आज के युग में मेहतर समाज की दयनीय स्थिति के बारे में चाहे जो कहा जाये, परन्तु क्या कभी इस बात पर विचार हुआ है कि अपनी इस बुरी हालत से उबरने और ऊपर उठने के लिये स्वयं यह समाज क्या कर रहा है ? बिना त्याग और बलिदान के आज तक किसी भी समाज की अच्छी स्थिति न आई है और न आयेगी। अब इनके धन्धे को जाति से दूर करना अनिवार्य हो गया है। इस समाज के युवाओं का लक्ष्य पढ़-लिखकर उच्च अधिकारी अथवा व्यवसायी बनना होना चाहिये, न कि सफाई-कर्मचारी बनना, तभी यह समाज मुख्यधारा में जुड़कर वह सम्मान पायेगा, जिसका हकदार होने का यह दावा करता है।
सर्व प्रथम तो मैं स्वच्छता के पेशें अर्थात् सफाई के धन्धे को धन्धा ही नहीं मानता हूँ। यह मेरी नज़र में एक प्रकार का सामाजिक दण्ड है जो एक विजेता कौम हारी हुई कौम पर लादती है। कालान्तर में यही दण्ड हारी हुई कौम की आदत बन गया, फिर मजबूरी और बाद में धन्धे के रूप में सामने आया, और आज तो हालात यह हो गये हैं कि स्वच्छकार समाज, जो भारत भर में भंगी, चूड़ा, मेहतर, ओलगाना, रूखी, मलकाना, हलालखोर, लालबेगी, बाल्मिकी, वाल्मिकी, कोरार, और झाड़माली आदि नामों से जाना जाता है, वह स्वयं कई स्थानों पर इस ’’धन्धे’’ को छोड़ना नहीं चाहता है। यह अत्यन्त आश्चर्य और दुःख की बात है कि अनुसूचित जाति में ही जिस प्रकार अन्य जातियों की आँखें खुलती गयी, तरक्की की हवा उन तक पहुचीं, उन्होने अपनी जाति से जुड़े हुए घृणित धन्धे छोड़ने शुरू कर दिये, यथा चमड़ा उधेड़ना, जूतियां बनाना, शिकार करना, बैगारी करना, बाजे बजाना और इसी प्रकार के अन्य धन्धे। निश्चित रूप से आज भी जातिगत काम-धन्धे होते हैं, परन्तु वे स्वेच्छा से अधिक हो रहे हैं, दबाव अथवा डरा-धमका कर कोई यह काम धन्धे नहीं करवा रहा है। मेरे सामने आज तक इस प्रकार का कोई उदाहरण नही आया है कि अमुक-अमुक स्थान पर इस समाज के लोगों ने सामूहिक रूप से या अकेले इस धन्धे को हमेषा के लिये लात मार दी हो। इस समाज के भी जो लोग पढ़-लिख गये और अन्य काम-धन्धों में या नौकरी करने लग गये हैं, उनकी बात अलग है। उनका काम-धन्धा तो अपने आप ही छूट गया है।
हाल ही में एक मैगजीन में डॉक्टर सुरेखा पुरूषार्थी का लेख ’स्वच्छता अभियानः पहले मानसिक सफाई जरूरी’ पढ़ा। आपने लिखा है कि
’’ ..... बल्कि इनके दिन की शुरुआत होती है किसी के घर का पाखाना साफ करते हुए, सरकारी पाखानों को साफ करते हुए, सीवर में घुली हुई जहरीली गैसों से लड़ते हुए या उस अपमानजनक व्यवहार को झेलते हुए जिसे ये लोग सदियें से झेलते हुए आ रहे हैं और आज भी झेल रहे हैं।..........यानि एक सफाई कर्मचारी जो एक इंसान है, उसकी अहमियत किसी जानवर से भी गई गुजरी है।’’
