खुशी, मानव की भावनाओं में सर्वाधिक सकारात्मक भावना है। मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति होने पर मनुष्य प्रसन्नता का अनुभव करता है। परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर या कभी लाभ प्राप्त होने पर भी मानव खुशी महसूस करता है। किसी समस्या का समाधान होने पर भी मानव-मन खुश होता है। स्वयं की, अपने परिवार जनों की और शुभचिन्तकों की सफलता भी हमारे मन को प्रफुल्लित करती है। किसी मनोरंजनात्मक कार्यक्रम से भी हमारा मन आनन्दित होता है। अपने परिवारजनों, मित्रों, रिश्तेदारों या प्रियजनों का सानिध्य भी हमारे मन को खुशी देता है। वस्तुतः हमारे मन को जो व्यक्ति, वस्तु, दृश्य, विचार, परिणाम, परिस्थिति अनुकूल लगती है, भाती है उससे ही हमें प्रसन्नता, खुशी या आह्लाद का अनुभव होता है।
खुशी को सामूहिक रूप से व्यक्त करने के लिए पर्वों, त्योंहारों या उत्सवों का आयोजन किया जाता है। ऐसे अवसरों की सदियों से मनाया जा रहा हैं और भारत में अधिकांश पर्वों/त्योहारों को धर्म से जोड़कर जनमानस में बैठाया गया है। किसी विजेता राजा को ईश्वर का दर्जा देकर उसका स्तुतिगान करना, उसको प्रसन्न करके उसकी कृपा प्राप्त करना, उसे विभिन्न प्रकार के भोग-प्रसाद-चढ़ावा चढ़ाकर उसे खुश करना ही आज धर्म बन गया है। इससे विपरीत करने वाले को ‘विधर्मी’ की संज्ञा दी जाती है और ऐसे धार्मिक कृत्य नहीं करने वाले को ‘नास्तिक’ का नाम दिया जाता है।
अगर गहराई से चिन्तन किया जाए तो किसी राजा की जय-विजय-विवाह के अवसरों को धर्म का जामा/लबादा पहनाकर प्रजा को उसे उत्सव/त्योहार के रूप में मनाने की प्रथा हजारों वर्ष पूर्व शुरू की गयी। चूंकि राजा को ईश्वर का अवतार माना जाता था तो फिर ईश्वर बने राजा की स्तुति करना, ईश्वर की स्तुति के समान मान लिया गया। राजा की आलोचना या निन्दा को ईश-निन्दा बताया गया और ईश-निन्दा के लिए दण्ड के प्रावधान किये गये। वैसे भी राजशाही में राजा के मनोनुकूल कार्य करके राजा को खुश रखना राजा के दरबारियों का महत्वपूर्ण दायित्व होता था, और जो दरबारी ऐसा नहीं करता था उसे राजा के कोप का भाजन बनना पड़ता था। ऐसे में चापलूस दरबारी, राजाओं की जीत, उनके विवाह और सन्तान के जन्म के अवसरों को जश्न/उत्सव के रूप में मनाने लगे और प्रजा को यह कहा जाने लगा कि राजा (ईश्वर) को खुश करके ही आप उसकी कृपा पा सकते हैं। राजा के दर्शन को ईश्वर का दर्शन माना जाने लगा। राजा के रूप में ईश्वर को भेंट चढायी जाने लगी।
ऐसे ईश्वर (राजा) के निकट वही जा सकता था जो कुलीन परिवार से होता था। सामाजिक हैसियत निर्धारित करने के लिए धर्म के नाम पर चार वर्णों की व्यवस्था थी जिसके अनुसार तीन वर्णों की सेवा करने के लिए ‘शुद्र’ चतुर्थ वर्ण था। ‘शुर्द्रों’ की सामाजिक हैसियत निम्न वर्ण की थी इसलिए शुद्र राजा बने ईश्वर के निकट नहीं जा सकते थे। सर्वोच्च वर्ण के व्यक्ति ही राजा रूपी ईश्वर के सर्वाधिक निकट होते थे और उन्हीं के बनाए गए नियमों/परम्पराओं से राजा शासन की नीतियों को लागू करता था।
