पे-बैक टू सोसायटी का वीभत्स रूप 


‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’  यानि ‘‘समाज को वापिस करो’’, है तो अंग्रेजी का एक ऐसा शब्द-समूह जिसे पाश्चचात्य संस्कृति में तो सदियों से उपयोग में लाया जाता रहा है लेकिन इसे भारतीय लालची और स्वार्थी संस्कृति में कभी जगह नहीं दी गई। भारत में भी समाज के अगड़े समाजों में ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के क्षेत्र में अच्छे काम होते रहे हैं परन्तु पिछड़े समाजों (अनु. जाति/जनजाति/पिछड़ी जाति) में इस शब्द-समूह का महत्त्व समझाया पहले बाबा साहब ने फिर माननीय कांसीराम जी ने, और उन्होंने अपने जीवनकाल में अपने मन और कर्म और शब्दों से इसे पालन भी किया और समाज को इसकी तुरन्त आवश्यकता का संदेश भी दिया। 
देर से ही सही लेकिन पिछले कुछ समय से (जब से सोशल मीडिया-जैसे वाट्सैप, फेसबुक इत्यादि पर ‘सुप्रभात’ यानि ‘गुड-मोर्निंग’ आरम्भ हुई है!) सोशल मीडिया पर बड़े जोर-शोर से ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ शब्द-समूह शायद पिछड़े तबके में अधिक चर्चा का विषय बना हुआ है। अगड़े समाजों में एक संरचनात्मक परिवर्तन पूर्व से ही चला आ रहा है। व्यापारिक समाज जैसे जैन, वैश्य इत्यादि समाजों में तो इसको अपनी परम्परा का हिस्सा ही बना लिया गया क्योंकि ब्राह्मणों ने डरा-डरा कर उनसे समाजोपयोगी कार्य करवा कर उनकी आदत बना डाली। दूसरी ओर, इस शब्द समूह को पिछड़े समाज के असंख्य संगठन अपने-अपने हिसाब से परिभाषित करते चले आ रहे हैं। हम समझ सकते हैं, धनाभाव और रोजी-रोटी कमाने में ही उलझे रहने के कारण इन समाजों में ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ की परम्परा बनने में अभी समय लग रहा है। फिर भी कुछ लोग अपने-अपने तरीकों से व्यक्तिगत स्तर पर भी और संगठनात्मक रूप से भी ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के प्रयत्नों में लगे हुए हैं। लेकिन अभी कुछ समय से ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के मामले में माहौल कुछ बदला-बदला-सा है। आपकी क्षमताओं को समझे बिना या फिर आपके अनन्य प्रयासों को जाने बिना, आपकी व्यावसायिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों व मज़बूरियों को समझे बिना ही आप से पूर्व निर्धारित तरीकों से ही ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ की लकीर को पीटने के लिए कहा जा रहा है। 
‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ को इतनी बुरी तरह से कुपरिभाषित किया हुआ है कि कुछ लोग व संगठन वाले आपके व्यक्तिगत रूप से बिना ढोल-मंजीरे के शनैः-शनैः किए जा रहे प्रयासों को तो ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ की श्रेणी में रखना ही पसंद नहीं करते। चूँकि वे अपनी परिभाषा को परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं हैं, इसी लिए इस लेख की आवष्यकता महसूस हुई है।