मैं यहाँ डॉ. पुरुषार्थी के विचारों से पूर्ण रूप से सहमत होते हुए यह पूछना चाहूंगा कि वर्तमान में इस समाज की ऐसी स्थिति के लिये क्या यह समाज स्वयं जिम्मेदार नहीं है ? क्या आज हम इनकी दुरावस्था के लिये किसी और व्यक्ति या समाज को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं ? आखिर क्यों इसी समाज ने आज भी अन्य सभी समाजों की सभी तरह की साफ-सफाई का जिम्मा ले रखा है जबकि हजारों तरह के नये-पुराने काम धन्धे आज मौजूद हैं ? मेहतर समाज के एक व्यक्ति की सफाईकर्मी के पद पर नौकरी लगी। क्या वह कभी सोचता है कि उसका बेटा पढ़-लिखकर कलेक्टर, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक या और नहीं तो बाबू ही बने, ताकि इस गन्दगी से उसे तो छुटकारा मिले ? अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं है। लगभग हर सफाईकर्मी यही चाहता है कि उसका बेटा सफाईकर्मी ही बने, और वह स्वयं अपने बेटे को इस धन्धे में लगाना चाहता है। यह बात इस समाज के लोगों को चुभने वाली लग सकती है, परन्तु अधिकांश मामलों में ऐसा ही है, अन्यथा तो यह धन्धा इस समाज से कब का खत्म हो जाता। इस समाज के लोग न तो कोई अन्य धन्धा करने में रुचि रखते हैं, न कोई अन्य धन्धा खोजते हैं और न ही करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस समाज के लोग अन्य काम-धन्धे बिलकुल ही नहीं करते हैं। मेहतर समाज के हजारों-लाखों लोग अन्य काम धन्धे करते मिल जायेगें, पर यह संख्या इस समाज की कुल संख्या के अनुपात में बहुत कम है। जहाँ पर ऐसा हुआ है कि इस समाज के लोगों ने सफाई का काम-धन्धा छोड़ अन्य रोजी-रोटी अपनाई है, वहां ये कलेक्टर, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक आदि हैं और वहाँ पुराना युग उनके लिये बुरे सपने की भाँति बीत चुका है और आज वे सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं।
मेरी नजर में सफाईकर्मी समाज द्वारा इस ’धन्धे’ को नहीं छोडे़ जाने के निम्न कारण हैंः-
1. इस 'धन्धे' में कहीं कोई प्रतियोगिता नहीं है। अन्य जातियों के लोग इसमें आना ही नहीं चाहेंगे अथवा नगण्य मात्रा में आयेंगे।
2. प्रतियोगिता नहीं होने के कारण अधिकतर उम्मीद्वार यही मानते हैं कि कोई और काम नहीं भी मिलेगा तो इस ’धन्धे’ द्वारा रोजी-रोटी चल ही जायेगी।
3. सबसे महत्त्वपूर्ण कारण इसमें मन की दुर्बलता है। जो व्यक्ति या समाज स्वयं मन से इस ’धन्धे’ का त्याग नहीं करना चाहेंगे, उनको कितना भी समझा दो, पढ़ा-लिखा दो, वे परिवर्तन का विरोध ही करेंगे। इसके पीछे कुछ कारण हैं जिनका मैं बाद में उल्लेख करुंगा।
4. सफाई का धन्धा इस समाज के लिये किस प्रकार ब्लेकमेलिंग और मुनाफे का जरिया बन गया है, इसकी कुछ सच्ची घटनायें मैं यहां बताना उचित समझता हूं।
अ .ट्रैक्टर की टक्कर से गिरे गूणे को भरने के 500/- मांगनाः- भारतीय समाज में परम्परायें ऐसी है कि सार्वजनिक स्थानों पर पड़े कचरे को सफाई करने वाले के अलावा और कोई हाथ नहीं लगाता। लगभग 25 साल पहले टोंक जिले के लहण गाँव के पास जाट समाज के कुछ लोग ट्रेक्टर से कहीं जा रहे थे। गाँव के कच्चे और सँकरे रास्ते पर सामने से भैंसे पर कचरा (जिसे स्थानीय भाषा में गूणा कहते हैं।) लादे एक मेहतर आ रहा था। ट्रेक्टर की ट्रॉली की टक्कर से गूणा गिर जाता है और कचरा बिखर जाता है। मेहतर ने मुआवजे के तौर पर 500 रुपये मांगे। आनाकानी करने पर कहा कि कचरा स्वयं भर दो। दोनां ही बातें ट्रेक्टर वालों के लिये मानना मुष्किल था, क्योंकि अगर वे स्वयं कचरे के हाथ भी लगाते और गाँव-समाज में इस बात का पता चलता तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर देते। हार कर उन्हें 500/- देने पडे़।
