किसी भी राष्ट्र की परम्परा, विरासत और संस्कृति को संजो कर रखने के लिए महिलाएँ बहुमूल्य निधि हैं। इतना ही नहीं, भविष्य की दिशा और दशा तय करने के लिए भी महिलाओं का साहस और योगदान सर्वोपरि है। कम से कम हाल ही में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में सम्पन्न हुए आलम्पिक खेलों में महिलाओं की अद्भुत सफलता ने तो यह सिद्ध कर ही दिया है। लेकिन यह सब तभी सम्भव होता है जब महिलाएँं अपने स्वयं के निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र हों। यानि जिन देशों में महिलाएँ निर्णय लेने में पुरुषों के साथ बराबर की भागीदार हैं, उन देशों की उन्नति प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्ट है।
इतिहास गवाह है कि जिस घर में महिलाओं की सहमति से निर्णय लिए जाते हैं उस घर की उन्नति की राह में कोई नहीं आ सकता। जो अच्छे शिक्षित पुरुष होते हैं तथा नारी के सान्निध्य में आने के बाद प्रारम्भ से ही अपने निर्णयों में उसे बराबर का भागीदार बनाने की इच्छा रखते हैं वे कुछ समय शायद उससे सलाह लेने का प्रयत्न भी करते हैं लेकिन उसकी इस पहल पर कुछ महिलाएँ ही खरी उतरती हैं जो सकारात्मक सहयोग दे पाती हैं। ऐसा नहीं है कि अन्य ऐसा नहीं करना चाहती है लेकिन कई बार उन्हें विरासत में माताएँ या बहने या कोई और अन्य महिला रिष्तेदार ही कुछ ऐसी शिक्षा दे देती हैं कि वह या तो नकारात्मक व्यवहार करने की आदी हो जाती है अन्यथा ये सलाहकार समिति उसे तरह-तरह के भय दिखाकर सकारात्मक होने का मौका ही नहीं देती। जो महिलाएँ इन सलाहकार समितियों के साथ ‘‘सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय’’ का व्यवहार करती हैं वे जीवन में अवश्य सफल होती हैं। और हाँ, जो ये निर्णय जितना जल्दी लेती हैं उतनी ही उनकी सफलता की गारण्टी है। क्योंकि देर करने से और इनकी सलाह मानते जाने से ये इनकी आदी हो जाती हैं और इनसे पूछे बिना कोई कदम आसानी से उठा नहीं पाती हैं। वैसे तो प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं और कुछ सलाहकार समितियाँ गलत कदम उठाने से रोकती भी हैं लेकिन कई बार हमें ही पता नहीं चलता कि क्या सही है और क्या गलत है।
खैर, हम अभी महिलाओं के मानसिक अध्ययन की बात नहीं करेंगे लेकिन औरतों की सामाजिक विकास में भागीदारी की कमी की बात करेंगे, विशेषकर मूलनिवासी महिलाओं के संदर्भ में! पढ़ी-लिखी मूलनिवासी महिलाओं को अपनी षिक्षा का सदुपयोग करते हुए समाज में नवाचार का संचार करना होगा। जिसकी शुरुआत रुढ़ीवादी तथा आडम्बरवादी सोच तथा पूजा-पाठ के ब्राह्मणवादी पाखण्डों को तिलांजली देकर करनी होगी। इनकी निर्थकता न केवल स्वयं समझनी होगी बल्कि पुरानी रुढ़ीवादी पीढ़ी को भी समझानी होगी। जैसा कि पूर्व के वर्णन से स्पष्ट है कि पढी-लिखी महिलाएँ भी जब अनपढ़ और दकियानूसी महिलाओं की सलाहों का पालन करते हुए गलत कदम उठाती हैं तो शिक्षा बेमानी लगती है। क्यों विज्ञान पढ़कर भी वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं