमती हैं।
और तो और, सारी नारियाँ ‘‘पतिव्रता’’ हों न हों त्योहारी सीज़न में ‘‘अतिव्रता’’ अवश्य हो गई हैं। परस्पर रिस्तेदार महिलाओं में तो ‘‘व्रत’’ करने की होड़ लगी हुई है। चतुर्थी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, एकादशी, पूर्णिमा व अमावस्या तो हैं ही, इसके अलावा भी ‘‘सीज़नल’’ व्रत हैं जैसे सावन के सभी सोमवार, नवरात्रा के नौ व्रत और न जाने क्या-क्या। चाहे बेटियों को गर्भ में ही मरवाने की हिम्मत कर सकती हों लेकिन सभी पुरुष पात्रों की लम्बी उम्र के लिए व्रत अवश्य रखती हैं। कुछ पतियों की लम्बी उम्र के लिए, कुछ बेटों की लम्बी उम्र के लिए, कुछ भाइयों की लम्बी उम्र के लिए परन्तु कभी स्वयं की या अपनी बेटी, बहु या देवरानी-जिठानी की लम्बी उम्र के लिए नहीं। इनके ऊपर आफतें आएँ तो आएँ। इनकी अस्मतें लुटें तो लुटें। इनकी दहेज के लोभियों द्वारा हत्याएँ की जाएँ तो की जाएँ। वैसे भी अकेला पुरुष चाहे तो भी बिना नारी की सहायता के अन्य नारी पर कोई जुल्म नहीं कर सकता। इस पर नारी जाति को थोड़ा अन्तर्मन्थन करने की आवश्यकता है। ‘‘नारी ही नारी की शत्रु है’’, इस विषय पर हजारों पृष्ठ लिखे जा सकते हैं, लेकिन हमारा विषय यहाँ पर यह नहीं है।
कहीं आपको ऐसा तो नहीं लग रहा कि हम यहाँ पर आपकी तथाकथित ‘‘श्रद्धा’’ पर व्यंग्य कर रहे हैं? यदि आपको ऐसा लगता है तो सही लगता है। क्योंकि यदि आपकी श्रद्धा जीवित, वास्तविक और प्रत्यक्ष लोगों में है तो आपको मोक्ष प्राप्त हो चुका है और यदि काल्पनिक परियों की कथानुमा देवी देवताओं में है तो यह एक अज्ञानता है श्रद्धा कदापि नहीं है। ‘‘श्रद्धा’’ और ‘‘पाखण्ड’’ में कितना झीना-सा अन्तर है यह आप स्वयं अपने अन्तर्मन में झाँककर फैसला कर सकते हैं। प्रश्न जिस पर हमें मन्थन करना चाहिए वह है- ‘‘क्या हमें ‘‘दिखावे’’, ‘‘पाखण्ड’’ ‘‘अज्ञानता’’, ‘‘देखा-देखी’’, ‘‘बेकार की शेखी’’ या ‘‘श्रद्धा’’ में अन्तर स्पष्टतया पता है?’’ यदि नहींं तो आईए भारत में त्योहारी पाखण्ड की एक और तश्वीर देखते हैं।
आज कल आप देख सकते हैं कि बाजार सामान से अटे पड़े हैं। व्यापारी आपकी श्रद्धा (या यूँ कहें अन्धश्रद्धा) का खूब फायदा उठा-उठाकर चाँदी काट रहे है। इनका बखूबी साथ निभाते हैं अखबार व टी. वी., जो विज्ञापनों के अतिरिक्त पाखण्ड के विवरण के लिए भी खूब समय और स्थान देते हैं। ये आपकी मानसिक मलीनता के डर का खूब लाभ उठाते हैं। आपको डराया या लालच दिया जाता है कि आपका व्यापार कैसे अधिक चल सकता है, आप अपने प्रतिद्वन्दी पर कैसे बिना परिश्रम के मुफ्त में विजय पा सकते हैं या बढत बना सकते हैं (क्योंकि मेहनत का रास्ता कठिन व लम्बा होता है!) या आपको सफलता या प्यार कैसे यूँ ही बिना ‘‘टेलैण्ट’’ के मिल सकता है! मानव की प्राकृतिक लालची मानसिकता का फायदा उठाने का धन्धा करने वालों का इस देश में अच्छा दबदबा है। कोई कण्ठी-माला बेच रहा है, कोई अँगूठी-ताबीज बेच रहा है। मेहनत से दूर भागने वालों की यहाँ कोई कमी नहीं है इसी लिए इन पाखण्ड के दलालों के ग्राहकों की भी कोई कमी नहीं है। पाखण्ड की बारिस हो रही है, हर तरफ पाखण्ड ही पाखण्ड। इस सारे खेल में चाँदी है बनियों की और ब्राह्मणों की। और इनके शिकार हैं आप, जो इन ढकोसलों की निरर्थकता को न जाने कब समझेंगें?
कल्पना कीजिए, यदि आप समस्त धार्मिक दिखावे और पाखण्ड को छोड़ दें और केवल शुद्ध आत्मिक श्रद्धा में विश्वास करें तो आपकी आर्थिक स्थिति व मानसिक शान्ति में जादुई सुधार आएगा। क्योंकि आप हवन, यज्ञ, मुहुर्त, ढेर-सारे देवी-देवताओं की तश्वीरों, पूजा व कर्मकाण्डों, पाखण्डी ब्राह्मणों की दक्षिणा इत्यादि के व्यर्थ के खर्चों से मुक्ति पा जाएँगें। आँख बन्द करके अपने ईष्ट या श्रद्धेय या गुरुजनों का ध्यान करना भी श्रद्धा है और ढोल नहाड़े बजा-बजाकर, हजारों लाखों रुपयों की होली जलाकर पाखण्डी तमाशा करना, पाण्डालों व कनातों के निर्माण में दूसरों से प्रतियोगिता करना भी श्रद्धा है। लेकिन यह बाजारी श्रद्धा है। पहले वाली तो हमारी श्रद्धा है, अब आप फैसला कीजिए आपकी श्रद्धा कौनसी है?
-सीताराम स्वरूप
फोटों गुगल से साभार