राजा रूपी ईश्वर की प्रशंसा में, विद्वान समझे जाने वाले वर्ण के लोग पुस्तकें लिखने लगे। राजा की आरती, चालीसा का सस्वर पठन-गायन शुरू हो गया। राजा की तारीफ में लिये गये पदों को भजन कहा जाने लगा। राजा के जीवन-परिवारजन की कहानियों को कथा के रूप में कहा जाने लगा। इनमें कौतूहल पैदा करने के लिए अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया जाने लगा। राजा उसके सेनापति/दरबारीगण को माध्यम बनाकर उन्हें वन्दनीय बना दिया गया। इस तरह राजाओं की पूजा की जाने लगी। सदियों से यही सिलसिला चलता रहा जो रूढ़ि/परम्परा बनकर जड़वत् हो गयी। अब इन पर प्रश्न करना ईश्वर को चुनौती देना समझा जाने लगा है।
राजाओं को ईश्वर बनाकर उसकी स्तुति करने से जहाँ एक ओर राजा खुश होता था तो उसको चढ़ायी गयी भेंट पाकर पुजारी वर्ग प्रसन्न होता था। इससे राजा और राजा के पुरोहित वर्ग दोनों ही ने खुशी का उपाय ढूंढ लिया। कालान्तर यही कर्मकाण्ड त्योहार के रूप में मनाये जाने लगे।
भारत की आदिम संस्कृति में भी पर्व/उत्सव मनाए जाने के प्रमाण है। यहाँ की आरंभिक आबादी के उत्सव प्रकृति से जुड़े हुए थे। अपने खेत-खलिहानों से जब फसल प्राप्त होती थी तो यह एक स्वाभाविक खुशी होती थी जिसे निजी और सामूहिक रूप से व्यक्त किया जाता था। ऐसे खुशी के अवसरों पर लोग प्रकृति से प्राप्त फूल-पत्तों से शंृगार करते थे, अपने पशुधन को सजाते थे, अपने घर के प्रांगण में अल्पनाएं उकेरते थे, प्रकृति के लिए गायन एवं नृत्य करते थे। ये आत्म-आनन्द के अवसर मन की सच्ची खुशी को प्रदर्शित करते थे।
कई त्योहार अपनी सुन्दर ऐतिहासिकता के कारण प्रारम्भ हुए मगर ऐसे ऐतिहासिक कारणों का उनकी ऐतिहासिकता को छिपाने , खत्म करने या भूलाने की गरज से मिथक गढ़े गये और मन मिथकों से त्योहारों का प्रारम्भ बतला दिया गया।
वस्तुतः भारत की दो प्राचीन संस्कृतियाँ रही हैं:- जैन संस्कृति एवं बौद्ध संस्कृति। विदेशी आक्रान्ताओं ने छल-छद्म से जब जीत हासिल कर ली तो उन्होनें इन दोनों श्रमण-संस्कृतिय संस्कृतियोंं करना प्रारम्भ कर दिया। मानवता से परिपूर्ण इन गरिमामयी संस्कृतियों की वैज्ञानिकता, तार्किकता और ऐतिहासिकता को षड्यंत्रपूर्वक मिथकों के जरिये खत्म करने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ।
प्रोफेसर डॉ. राहुल राज के अनुसार ‘दीपावली’ को ‘दीपदानोत्सव’ के नाम से जाना जाता था। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह वस्तुतः एक बौद्ध पर्व है जिसका प्राचीनतम वर्णन तृतीय शती ईस्वी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ ‘अशोकावदान’ तथा पाँचवीं सदी ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ ‘महावंस’ में प्राप्त होता है। सातवीं शती में सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी नृत्यवाटिका ‘नागानन्द’ में इस पर्व को ‘दीप प्रतिपदोत्सव’ कहा है।