करते हैं हम? देखने में आया है कि कुछ मूलनिवासी काम-काजी महिलाएँ, जिन पर घर वाली किसी भी महिला की सलाहों का भी कोई दबाव नहीं होता है वे अपनी ब्राह्मणवादी दकियानूसी तथा पाखण्डी सहकर्मी महिला या सहेलियों के साथ उनसे भी अधिक धार्मिक होने का ढोंग करती नजर आती हैं। उनसे अधिक पूजा, अधिक बड़े-बड़े तिलक, बड़े-बड़े और अधिक संख्या में खूब कठिनताओं से भरे हुए उपवास करने की प्रतियोगिता करते हुए नज़र आती हैं। नौकरी-पेशा पढ़ी-लिखी ये महिलाएँ अपने आधुनिक और अधिक विज्ञान समर्थ बच्चों को भी ये ही पाखण्ड करने के लिए विवश करती हुई नज़र आती हैं।
कम से कम मूलनिवासी महिलाओं को तो इन पाखण्डों को तिलांजली तुरन्त देनी चाहिए। ये सारे व्रत-उपवास, पूजा के बड़े-बड़े ढोंग, अवकाश ले-लेकर दिखावा करने का शौक ना केवल खर्चीला है बल्कि उत्पादकता से भरपूर समय की बर्बादी है साथ ही अनहोनी से भयभीत रहकर जीवन को हराम करने वाला भी है। आप इन सभी आडम्बरों के बिना भी कोई भी घरेलू उत्सव जैसे जन्मदिन, शादियों की सालगिरह या मूलनिवासी महापुरुषों के जन्मदिन वगैरह अच्छा और नया परिवर्तित खाना खाकर या नए वस्त्र धारण कर के भी मना सकते हैं।
मूलनिवासी पढ़ी-लिखी और विशेषकर नौकरीपेशा महिलाओं की समाजोत्थान में महती भूमिका होनी चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं है जिसके कारण समाज में परिवर्तन अत्यन्त मंथर गति से हो रहा है। कई बार खीझ तब होती है जब इनकी ब्राह्मणवादी पाखण्डों के प्रति लगन के विरुद्ध कोई इन्हें समझाने की कोशिश करता है और ये बुरा मानकर पाखण्ड तो नहीं छोड़ती उल्टा सलाहकार से रिस्ता अवश्य तोड़ लेती हैं। इससे भी बड़ा अफसोस तब होता है जब ये अपने अम्बेडकरवादी रिश्तेदार (यहाँ तक कि पति और बच्चों से भी) बगावत करते हुए ब्राह्मणवादी पाखण्डों का पालन करने से बाज़ नहीं आती हैं।
हमारी नारी-शक्ति को समझना होगा कि अब समय निर्बुद्धि बने रहकर केवल ब्राह्मणवादी पाखण्डों में डूबे रहने का नहीं है बल्कि पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सामाजिक विकास में हाथ बँटाने का है। वैज्ञानिक सोच विकसित कर धार्मिक आडम्बरों से बाहर आकर स्वयं भी सम्भलना है और गत पीढ़ी और भावि पीढ़ी को भी सम्भालना है। सलाहकार समितियाँ हमेशा गलत नहीं होती लेकिन अधिकतर गलत होती हैं। अपने अधिकारों के लिए मूलनिवासियों द्वारा किए गए अधिकतर धरना प्रदर्शनों में यह देखा गया है कि हमारी महिलाओं की भागीदारी अन्य समाजों की तुलना में कम पाई जाती है या यूँ कहें लगभग नगण्य है। विश्वविद्यालय राजनीति में आई महिलाओं में मूलनिवासी महिलाओं का प्रतिनत देखिए। हमने लड़कियों को छुई-मई बनने का प्रशिक्षण दिया हुआ है, जो उनके भविष्य को ना केवल सार्वजनिक जीवन में बल्कि घर सम्भालने में भी संकट में डाल देता है। हमें बेटियों में दबंगई विकसित कर उन्हें भविष्य की चुनौतियों का मुकाबला करना सिखाना होगा और यह पढ़ी-लिखी महिलाओं की अहम जिम्मेदारी है।
-डॉ. हेमलता आंकोदिया, 9414938449