पढ़ा-लिखा और अधिकारी वर्ग क्यों हो रहा है समाज की मुख्य धारा से विमुख...?
 

 

   निश्चित रूप से पढ़ा-लिखा और नौकरी पेशा वर्ग किसी भी समाज की रीढ़ होता है। यह वर्ग सरकार चला सकता है तो समाज भी चला सकता है। समाज को उचित मार्गदर्शन  दे सकता है और उसको उच्च सामाजिक प्रस्थिति (स्टेटस) भी प्रदान करवा सकता है। जिन समाजों में पढे़-लिखे अधिकारी वर्ग ने कमान संभाल रखी है, उनकी स्थिति अन्य समाजों की सामाजिक  स्थिति से कई गुना बेहतर है। जिन समाजों में ऐसा नहीं है वे समाज धन बल या बाहुबल के आधार पर कुछ समय के लिये भले ही चमक जायें, पर यह चमक स्थाई नहीं होती। दलित समाज के अधिकारी कर्मचारी वर्ग की शक्ति को सर्वप्रथम मान्यवर कांशीराम ने पहचाना और इसके समय, बुद्धि तथा धन (टाईम, टेलेंट और ट्रेजरी) का बखूबी उपयोग कर भारत में तीसरा मोर्चा खड़ा किया।

       सामान्य वर्ग की बात करें तो इसमें समाजों में पढे़-लिखे अधिकारी वर्ग की बात मानी जाती है और इसका नतीजा हम सब देखतें हैं। दलित वर्ग सिर्फ संख्या के बल पर ही अधिक है, सरकारी नौकरियों में, कॉलेजों-स्कूलों में और विश्वविद्यालयों में इनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक हैं। आज भी इस वर्ग की सीटें ’’ योग्य उम्मीद्वार नहीं मिलने पर सामान्य वर्ग से भरी गई’’ लिखकर भर दी जाती है जबकि सामान्य वर्ग के लोग मैरिट लिस्टों से लेकर सरकारी कार्यालयों तक, सब स्थानों पर छाये रहते हैं। 

     दलित वर्ग के लोग देख-सुनकर भी अनुकरण नहीं करते और नतीजा यह रहता है कि प्रगति की दौड़ में दलित समाज दलित ही रह जाता है और जो प्रतिभा अपना समय, ज्ञान और धन देकर समाज का भला कर सकती है उसका समाज की बागड़ोर संभाल रहे महानुभावों से सदैव ३६ का आंकडा रहता है। 

      विचार करने पर पाते हैं कि किसी भी समाज के सदस्य में, जब से वह होश संभालने लगता है, अपने-आपको समझने लगता है, तब से ही अपने समाज के प्रति अलग से लगाव नजर आने लगता है। अगर इस लगाव को समाज की ओर से उचित प्रौत्साहन मिले तो यह और दृढ़ होता है, अन्यथा निर्बल या उदासीन हो जाता है जैसे राख में दबी चिंगारी। किसी समाज या समूह के सदस्य साल में 2-3 बार एक स्थान पर किसी भी बहाने मिलते-जुलते हों, आपस में खानपान करते हो, विचार-विमर्श करते हों, मेले-मनोरंजन का आनंद लेते हों तो बालमन से ही व्यक्ति के मन में समाज के लिये लगाव रहेगा। सामूहिक गोष्ठियां इसका उदाहरण है।

      इसी कड़ी में जो समाज अपनी प्रतिभाओं की कद्र करते हैं, वे साल में कम से कम एक बार प्रतिभा सम्मान समारोह अवश्य आयोजित करते हैं क्योंकि आज के बालक और प्रतिभायें ही कल के समाज और देश के कर्णधार बनेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है। जब समाज का बच्चा प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, सैकेण्डरी, हायर सैकेण्डरी, कॉलेज और अन्य उच्च सम्मानित कोर्स में उपलब्धि हासिल करता है, दूसरों की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन करता है तो समाज का दायित्व बनता है कि उसे सामाजिक  मंच पर सम्मानित किया जाये। जहांँ ऐसा किया जाता है वहाँ यही बालक आगे चलकर सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में संकोच नहीं करते हैं।

      लेकिन हमारे समाज में एक-दो स्थानों को छोड़ दिया जाये तो ऐसा देखने को नहीं मिलता है। जो व्यक्ति समाज के कर्णधार बने हुए हैं वे या तो सेवानिवृत व्यक्ति हैं, ठेकेदार-मिस्त्री हैं या धनबली-बाहुबली हैं या फिर श्रमजीवी हैं। इन सबके पास चाहे जो कुछ भी हो, परन्तु एक निष्चित योजना और सबको साथ लेकर चलने की प्रवृति का नितांत अभाव है। और जहां योजना के साथ सहकारिता की भावना है, वहां अच्छे काम हुए हैं। योजना के अभाव में प्रतिभाओं को बचपन से ही प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है और न ही मार्गदर्शन। अतः समाज से उनका जुड़ाव मात्र रस्मी तौर पर ही रह पाता है।

