केवल कुछ देर के लिए कल्पना कीजिए, यदि आज बाबा साहब हमारे बीच में होते तो आज के भारत में उनकी क्या भूमिका होती? वे किन लोगों के चहेते होते और कौन हैं वे लोग जिन्हें वे फूटी आँख नहीं सुहाते? उनकी कौनसी संस्थाएँ आज सक्रिय होती किन संस्थाओं से वे किनारा कर चुके होते? आज स्वतंत्रता के 70 वर्ष पश्चात कौनसे वे विषय हैं जिनके सफल क्रियान्वयन के लिए उनकी दक्षता की आवश्यकता देश को पड़ती? क्या अब तक वे एक अलग राष्ट्र की संरचना कर चुके होते या इसी राष्ट्र में ऐसे आमूल-चूल परिवर्तन करवा चुके होते कि समस्त राष्ट्र के निवासियों को समानता के स्तर तक पहुँचा चुके होते? क्या अपने कुछ निर्णयों को वे अब तक परिवर्तित करवा चुके होते या फिर कुछ नए निर्णय लागू करवा चुके होते?
ये समस्त परिकल्पनाएँ निराधार नहीं हैं बल्कि इन परिकल्पनाओं का दामन थाम कर आज के अम्बेडकरवादी एक ऐसी रूपरेखा बना सकते हैं जिसके माध्यम से इस देश के अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों का स्तर इतना उठ सकता है कि उन्हें अगड़े समाज के साथ लाकर खड़ा किया जा सके। यहाँ कुछ एैसी ही स्थितियाँ वर्णित हैं।
यदि पूना समझौता परिवर्तित हो जाए तो-इस बात में कोई शक नहीं कि आज राजनीतिक आरक्षण की जो दुर्गति हो रही है वैसी किसी अन्य चुनावी प्रक्रिया के पहलू की नहीं है। चुनावों में दिया जाने वाला अनुसूचित जाति/जनजाति का आरक्षण लगभग मजा़क बन कर रह गया है। इसका मुख्य कारण है कि सच्चे प्रतिनिधियों की बजाए ‘‘डमी’’ पिछलग्गूओं की फौज का संसद में पहुँचना और जो उनसे अपेक्षाएँ हैं उन पर बिल्कुल ही ध्यान ना देना। यदि आज हमारे बीच अम्बेडकर होते तो वे अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिए दोहरे मताधिकार के कानून को लागू करवाते जिससे अनुसूचित जाति/जनजाति क्षेत्रों में ना केवल सवर्ण वर्ग का उम्मीदवार जीतता बल्कि अनुसूचित जाति/जनजाति का उम्मीदवार भी जीतता। ऐसी स्थिति में सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और अनुसूचित जाति/जनजातियो को नाराज करने की हिम्मत नहीं करते। इससे हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बनकर उभरता और अनुसूचित जाति/जनजातियों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता। लेकिन, चूँकि महात्मा गाँधी ने इसे लागू होने नहीं दिया अतः अब अम्बेडकर इसे लागू अवश्य करवाते।
यदि सभी को अनिवार्य शिक्षा लागू हो जाए तो- आज हम सब देखते हैं कि भारत में सरकारी शिक्षा की क्या स्थिति है। निजी विद्यालयों की छाया में सभी सरकारी श्क्षि संस्थान दम तोड़ रहे हैं। निजी विद्यालयों के दबाव में राज्य सरकारें सरकारी विद्यालयों को या तो समानीकरण या विद्यार्थियों की कमी की दुहाई देते हुए उन्हें बन्द कर रही हैं। इस कारण निजी विद्यालयों की पौ-बारह है और निर्धन परिवारों (अधिकांश अनुसूचित जाति/जनजाति के विद्यार्थी) के बच्चे विद्यालय छोड़ रहे हैं। इसी कारण अनुसूचित जाति/जनजाति के लागों में से केवल मेहनत-मज़दूरी करने वाले श्रमिक ही निकलेंगें और यही सरकारों की मंशा है। यदि आज अम्बेडकर होते तो वे कम से स्नातक स्तर तक तो शिक्षा को सभी के लिए अनिवार्य करवाते तथा सारा व्यय सरकार वहन करती। ‘‘शिक्षा के अधिकार’’ अधिनियम की कैसे धज्जियाँ उड़ रही हैं हम सब जानते हैं। इसी लिए बाबा साहब सारा व्यय (रहना, खाना, और समस्त प्रकार के शुल्क) सरकारी धन से आपूर्ति का प्रावधान करवाते। जिससे अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्र-छात्राएँ बिना कल की चिन्ता के कम से स्नातक तो बनकर निकलते ही तथा यह बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की समस्या का सही समाधान होता।