वे बताते हैं कि कालान्तर में इस पर्व का वर्णन पूर्णतः परिवर्तित रूप मंे ‘पद्म पुराण’ तथा ‘स्कन्द पुराण’ में प्राप्त होता है तो सातवीं से बारहवीं शती ईस्वी के मध्य की कृतियाँ हैं।
तृतीय शती ईसा पूर्व की सिंहली बौद्ध ‘अटठ्कथाओं’ पर आधारित ‘महावंस’ पाँचवीं सदी ईस्वी में भिक्खु महाथेर महानाम द्वारा रचित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद तथागत बुद्ध अपने पिता शुद्धोधन के आग्रह पर पहली बार कार्तिक अमावस्या के दिन कपिलवस्तु पधारे थे। कपिलवस्तु नगरवासी अपने प्रिय राजकुमार, जो अब बुद्धत्व प्राप्त करके ‘सम्यक सम्बुद्ध’ बन चुका था, को देखकर भाव विभोर हो उठे। सभी ने बुद्ध के कल्याणकारी धम्म के मार्गों को जाना तथा बुद्ध की शरण में वे आ गये। रात्रि में बुद्ध के स्वागत हेतु अमावस्या-रूपी अज्ञान के घनघोर अन्धकार को प्रदीप-रूपी धम्म के प्रकाश से नष्ट करने के सांकेतिक उपक्रम में नगरवासियों ने कपिलवस्तु को दीपों से सजाया था। किन्तु ‘दीपदानोत्सव’ को विधिवत् रूप से सन् 258 ईसा पूर्व से प्रतिवर्ष मनाना प्रारम्भ हुआ जब ‘देवनामप्रिय प्रियदर्शी’ सम्राट अशोक महान ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य, जो कि भारत के अलावा उसके बाहर वर्तमान अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक विस्तृत था, में बनवाए गये चौरासी हजार विहारों स्तूपों और चैत्यों को दीपमालाओं एवं पुष्पमालाओं से अलंकृत करवाकर उनकी पूजा की थी।
‘थेरगाथा’ के अनुसार तथागत बुद्ध ने अपने जीवनकाल में बयासी हजार उपदेश दिये थे। अन्य दो हजार उपदेश बुद्ध के शिष्यों द्वारा बुद्ध के उपदेशों की व्याख्या स्वरूप दिये गये थे। इस प्रकार भिक्खु आनन्द द्वारा संकलित प्रारंभिक ‘धम्मपिटक’ (जो कालान्तर में ‘सुत्त’ तथा ‘अभिधम्म’ में विभाजित हुई) में धम्मसुत्तों की संख्या चौरासी हजार थी। अशोक महान ने उन्हीं चौरासी हजार बुद्धवचनों के प्रतीक के रूप में चौरासी हजार विहार, स्तूप और चैत्यों का निर्माण करवाया था। पाटलिपुत्र का ‘अशोकाराम’ उन्होनें स्वयं अपने निर्देशन में बनवाया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि ‘दिव्यावदान’ नामक ग्रन्थ के उपग्रन्थ ‘अशोकावदान’ से भी हो जाती है जो कि मथुरा के भिक्षुओं द्वारा द्वितीय शती ईस्वी में लिखित रचना है और जिसे तृतीय शती ईस्वी में चीनी यात्री फाह्यान ने चीनी भाषा में अनुदित किया था।
पूर्व मध्यकाल में इस बौद्ध पर्व में मूल तथ्य के स्थान पर काल्पनिक कथानक जोड़कर प्रचलित त्योहार बना दिया गया।