ब. किसी भी गाड़ी अथवा वाहन के नीचे मरा हुआ सुअर लाकर रख देना और वाहन चालक या मालिक से मनमाना धन वसूलनाः- चूंकि मेहतर सुअर पालन भी करते हैं, अतः सुअर इनकी पशु-सम्पदा हैं। लेकिन इस बात का नाजायज फायदा ये इस प्रकार उठाते है कि कहीं भी किसी अन्य जाति के सामाजिक समारोह में किसी भी गाड़ी के नीचे मरा हुआ सुअर का बच्चा लाकर रख देते हैं और उस गाड़ी के मालिक या समारोह वाले से हजार-दो हजार रुपये झटक लेते हैं। कोटा, राजस्थान में मेरे मिलने वालो के आटो के नीचे मरा हुआ सुअर का बच्चा लाकर रख दिया गया और लगभग डेढ़ हजार रूपये झटक लिये।
स. हड़ताल समाप्त कराने के लिये मरे हुए जानवर आफिसों में फेंकनाः- टोंक में एक समय सफाई कर्मचारियों की हड़ताल हुई, जो आधे दिन में ही समाप्त हो गई। कारण, सफाई कर्मचारियों ने कलेक्ट्रेट परिसर और नगर परिषद में मरे हुए जानवर फेंक दिये थे जिनकी दुर्गन्ध से परेशान होकर और कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिये प्रशासन को तुरन्त सफाई कर्मचारियों की जायज-नाजायज सभी बातें माननी पड़ी।
5. देश में नगर पालिकाओं नगर परिषदों, नगर निगमों, महानगर निगमों और अन्य सभी सरकारी विभागों में स्वीकृत सफाई कर्मचारियों के पद सरकारी पद हैं और रोस्टर के अनुसार इन पर सभी जातियों और धर्मों के व्यक्तियों की भर्ती होना चाहिये। परन्तु मेहतर समाज के लोग इन पदों पर अपना पुश्तैनी हक समझते आ रहे हैं। भर्तियों में कागजों में चाहे जो कुछ लिखा जाये, परन्तु वास्तविकता यह है कि सफाई कर्मचारियों में लगभग पूरे के पूरे पद मेहतर समाज से ही भरे जाते हैं। यहाँ तक कि इस समाज के संगठन यह तक लिख कर देते है कि इन पदों पर जिले विशेष के मेहतर ही लिये जायें। यह विडम्बना ही है कि जहाँ अन्य दलित समाजों ने अपने-अपने समाज के घृणित काम-धन्धे छोड़ने के लिये जान की बाजी तक लगा दी और धन्धा छोड़ने के बाद मेहनत-मजदूरी के अन्य धन्धे अपनाकर अपना जीवन यापन किया, पढा-लिखा कर अपने बच्चों को उच्च सामाजिक स्तर दिलाया वहीं यह समाज आज भी इस बात के ज्ञापन सरकार को देता है कि सफाई कर्मचारियों की भर्ती में इसी समाज के लोगों को नौकरी दी जाये!!! ऐसा ही वाकया भीलवाड़ा जिले में हुआ जिसकी खबरों की कटिंग भेजना मैं उचित समझता हूं। (ये खबरें क्रमशः 14 जून 2011, 24 जून 2011 और 22 जून 2011 के राजस्थान पत्रिका भीलवाड़ा की हैं।)