हमारी ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ की परिभाषा हमेशा एक-सी रहेगी तो काम चलने वाला नहीं है। सही तरीका तो यह है कि जितने भी संगठन समाजोत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं वे इस तरह के रास्ते आविष्कृत करें या इस तरह के अवसर लोगों को दें कि वे अपना योगदान अपनी प्रतिभाओं, योग्यताओं तथा क्षमताओं के आधार पर तरह-तरह से कर सकें। अब हमारे सामाजिक संगठनों को लकीर के फकीर बने रहने से काम नहीं चलने वाला है। समयानुसार बदलने में ही समझदारी है। कुछ संगठन बहुत अच्छी तरह से अच्छे मार्गदर्शन में कार्य कर रहे हैं लेकिन निर्णायकगणों को केवल धन से ही सभी समस्याओं के हल ढूँढने से बचना चाहिए। ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के क्षेत्र में जो लोग केवल अपना समय दे सकते हैं उनको विशेष अवसरों पर श्रमदान के लिए बुलाया जाना चाहिए। जो लोग अध्यापन में अच्छे हैं उन्हें पिछड़ी जातियों के छात्रावासों में या संगठनों के अपने प्रतिष्ठानों पर उनके समय की उपलब्धता के अनुसार पढ़ाने के अवसर देने चाहिए ताकि हमारे युवाओं को बिना किसी अतिरिक्त खर्च के अच्छा मार्गदर्शन मिल सके। यदि कोई महानुभाव विषय विशेषज्ञ नहीं है लेकिन जीने की कला या दुनिया में संघर्ष कम करने के गुर सिखाने में माहिर हैं तो उन्हें भी निःशुल्क सेवाएँ देने के लिए अवसर प्रदान करने चाहिए। हमारे अपने चिकित्सकों को विभिन्न बस्तियों में निःशुल्क चिकित्सा शिविर आयोजित करवाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें आशा है कि वे इस काम के लिए तुरन्त तैयार हो जाएँगें बजाय संगठनों के प्रतिनिधियों के हाथ में धनराशि थमाने के। जो लोग किसी धन्धे में, किसी ट्रेड में माहिर हैं चाहे किसी भी प्रकार के हों जैसे टेलरिंग, वैल्डिंग, इलैक्ट्रिशियन, प्लमि्ंबंग इत्यादि इन लोगों के लिए धनराशि से योगदान करना सम्भव नहीं होता है अतः इन्हें युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए अवसर देना चाहिए। ये खाली समय में बड़ी खुशी से अपनी ट्रेड का ज्ञान बाँटने के लिए तैयार हो जाएँगें। ऐसे लोगों को कार्यशाला इत्यादि आयोजित करने के अवसर प्रदान करने चाहिए। इससे समाज में न केवल व्यवसायी बढेंगे बल्कि बेरोजगारी कम होगी।


इतना ही नहीं सामाजिक चेतना और काम-धन्धे के लिए आपस में मिलने-जुलने के अवसर बढने से भाईचारा भी बढेगा। 
जो लोग पत्रकारिता या लेखन कार्य में महारत रखते हैं उन्हें इसी प्रकार के कार्य में रुचि रखने वाले युवाओं के लिए कार्यशालाएँ आयोजित करने के लिए अवसर देना चाहिए जिससे प्रतिभाएँ निखरें और समाज का नाम रोशन करें। और कुछ नहीं तो सामाजिक संगठनों को हमारे समाज के प्रौढ़ और बुजुर्ग राजनीतिज्ञों को बुलाकर उन्हें समाज के युवा राजनीतिज्ञों को इस क्षे़त्र के पैंतरे सिखाने के लिए निवेदन करना चाहिए ताकि राजनीतिज्ञ भी उच्च कोटि के निकलें और निचले स्तर से उठ कर राजनीतिक पार्टियों के उच्चतम स्तर तक पहुँचने में उनको मदद मिले। इससे दो लाभ होंगें, एक तो हमारे भावी नेताओं को अपनी प्रतिभा का संवर्द्धन होने से अगड़ी बिरादरियों के नेताओं की कुर्सी-टेबल जमाने के काम से मुक्त कराना आसान होगा और दूसरा समाज के ही कुशल युवा नेताओं का एक अच्छा समूह तैयार करने में मदद मिलेगी क्योंकि हमारे वरिष्ठ नेताओं को हमारे ही समाज के कुशल युवा राजनितिज्ञों के अभाव में अन्य अगड़े समाजों के छुटभइयों से घिरे रहना पड़ता है जो बाद में हमारे नेताओं को अपनी उँगलियों पर नचाते हैं! 
