माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय दिनांक26.09.2008 में एम.नागराज बनाम भारत संघ 2006 (8) S.C.C 2 (2) का निर्णय जो 2006 में पारित किया था की दो संवैधानिक पीठो ने रेफरेन्स के आधार पर समीक्षा की मांग की है, उसमें यह तो मान लिया है कि सर्वोच्च न्यायालय के कतिपय निर्णयों द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के लोकसेवकों की भर्ती, पदोन्नति एवं वरिष्ठता में पैदा की गई रूकावटों को समाप्त करने के लिए संसद ने जो संवैधानिक संशोधन संख्या 77-81-82 एवं 85 किये हैं वे पूर्णतया वैद्य हैं, यह भी तय किया है कि इसके लिए राज्यसरकारों व केन्द्र सरकार को पदोन्नति में आरक्षण देने के पूर्व यह जाँच करनी पड़ेगी कि इनका सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं, साथ ही यह भी तय करना पड़ेगा कि इससे प्रशासनिक कार्यकुशलता पर विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा, केवल शैक्षिक व सामाजिक पिछड़ेपन का पता लगाने की आवश्यकता नहीं है और यह भी तय किया है कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा इसका तात्पर्य है कि अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 85 प्रतिशत है, उन्हें सरकारी सेवा में केवल 50 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा शेष 50 प्रतिशत आरक्षण बाकी 15 प्रतिशत सम्पन्न वर्ग जिसमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं कायस्थ आदि आते हैं उन्हें मिलेगा। भारत के संविधान में सरकारी सेवा में केवल अनुजाति/जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग को ही आरक्षण का पात्र करार दिया था लेकिन न्यायालयों ने कानून की समीक्षा की शक्ति का नाजायज फायदा उठाकर केवल सम्पन्न व समर्थ वर्ग के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था संविधान एवं विधायिका का धता बताकर कर दी। यह साहस कालेजियम की व्यवस्था के कारण हुआ जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 एवं 217 में संशोधन कर राज्यों के राज्यपालों एवं राष्ट्रपति के हाईकोर्ट एवं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों एवं मुख्य न्यायाधीशों के चयन का अधिकार था वह शीर्ष न्यायपालिका ने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर संशोधन कर छीन लिया और इस संवैधानिक संशोधन की बेजा हरकत पर सब चुप हैं। कोई आवाज नहीं उठा रहा है, हमारे जनप्रतिनिधि भी मौन हैं, जबकि उनकी जिम्मेदारी ज्यादा बनती है।
इस दिनांक 26.09.2018 को पारित निर्णय में यह भी तय कर दिया है कि राज्य व केन्द्र सरकार को अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए सरकारी सेवा में आरक्षण का अधिकार तो है लेकिन अनुसूचित जाति/जनजाति में कौन-कौन पात्र होंगे यह न्यायालय तय करेंगे, जिस प्रकार अन्य पिछड़ा वर्ग में आर्थिक आधार पर सक्षम, स्वावलम्बी वर्ग को आरक्षण के लाभ से वंचित कर ओ.बी.सी. के बाकी लोगों को अपाहिज, बेबस व लाचार बना दिया है और उन्हें रथयात्रा, पदयात्रा, क्लश यात्रा व कावड़ यात्रा में व्यस्त रखकर भगवान भरोसे जीने का आदि कर दिया गया है। वही अब अन्य याचिकाओ के जरिये जो अनुसूचित जाति/जनजाति में आर्थिक रूप से स्वावलम्बी वर्ग हो गया है, उसे भी क्रिमिलेयर में मानकर वंचित कर बाकी अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग को अपाहिज, बेबस व लाचार बनाने क साजिश को अंजाम देने का प्रयास किया जायेगा। भारतीय संविधान में सरकारी सेवा में आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन न्यायपालिका ने आर्थिक आधार को मानकर ऐसा कमाल कर दिखाया है, माननीय न्यायाधीश बेलगाम हो गये हैं संवैधानिक मर्यादाएं त्याग चुके है, इस निति को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है। भारतीय समाज में दो तरह की बिल्लियां है एक पालतू बिल्ली जो 15 प्रतिशत उच्च व सम्पन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, दूसरी फालतू बिल्ली जो देश की 85 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करती है उच्च व शीर्ष न्यायपालिका के न्यायाधीश पालतु बिल्लियों की सार संभाल में लग गये हैं अब इसी का इलाज ढूंढना है, मेरे विचार में वंचित वर्ग के विकास व शक्तिकरण के मार्ग में शीर्ष न्यायपालिका ही अवरोधक है और उच्च व शीर्ष न्यायपालिका द्वारा किए जा रहे असंवैधानिक एवं अलोकतांत्रिक कार्यों के विरूद्ध खुलकर सड़क पर आने का समय आ गया है। यदि अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग नहीं चेता तो न तो लोकतंत्र बचेगा और नहीं संविधान ही सुरक्षित रह सकेगा, मेरे विचार में ओ.बी.सी. के क्रिमिलेयर के मुद्दे को भी उठाया जाना चाहिए और इन वर्गों के जनप्रतिनिधियों को शीर्ष न्यायपालिका के इस संविधान विरोधी कदम के बारे में सावचेत भी करना चाहिए। यदि वंचित शोषित व पीड़ित वर्ग को लोकतंत्र की मुख्यधारा में लाना है तो न्यायपालिका में प्रचलित कालेजियम व्यवस्था को समाप्त करने के लिए जन आन्दोलन के जरिये संसद को मजबूर किया जाये, संवैधानिक संशोधन के जरिये संसद द्वारा यह किया जा सकता है। आईये हम इस पहल को अमली जामा पहनाने का काम प्रारम्भ करे।
-आर.के. आंकोदिया पूर्व न्यायाधीश एवं पूर्व सदस्य राज्य मानवाधिकार आयोग, राजस्थान
जयपुर
मो.नं. 9828627537