6.सफाईकर्मी के पद पर नियुक्त हो जाने के पश्चात ये कभी ईमानदारी से अपना कार्य नहीं करते हैं। आप किसी भी दफ़्तर अथवा सार्वजनिक स्थान को देख लीजिये। वहां के पेशाबघर, शौचालय और इसी प्रकार जन-सुविधाओं के स्थान नर्क का स्मरण करवाते हैं जबकि इनके लिये बाकायदा सफाईकर्मी नियुक्त रहते है जिनका वेतन हर माह उठाया जाता है। कर्मचारी अपनी नियुक्ति के स्थान पर किसी बेरोजगार को दो-तीन हजार रुपये देकर महीने भर काम करवाता है और स्वयं किसी दूसरे स्थान पर सुअर खरीदने-बेचने का, ब्याज का या कोई अन्य धन्धा करता है। शायद इसी कारण सरकारी विभागों में ठेके पर सफाई व्यवस्था शुरू की गई। जहां पहले चार स्थायी कर्मचारी लगते थे, आज वहां का ठेका उनके आधे वेतन में छूटता है और दो आदमी उन चार आदमियों से अच्छा काम करते नजर आते है, क्योंकि ये अगर आज मक्कारी करेंगे तो कल निकाल दिये जायेंगे। एक कर्मचारी के वेतन के बराबर उन दोनों को वेतन दिया जाता है और बाकी पैसा ठेकेदार का मुनाफा होता है जो मेहतर भी हो सकता है या अन्य जाति का भी, पर काम करने वाले हमेषा ही मेहतर समाज के होते हैं।
7.नियुक्त हो जाने के बाद इन कर्मचारियों को खुली छूट मिल जाती है कि वे कार्य करें या नहीं, क्योंकि इनके संगठन होते हैं जो सदैव इस बात पर नजर रखते है कि किस कर्मचारी को क्या परेशानी है, किसी को काम करने के लिये तो नहीं कहा जा रहा है, किसी को हटा तो नहीं रहे हैं, आदि। फिर ये उस कर्मचारी के पक्ष में खडे़ होकर किसी भी हद तक जा सकते हैं जैसा कि ऊपर कुछ उदाहरण दिये गये हैं।
8.बडे़-बड़े शहरों में इसी समाज में लखपति और करोड़पति लोग मिल जायेंगे, अतः यह कहना बेमानी है कि इस समाज में गरीबी है। ये लखपति और करोड़पति लोग ब्याज का धन्धा करते हैं जिसकी दर 5 प्रतिशत प्रतिमाह से 30 प्रतिशत प्रतिमाह चक्रवृद्धि तक होती है जिसे चुका पाना कर्जदार के लिये लगभग असंभव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि कर्जदार या तो आत्महत्या कर लेता है या फिर उसका घर-बार नीलाम होता है। इनके कर्जदारों में अधिकतर दलित समुदाय के लोग ही होते हैं। यहां तक कि खुद इसी समाज के भी लोग होते हैं।
देश में हाल ही में स्वच्छ भारत अभियान चलाया गया है जिसके अनुसार हर स्थान को साफ-सुथरा रखने की कवायद जारी है। साफ-सुथरा रहना सब को अच्छा लगता है। लेकिन मात्र कुछ मिनिट के लिये झाड़ू लेकर इधर-उधर घुमा लेना ही सफाई्र नहीं है। प्रोफेसर विवेक कुमार के अनुसार वास्तविक सार्वजनिक जीवन में सफाई की नींव में कम से कम सात परतें होती हैं-
1.सार्वजनिक सड़कों पर झाड़ू लगाना,
2.सार्वजनिक नाले और नालियों के कीचड़ की सफाई करना,
3.मेनहोल और गहरे गटर के अन्दर उतर कर मल-मूत्र एवं कीचड़ की सफाई करना,
4.सार्वजनिक कूड़ा स्थलों से हाथ एवं मोटरगाड़ियों से कूड़ा उठाना,
5.मल की सफाई करना (यथा शुष्क मलों का सिर पर उठाना {जो कि कानूनन अपराध भी घोषित किया जा चुका है।}, पानी से मल को बहाकर सफाई करना एवं फ्लश टॉयलेट की सफाई),
6. रेलवे प्लेटफॉर्म की रेल लाईनों पर पड़े मल-मूत्र एवं कूड़े की सफाई,एवं
7.मरे हुए जानवरों की सफाई।
क्या आज की तारीख में समाज का कोई भी वर्ग, जो अपने आप को स्वच्छ भारत अभियान से जुड़ा हुआ मानकर गौरवान्वित महसूस कर रहा है, एक नम्बर की सफाई को छोड़कर बाकी में से कोई भी सफाई करने की सोच भी सकता है?
