आखिर दलित कैसे रहें गाँवों में...?      

              
   भारतीय समाज और खासकर हिन्दू समाज की सामाजिक संरचना इतनी जटिल है कि अचानक कोई भी निर्णय ले पाना लगभग असंभव है। लेकिन इतना तो तय है कि आज भी छुआछूत और भेदभाव लोगों के दिलो दिमाग से मिटे नहीं हैं। जहाँ दलितों ने थोड़ा भी विरोध करना सीखा है या बराबरी में खड़़े होना शुरु हुए हैं, दबंगों द्वारा निर्दयता से कुचल दिये जाते हैं।
   दलित उत्पीड़न की अधिकतर घटनायें गाँवों में होती हैं। इनके पीछे निम्न कारण हो सकते हैंः-
1. जागरुकता का न होना,
2. सामाजिक  कानूनों/परम्पराओं के चलते पुलिस प्रषासन का भय नहीं होना,
3. दलितों का संख्या में कम तथा असंगठित होना, 
4. दलितों का सामाजिक,आर्थिक, राजनैतिक, सब तरह से कमजोर होना,
5. इनमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार समुचित रुप से आज भी नहीं होना,
6. इनमें सरकारी अधिकारी-कर्मचारी दबंगों की अपेक्षा कम होते हैं और सहयोग की भावना भी इबंगों की अपेक्षा कम ही पाई जाती है।
7. शासन- प्रशासन में दलितों की सुनवाई आज भी कम होती है। अव्वल तो इनको थाने के दरवाजे से ही भगा दिया जाता है, मजबूरन मुकद्दमें दर्ज़ भी होते हैं तो कार्रवाही कम ही होती है।
8. अन्य स्थानीय कारण।
       सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने पर दलितों का सामूहिक रूप से गाँवो से बहिष्कार कर दिया जाता है, उनको गाँव से आटा, नमक, तेल, आदि और यहां तक कि पीने का पानी भी नहीं लेने दिया जाता है। इन्हें गाँव छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया जाता है। फलतः इनके घर, जमीन-जायदाद, पशु, खेती, पढ़ाई-लिखाई आदि बरबाद हो जाते हैं और ये गरीब से और अधिक गरीब हो जाते हैं।    
   शहरों में इस प्रकार की घटनायें कम होती हैं, क्योंकि यहां गाँवों की तुलना में कुछ जागरुकता होती है तथा कानून व्यवस्था को मजबूरन काम करना ही पड़ता है।
    राजस्थान ऐसे राज्यों में शामिल है, जहां दलित उत्पीड़न अन्य राज्यों की तुलना में अधिक होता है और विचित्र बात यह है कि उत्पीड़न करने में मात्र कुछ मामलों में ब्राह्मण, राजपूत अथवा बनिया सीधे तौर पर शामिल होते हैं, बाकी अधिकतर मामलों में दरोगा, कुम्हार, जाट, अहीर, नाई, तेली, धाकड़ आदि शामिल रहते हैं जो स्वयं वर्ण व्यवस्था में चौथे पायदान पर, अर्थात् शूद्र हैं। इनके अलावा मीणा तथा गूर्जर और हैं जो पूर्वी राजस्थान में दलित अत्याचार के पर्याय हैं और क्रमशः स्वयं अनुसूचित जनजाति में शामिल हैं और इसमें शामिल होने के लिये आंदोलन कर रहे हैं।
   बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने अन्य पिछड़ा वर्ग को सामाजिक पुलिस कहा था जो मनुस्मृति और ब्राह्मणों के बनाये सामाजिक नियम-कानूनों को समाज पर लागू कराने का काम करते हैं। जहां कही भी इनका उल्लंघन होता है, यथा दलितों का घोड़ी पर चढ़ना, सामान्य वर्ग की बराबरी की कोशिश करना, अच्छा खाना, अच्छा पहनना, शानों-शौकत से रहना, इनकी हाँ में हाँ नहीं मिलाना, सामाजिक कानून-कायदे नहीं मानना, तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों को आगे होकर अभिवादन नहीं करना, कहीं कोई रावळा हो तो उसके आगे से चप्पल-जूते खोलकर नहीं जाना, सामान्य वर्ग के लोगों से ऊँची आवाज में बात करना आदि, तो सबसे पहले दलितों पर ये ही कहर बरपाते हैं। दलित इनके आक्रमणों का समुचित रूप से उत्तर नहीं दे पाते हैं।