हम क्यों चाहते हैं कि ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ का अर्थ केवल सामाजिक संगठनों की तिजोरियों में धन भरना ही हो? क्या हम ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के इस स्वरूप से हमारे लोगों का विश्वास जीत पाए हैं? कई बार तो ऐसा होता है कि किसी भी सामाजिक संगठन के प्रतिनिधि को देखकर लोग भागने लगते है! या अपना रास्ता बदल लेते हैं। इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि ये सभी समाज के नाम पर उगाही ही करने निकले हों या उगाही हुई हो और उसका दुरुपयोग ही सुनिश्चित हुआ हो। क्यों कि किसी भी संगठन को सुचारु रूप से चलाने के लिए निःसंदेह धन की आवश्यकता तो होती है लेकिन जो लोग केवल इसी में अपना व्यवसाय तलाश बैठे हैं वे अधिक दिन ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के नाम पर दानदाताओं को मूर्ख तो कतई नहीं बना सकते।
हमें ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ के नाम पर कुछ मजबूत सामाजिक संरचनाएँ खड़ी करनी चाहिए जिनमें सर्वाधिक आवश्यकता है हमारा अपना एक सुदृढ़ मीडिया तैयार करने की। सभी तरह का मीडिया। प्रिन्ट मीडिया, इलैक्ट्रोनिक मीडिया, सोशल मीडिया इत्यादि। हम सोशल मीडिया तो वाट्स एप, फेस-बुक इत्यादि के माध्यम से खड़ा कर पाए हैं और कुछ ग्रुप्स में कुछ सकारात्मक चर्चाएँ होती भी हैं, परन्तु प्रिन्ट मीडिया, इलैक्ट्रोनिक के क्षेत्र में कुछ भी ठोस नहीं हो पा रहा है। सर्वप्रथम तो हमारी तुरन्त आवश्यकता है- हमारे अपनों के लिए हमारा अपना एक प्रेस स्थापित करने की। लेकिन खेद का विषय है कि सामाजिक संगठनों का इस ओर ध्यान ही नहीं गया है। हमारे पास पत्रकार हैं युवा भी, वरिष्ठ भी! लेकिन उनकी रचनाओं को, उनकी खबरों को उनके विश्लेषणों को हमारे लोगों तक पहुँचाने के लिए हमारे पास कोई माध्यम ही नहीं है। कुछ इतना अच्छा लिखते हैं कि उत्कृष्टता के सभी पैमाने निम्नस्तरीय नज़र आते हैं लेकिन चूँकि उनकी लेखनी प्रश्न पूछती है, आवाज़ उठाती है, समसामयिक राजनीतिक बयार के विरुद्ध जाती है तो  कोई भी मुख्यधारा का मीडिया इनसे दूर भागता है। तो क्या हमारा कर्त्तव्य नहीं बनता कि हम इन कर्मयोगियों को ऐसा मंच प्रदान करें जहाँ ये बेझिझक अपनी बात रख सकें और समाज में जागरूकता लाकर इसके उत्थान में तीव्रता ला सकें। ये भी उनकी ओर से तो ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ है ही, सामाजिक संगठन भी इन्हें मंच प्रदान करके अपना ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ का कर्त्तव्य निभा सकते हैं।
अब हमारे बीच ऐसे लोग भी हैं जो समयाभाव में अपने तन के माध्यम से तो से योगदान नहीं दे पाते हैं लेकिन मन और धन से योगदान देने के इच्छुक हैं। ऐसे दानदाताओं को भी एक विश्वसनीय मंच की तलाश रहती है जिसके माध्यम से ये अपना योगदान दे सकें। हमें ऐसे दानदाताओं को सुव्यवस्थित प्रशासनिक व लेखा व्यवस्था वाले पारदर्शी एवं विश्वसनीय संगठन गठित करने चाहिए या पहले से सक्रिय हैं तो उनकी व्यवस्था पारदर्शी और जवाबदेह  बनानी चाहिए। अपने संगठनों को समय-समय पर अंकेक्षण व परीक्षण करवा कर उन्हें वर्ष में दो बार प्रकाशित करवा कर सभी सदस्यों में वितरित करना सुनिश्चित करना चाहिए। सदस्य माँगे या ना माँगे, अंकेक्षण व परीक्षण व परीक्षण प्रतिवेदन निश्चित रूप से संगठन की वैबसाइट पर प्रदर्शित होने चाहिए अथवा सभी सदस्यों के घर पर पहुँचनी चाहिए। आजकल हमारे समाज के व्यवसायी बढ़ रहे हैं और उनके प्रतिष्ठानों को कॉर्पोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी  के तहत कुछ ना कुछ समाजोपयोगी कार्य करना ही होता है, तो क्यों ना हम इन्हें एक मंच प्रदान करें जिससे एक पंथ दो काज हो जाए। उनका ‘‘पे-बैक टू सोसायटी’’ हो जाएगा और समाज का भला भी हो जाएगा।