डॉ. राहुल राज की उक्त तार्किक शोधपूर्ण ऐतिहासिक बातें कई लोगों के संज्ञान में कदाचित पहली बार आयी होगी। क्योंकि हमसे इतिहास की वास्तविकता को मिथकों की आड़ में छुपाया गया इसलिए ऐतिहासिक तथ्य भी अविश्वसनीय लगते हैं और बिन पंखों के नृवंशीय काया का उड़ना भी विश्वसनीय लगता है। चूंकि हमारे बालमन में ही विभिन्न तरीकों से मिथक भर दिये जाते हैं तो हम रावण के दस सिर होने, किसी देवी-देवता के चार या आठ हाथ होने की बात सहज रूप से सत्य की तरह स्वीकार कर लेते है जबकि यह कोरी कल्पना ही है।
जिसके नाम ‘मैसूर’ नामक राज्य और शहर था। उस महिसासुर को हमें बुरे इन्सान, राक्षक के रूप में बताया गया और हमने मान लिया जबकि उसकी हत्या करने वाले को पूजनीय रूप में स्वीकार कर लिया गया। ऐसे ही हिरण्य कश्यप राजा को भी ‘विलेन’ की भाँति जनमानस में स्थापित कर दिया गया। इस तरह विजेताओं ने स्वयं को देवी-देवताओं की तरह स्थापित कर लिया या उनके दरबारियों, प्रशंसकों या उपासकों ने उन्हें देव-तुल्य, ईश्वरीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। चूंकि श्रेष्ठि वर्ग के विचार, मान्यता या अवधारणा के विरूद्ध अन्यथा सोचने या करने का किसी में साहस नहीं था इसलिए वही मान्यताएं/परम्पराएँ धर्म का अंग मान ली गयी। इन परम्पराओं के जरिये पूजा/उपासना का कर्मकाण्ड शुरू हुआ जिसमे पूजा करने वाले वर्ग की पाँचों अंगुलियाँ घी में हो गयी। इससे जहाँ राजा की ख्याति फैलती, प्रजा उसे ईश्वर का अवतार/प्रतिनिधि/प्रतिरूप मानती वहीं पूजा कराने के नाम पर खूब भेंट चढ़ावा पूजक वर्ग को प्राप्त होने लगा। आज ये परम्परा इतनी गहरी/प्रगाढ़ हो चली है कि इसके विरूद्ध कुछ करना तो तो क्या सोचना भी असंभव हो गया है।
इस पूजक वर्ग के हितों को साधने के साथ ही तीसरे वर्ण के हित-संवर्धन की नीति गढ़ ली गयी। बहुत ही चालाकी के साथ पूजन-पद्धति के साथ ‘शुभ मुहूर्त’ का
षड्यंत्र रचा गया। शुभ मुहूर्त के नाम पर प्रजा को यह विश्वास दिलाया गया कि अमुक समय अवधि में पूजन, भेंट, कार्य करने से परिणाम इच्छित/अनुकूल/श्रेष्ठतर प्राप्त होते हैं। मुहूर्त निकालने के नाम एक नया धन्धा शुरू हो गया।
वस्तुतः मुहूर्त है क्या ? यह वह समय-अवधि है जिसमें पुजारी वर्ग को सहूलियत होती है, इस समय-अवधि में वर्ग विशेष के व्यक्ति-राजा/सेनापति/दरबारी ने किसी असुर-जो भारत की आदिम संस्कृति के प्रतिनिधि एवं रक्षक रहे, को यातना दी पराजित किया। इस काल-खण्ड की स्मृति दिलाने के लिए उसे शुभ मुहूर्त के नाम से महिमा मण्डित किया गया और इसे जबरदस्त तरीके से प्रचारित किया गया। शुभ मुहूर्त को मान्यता मिले, उसके प्रति प्रजा में विश्वास बने/बढ़े, इस हेतु कई कहानियाँ गढ़ी गयी और अशिक्षित-मूढ़ मति लोगों को लक्षित किया गया । अशिक्षित वर्ग के वे ही लोग थे जो तीन वर्णों की सेवा करके स्वयं को शुद्र कहने/मानने को विवश थे। आज भी चतुर्थ वर्ण के लोग शुभ मुहूर्त के झांसे में फंसे हुए हैं। चतुर्थ वर्ण-‘शुद्र’ के अलावा इस देश में मानव समाज