आरक्षण व्यवस्था के लिए समय-सीमा नहीं बल्कि परिणाम निर्णायक-आज अधिकतर सवर्ण लोगों की अवधारणा है कि स्वतंत्रता को 72वर्ष बीतने के बाद तो आरक्षण बन्द होना ही चाहिए क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति के पर्याप्त लोग इसका लाभ उठा चुके हैं। लेकिन वास्तविकताओं से आप और हम सब वाक़िफ़ है कि अनुसूचित जाति/जनजाति का आरक्षण से कितना भला हुआ है! यदि आज बाबा साहब होते तो वे आरक्षण को किसी भी समय-सीमा में बँधने नहीं देते बल्कि उनका मत होता कि आरक्षण परिणाम आधारित होना चाहिए ना कि समय-सीमा पर आधारित क्योंकि आप ने किसी को कोई भी सुविधा संविधान में तो घोषित कर दी लेकिन उसके लागू करने में जगह-जगह पर रोड़े अटका दिए तो उस सुविधा का पूरा लाभ किसी भी समयावधि में मिलना मुश्किल है। अतः बाबा साहब देखते कि आरक्षण व्यवस्था के परिणाम जब तक सकारात्मक नहीं आ जाते इसे किसी भी समयावधि में बाँधे बिना ही जारी रखना होगा। जैसे ही इसकी मूलभूत परिकल्पना- ‘‘तुल्यता’’ प्राप्त हो जाएगी, आरक्षण से लाभान्वित स्वयं ही इससे मुँह मोड़ना आरम्भ कर देंगे।
महिला आरक्षण -बाबा साहब का महिलाओं के प्रति तुल्यता स्थापित करने का विचार इसी घटना से पता लगता है कि उन्होंने इस्लाम धर्म नहीं अपनाने के लिए दिए गए कारणों में से एक मुख्य कारण यह भी दिया था कि जिस धर्म में महिला और पुरुष में तुल्यता नहीं हो उस धर्म को वे नहीं अपना सकते। अतः यदि आज की महिलाओं की स्थिति को वे देखते या अपने जीवनकाल में ही उन्हें ये भान हो जाता कि देश में लोग स्त्री को जन्म से पहले ही मारना आरम्भ कर देंगे तो हो सकता है वे अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण के बजाय पहले महिला आरक्षण की वकालत करते। और यदि आज भी हमारे बीच होते तो वे महिला आरक्षण को लागू करने का प्रयास करते और जैसा उसे होना चाहिए, अनुसूचित जाति/जनजाति की महिलाओं का विशेष ध्यान रखते हुए, उसी रूप में लागू करवाते।
अनुसूचित जातियों के लिए पृथक संस्थाएँ/व्यवस्थाएँ -बाबा साहेब ने शायद आज की स्थितियों के बारे में इतनी गहराई से कल्पना नहीं की होगी कि अनुसूचित जाति/जनजाति के विरुद्ध संस्थाओं में, शिक्षा संस्थानों में, विश्वविद्यालयों में, चिकित्सालयों में, पुलिस थानों में और यहाँ तक कि न्यायालयों में भी इस हद तक भेदभाव बढ़ जाएगा कि उन्हें कहीं भी न्याय प्राप्त करने के लिए अत्यधिक पापड़ बेलने पड़ेंगे तो वे मुस्लिम संस्थानों की भाँति संविधान में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए भी पृथक से संस्थाओं का, शिक्षा संस्थानों का, विश्वविद्यालयों का, चिकित्सालयों का, पुलिस थानों का और यहाँ तक कि न्यायालयों का भी प्रावधान करते। यदि इस तरह के संस्थान अनुसूचित जाति/जनजाति के पृथक से होते तो इन वर्गों को जीने में कितना आसानी होती। इनका शोषण किस हद तक रुक जाता इसकी परिकल्पना भी नहीं की जा सकती।
ये मात्र कल्पना हो सकती है लेकिन आज के प्रबुद्ध राजनीतिज्ञों को ऐसी ही कोई ‘‘ब्लू-प्रिन्ट’’ लेकर आगे बढ़ना चाहिए। यदि केवल बाबा साहब का नाम ही भुनाना है तो, ये काम तो सभी कर रहे हैं! यहाँ तक कि उनके धुर-विरोधियों के प्रहरी भी यही काम कर रहे हैं! फिर बाबा साहब को हमारे राजनीतिज्ञों से क्या अपेक्षाएँ हैं? क्यों ‘‘सोशियल मीडिया’’ पर या निजी कार्यक्रमों में मूलनिवासियों की भर्त्सना का शिकार हो रहे हैं हमारे राजनीतिज्ञ?
अतः हमें वास्तव में वही कदम उठाने की आवश्यकता है जो यदि आज बाबा साहब हमारे बीच मौजूद होते तो उठाते! समस्याएँ बहुत हैं लेकिन कोई भी समस्या बिना हल के अस्तित्त्व में नहीं आती है, आवश्यकता है बस उनको सुलझाने के लिए सही छोर पकड ़कर आगे बढ़ने की। बाबा साहब अब हमारी समस्याएँ सुलझाने के लिए आ नहीं सकते हैं तो क्यों ना हम सभी बाबा साहब बन जाएँ और समस्याओं पर टूट पड़ें। मनुष्य की समस्या मनुष्य से बड़ी तो हो नहीं सकती! बाबा साहब के दिखाए हुए रास्ते हमारे पास हैं, आवश्यकता है उन पर चलते जाने की।