       उदाहरण हमारे सामने है। इस वर्ष भीलवाड़ा जिले में समाज के लड़के ने दसवीं टॉप की है, एक अन्य ने सीपीएमटी के द्वारा एमबीबीएस में प्रवेश लिया है, एक ने एम टेक में अच्छा स्थान हासिल किया है और नामी कम्पनी में लगभग डेढ़ लाख रू. प्रति माह के हिसाब से पैकेज पाया है। इसी प्रकार के कई और उदाहरण भी हैं। लेकिन समाज के कर्णधार, जो बहुजन महासभाओं के पदाधिकारी हैं वे सो रहे हैं, किसी को फुर्सत नहीं कि इन बच्चों को एक मंच पर बुला कर इनकी पीठ तो थपथपा दे या कुछ यादगार चिन्ह दे दे। समाज के बच्चे डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, फार्मेसी मेनेजमेंट में चुने जाते हैं और कर्णधार कान में तेल डाले सोये रहते हैं।

      इस प्रकार के बच्चे जब यह देखते है कि उससे कई अंक कम वाले बच्चों के लिये अखबारों में बधाई संदेश छप रहे हैं सामाजिक मंचों पर सम्मानित हा रहे हैं, उनके समाजों में उन्हे प्रेरणा के तौर पर देखा जा रहा है तो उसे कितना दुख होता होगा ? कोई लड़का दिन-रात मेहनत करके देश के नामी गिरामी संस्थान से डिग्री हासिल करता है और उसका समाज उसके लिये क्या करता है ? उसके कान समाज से बधाई के दो बोल सुनने को तरस जाते हैं। यह समाज के कर्णधारों की गलतफहमी होगी कि वे भविष्य में कभी इनके पास जायें और किसी कार्य के लिये चन्दे की मांग करे या किसी समारोह में बुलायें। और समाज के लोगों को चन्दा देना या आतिथ्य स्वीकार करना इनकी भलमानसी होगी। 

    समाज के वर्तमान नेतृत्वधारी यह चाहते ही नहीं कि कोई अन्य आदमी आगे आये। पूर्व में भी ऐसे अनेक ’महापुरुष’ हुए हैं जो दशकों तक एक ही पद पर जमे रहे और समाज का रत्ती भर भी फायदा नहीं हुआ। हाँ, समाज में मृत्युभोज, जागरण, भण्डारे, मंदिर-निर्माण, मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा आदि फिजुलखर्ची और बेकार के कार्य खूब हुए। इनमें समाज का पैसा, समय और श्रम खूब खर्च होता रहा है जबकि इनको गरीब बच्चों की शिक्षा व्यवस्था, छात्रावास निर्माण, बेरोजगारों के लिये कोई लाभदायक कोर्स, प्रतिभा सम्मान समारोह, कर्मचारियों के स्नेह मिलन और उचित रिकार्ड आदि के लिये कहा जाये तो ये इनको बेकार लगेंगे। पाठक स्वयं निर्णय कर सकते है कि वर्तमान संदर्भ में कौनसे कार्य अधिक आवश्यक हैं।

        समाज के लोगों की शिकायत यही रहती है कि पढ़ा-लिखा अधिकारी-कर्मचारी वर्ग समाज में उठता बैठता नहीं है और अपना अलग ही दायरा बना लेता है। लेकिन मेरा कहना यह है कि स्थिति इसके विपरीत है। समाज के पदाधिकारी उनका उचित मान सम्मान नहीं करते, उनकी सलाहों पर ध्यान नहीं देते, समाज सुधार हेतु कभी विचार विमर्श नहीं करते, और करते भी हैं तो उनकी सलाहों को दरकिनार कर देते हैं। समाज के झण्डावाहकों की नजर केवल इनकी जेब पर रहती है। ऐसे में ये मात्र चन्दे के लिये जायें और ठुकरा दिये जाये तो क्या आश्चर्य है? फिर इनको यह कहने का कतई अधिकार नहीं है कि इस अधिकारी को तो पद का घमण्ड हो गया है। जब बीज ही बबूल का है तो आम तो मिलने से रहा। 

   सारांश यह है कि अगर हमें अग्रिम समाजों की पंक्ति में आना है तो समाज के प्रबुद्व व्यक्तियों के कथन को मान देना होगा, आने वाले होनहारों को उचित प्रोत्साहन और सम्मान देना होगा और पुरानी परिपाटियां छोड़ युग के अनुसार नई रीतियां अपनानी होंगी, अन्यथा समाज तो चल ही रहा है।    

 

 

- श्याम सुन्दर बैरवा


भीलवाड़ा