   घटनाक्रम मेघवाल समाज और जाट समाज के लोगों के बीच झगड़े का है। घटना डांगावास, तहसील मेड़ता, जिला नागौर राजस्थान की है। यहाँ रतनाराम, गुटाराम, खेमाराम मेघवाल का चिमनाराम जाट से लम्बे समय से खेत को लेकर विवाद चल रहा है। मामला कोर्ट में भी विचाराधीन है। गुरूवार 14 मई 2015 को सुबह दोनों पक्षों में समझाइष के लिये ग्रामीणों ने सभा बुलाई। इसमें चिमनाराम जाट का पक्ष तो पहुंच गया, लेकिन रतनाराम गुट नहीं आया। इस पर ग्रामीणों ने रामपाल (30) और रामदेव खदाव (40) को रतनाराम के घर भेजा। रामपाल और रामदेव के वहां पहुंचते ही आरोपियों ने अन्धाधुन्ध गोलियां बरसानी शुरु कर दी। रामपाल की मौके पर ही मौत हो गई, वहीं घायल रामदेव ने मोबाईल से ग्रामीणों को जानकारी दी। इसके बाद वे हथियारबंद होकर आरोपियों के घर पहुंच गये।
   ग्रामीणों ने पहले ट्रेक्टरों से आरोपियों के घर को तोड़ा। मकान गिरते ही आरोपी भागने लगे। ग्रामीणों ने उन्हें घेरा तो दोनों पक्षों में कुल्हाड़ी-लाठियों और फरसे से मारकाट शुरु हो गई। ग्रामीणों के डर से रतनाराम मेघवाल (65) पोकाराम (45) और पाँचाराम (60) खेत में भाग गये तो ग्रामीणों ने पीछे ट्रेक्टर दौड़ा उन्हें रौंद डाला। रतनाराम और पोकाराम की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि घायल पाँचाराम ने बाद में अस्पताल में दम तोड़ दिया। ग्रामीणों ने आरोपियों की ट्रेक्टर-ट्रॉली और 3 बाइक भी जला दी। ग्रामीणों के हमले में 14 लोग घायल हो गये। (जैसा कि दैनिक भास्कर भीलवाड़ा दिनांक 15/5/2015 में पृष्ठ 1 पर छपा)।
        अव्वल तो जाट बाहुल्य क्षेत्रों में दलित मेघवाल चाहे जितने ही हिम्मतवाले क्यों न हों, किसी पर अन्धाधुन्ध फायरिंग कर ही नहीं सकते। इस बात की पुष्टि अजमेर के अस्पताल में भर्ती घायल खेमाराम के बयान से भी होती है, जो अगले ही दिन 16 मई को इसी अखबार में छपा था,’’23 बीघा जमीन के विवाद में आरोपियों ने उन्हें पंचायत में बुलाया था। उसके परिवार के लोग पंचायत में थे, बातचीत के दौरान आरोपियों ने उनके एक सदस्य अर्जुन के सिर पर लाठी से वार कर दिया था, सामने आरोपियों के साथी बन्दूक लेकर बैठे थे, हमले के बाद अचेत अर्जुन बंदूकधारी आरोपी पर गिर गया था। उसी अफरा-तफरी में बन्दूक का ट्रिगर दबा और गोली रामपाल के लग गई, जिससे उसकी मौत हो गई थी। इसके बाद ग्रामीणों ने उसे और उसके परिजनों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा।’’
   इस घटना से कई सवाल खड़े होते हैं। पहला तो यही कि जब मामला कोर्ट में विचाराधीन है तो पंचायत को यह अधिकार किसने दिया कि वह दोनों पक्षों को बुलाये ? ऐसे में अगर पंचायत कोई फैसला थोप देती तो क्या यह अदालत का अपमान नहीं होता? दूसरा सवाल, पंचायत में हथियारबंध व्यक्ति को अनुमत किया जाना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? तीसरा सवाल, रार, तकरार होने पर भी सारा गाँव एक तरफ ही कैसे हो गया और दलितों को दौड़ा-दौड़ा कर उनकी जान ले ली गई?