फिर बाकी सफाई कौन करता है? उत्तर आप सोच सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि स्वच्छ भारत अभियान इस क्षेत्र में रोजगार के नये अवसर उत्पन्न करने का जरिया बन जाये और इस समाज के उन युवाओं को, जो इस धन्धे से मुक्त होना चाहते है पुनः अपनी गिरफ्त में ले ले।
अतः सबसे पहले तो मैं इस समाज के कर्णधारों से अपील करता हूं कि वे वर्तमान वस्तुस्थिति को समझें, सत्य को स्वीकार करें कि आज लाठी के जोर पर किसी से यह घृणित धन्धा नहीं करवाया जा सकता है। फिर भी यदि किसी स्थान पर ऐसा हो रहा हो तो निकटतम स्थान के उन दबंग मेहतर लोगों का दायित्व बनता है कि वे गली-मोहल्लों में अपनी दबंगई दिखाने के स्थान पर घटनास्थलों पर जाकर वहां के दबंगों से निपटे। साथ ही पुलिस और कानून की मदद भी लें। जो व्यक्ति यह धन्धा छोड़कर अन्य धन्धा अपनाना चाहें, उसे प्रोत्साहित करना चाहिये। मुझे याद है कि करीब 30 वर्ष पूर्व टांक में इसी समाज की एक लड़की ने बहादुरी दिखाते हुए घर-घर के सामने जाकर झाड़ू लगाने और रोटी मांगने से इनकार कर दिया था। समाज की क्या कहें, उसके माँ-बाप तक ने उससे रिश्ता समाप्त कर लिया था।
जहाँ पर इनकी बस्तियां होती हैं, वहाँ पर एक बनिया आकर दुकान चला सकता है, परन्तु ये नहीं सोचते कि अपनी ही बस्ती में किराना स्टोर, दूध की डेयरी, फल-सब्जी की दुकान, कारपेंटरी की दुकान या इसी प्रकार की अन्य दुकान इनकी स्वयं की हो। निस्सन्देह इस समाज के पढ़े-लिखे लोग आज अच्छे-अच्छे पदों पर विराजमान हैं और मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि इस समाज के लोग पढ-लिखकर, विवेकवान बनें, उच्च पदों पर पहुँचें, राजनेता बनकर मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनें, राज्यपाल और राष्ट्रपति पद तक पहुँचे। पर इन सबके लिये इनको यह घृणित काम तो छोड़ना पड़ेगा, छोटे-छोटे लालच छोड़ने पड़ेंगे।अपनी सोच बदलनी पडे़गी कि चाहे मैं भूखे मर जाऊं, पर यह काम नहीं करुंगा। श्रीबाबूराव रामजी ’बागुल’ की प्रसिद्ध कहानी विद्रोह का जय बनना ही पडेगा।
-श्याम सुन्दर बैरवा
फोटो गुगल से साभार