  सम्पूर्ण घटनाक्रम जाट समुदाय द्वारा मेघवाल समुदाय के खिलाफ सोची-समझी साजिश प्रतीत होती है। निश्चित रुप में जमीन का झगड़ा रहा होगा और दशकों से चला आ रहा होगा। मेघवाल समाज के लोग अपना हक छोड़ नहीं रहे होंगे जिससे जाटों को अपनी तथाकथित जातीय श्रेष्ठता पर शर्मिंदगी हुई होगी जिसके चलते पंचायत के नाम पर उनको बुलाकर सबक सिखाया गया। आगे, सरकार कोई भी हो, जाट समाज के मंत्री, विधायक, नेता आदि सदैव सक्रिय रहते हैं जो कि ऐसे अराजक तत्वों को शरण देते हैं। ये दलितों के नेताओं की तरह नहीं होते, जो अपनों को पहचानने से भी इन्कार कर दे। पूर्व में कांग्रेस सरकार में भँवरी देवी हत्याकाण्ड के समय भी अपराधी महिपाल मदेरणा और मलखान ही थे, जिनका किस प्रकार बचाव किया गया, यह किसी से छिपा नहीं है। इस प्रकरण में एसडीएम, पुलिस, पटवारी, तहसीलदार आदि सब दोषी पाये गये हैं, क्योंकि दलितों ने सब जगह अपनी रक्षा की गुहार की, लेकिन सब जगह जाटों का दबदबा होने के कारण सुरक्षा नहीं मिली। अपनी जमीन का नामान्तरण अपने नाम होने के बावजूद अपना कब्जा नहीं होने की शिकायतें की, परन्तु सात साल से मुकदमा चलते रहने के बावजूद इनको कोई न्याय नहीं मिला। अपनी रक्षा की गुहार थाने में की, लेकिन कोई सुरक्षा नहीं मिली। तहसीलदार-पटवारी ने ’’जमीन का वास्तविक मालिक कौन है ?’’ यह मालूम होने के बावजूद मामले को सुलझाया नहीं। 
    अब घटना के कई दिनों बाद भले ही कुछ आरोपी गिरफ्तार हो गये हों, समय के साथ उन पर कानूनी कार्रवाही भी हो सकती है, लेकिन अन्ततः इस प्रकार की घटनाओं के बाद यह सवाल सदैव रह जाता है कि आखिर इस देश से जातिवाद कब मिटेगा ? कब दलित भी एक गाँव में सवर्णों के समान ही इज्जत और शान के साथ रह सकेंगे ? कब दलितों का छोटी-छोटी और नाजायज बातों पर हुक्का पानी बंद करना रुकेगा ?
    मेरे विचार से दलितों को अपनी अस्मिता बचाने के लिये स्वयं ही आगे आना होगा। सबसे पहले तो उनको स्वयं को यह अहसास करना होगा कि हम भी दूसरे इंसानों की भांति ही इंसान हैं, हमारी इज्जत भी गाँव के किसी ठाकुर, पण्डित अथवा चौधरी से कम नहीं हैं। आपस में एक दूसरे को सम्मान देना होगा, और सबसे बड़़ी बात, इन सबके लिये शिक्षित होना होगा और संगठित होकर इस प्रकार के अमानवीय और अराजक तत्वों के खिलाफ संघर्ष करना होगा। तभी दृश्य कुछ बदल सकता है। 


-श्याम सुन्दर बैरवा



फोटो गूगल से साभार