का एक हिस्सा ऐसा भी था जिसकी छाया तक अपवित्र मानी जाती थी। चारों वर्णों में शुद्र की निम्नतम स्थिति थी मगर बिना नाम का पांचवाँ वर्ण वस्तुतः अछूत वर्ग था जो अमानवीय जीवन जीने (?) को बाध्य था। वर्ण-व्यवस्था के नियमों को तोड़ने पर इस अछूत वर्ग के लोगों को बर्बर तरीके से यातनाएं दी जाती थी। इस देश में शुद्रों और अछूतों की आबादी नब्बे फीसदी तक थी मगर सत्ता और संसाधन तीन श्रेष्ठि वर्ग के हाथों में सीमित थे। चूंकि शुद्र एवं अछूत सेवक/गुलाम के रूप में जीवन यापन करते थे इसलिए शासक-वर्ग द्वारा अधिरोपित शुभ मुहूर्त और पूजा-पद्धति को मानने के लिए बाध्य थे। पीढ़ियों से यह व्यवस्था चली आ रही है और शुद्रों एवं अछूतों के जीन्स/डीएनए में यह इस कदर समायी हुई है कि वे इसे अन्तिम/अकाट्य/ब्रह्मसत्य मानकर चलते हैं।
इस पृथ्वी पर और भी सैंकडों देश हैं। अरबों व्यक्ति निवास करते हैं, इस धरा पर। प्रति पल इस पृथ्वी पर जन्म-मृत्यु होती है, फल-फूल खिले हैं, मुरझाते हैं फिर कोई समय-विशेष कैसे शुभ-अशुभ हो सकता है? मगर विवेकशील व्यक्ति के अलावा दूसरे लोग शुभ मुहूर्त के ‘ट्रेप’ (जाल) में फंसे हैं। विवेक का शिक्षा से सदैव सकारात्मक सम्बन्ध होना अनिवार्य नहीं है। पढे़ लिखे लोग भी मूढमति की तरह ‘शुभ मुहूर्त’ के झांसे में फंसे हुए हैं। यद्यपि ‘शुभ मुहूर्त’ की सेवा देने वाला परिणाम की कोई गारण्टी नहीं देता मगर इसके बदले रूपये जरूर ऐंठ लेता है। शुभ मुहूर्त बताने वाले को खुद को यह पता नहीं होता कि उसकी क्या गति/प्रगति/दुर्गति होनी है, मगर शुभ मुहूर्त के नाम लोगों को उल्लू बनाने का काम सरेआम वह बखूबी करता है। ‘शुभ मुहूर्त’ बताने का काम को ‘सेवा’ के रूप में मानकर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में लाया जाना चाहिए।
इस शुभ मुहूर्त के नाम पर पूजक वर्ग एवं वणिक वर्ग जनता को जमकर बेवकूफ बनाते हैं। चूंकि आज इस देश में धर्म का आधार भय/अज्ञानता है, सो लोग शुभ मुहूर्त के नाम खरीदारी करने को स्वयं को बाध्य महसूस करते हैं। जनता यह सोचती है कि यदि शुभ मुहूर्त में खरीदारी होगी तो शायद उसके कष्ट कम हो जाए या उसकी मनोकामना पूरी हो जाए। शुभ मुहूर्त के नाम पर प्रजा के मन-मस्तिष्क पर मनोवैज्ञानिक दबाव इस कदर पडता है कि नहीं चाहते हुए भी लोग शुभ मुहूर्त में खरीदारी के लिए उमड़ पड़ते हैं। जिन चीजों की आवश्यकता तत्काल नहीं होती वे चीजें भी शुभ मुहूर्त में खरीदने की रस्म/प्रथा निभानी पड़ती है। उदाहरण देखिए- सर्दियों में फ्रीज की आवश्यकता नहीं पड़ती।
एअर कंडीशनर (ए.सी.) की सर्दियों में जरूरत नहीं होती मगर शुभ मुहूर्त में नाम पर लोग इन्हें गर्मियों के बजाय दीपावली पर खरीद लेते हैं। यही हाल ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलता है। शुभ मुहूर्त के नाम पर किसान की मानसिकता में आ जाता है तो गैर-जरूरी सामान खरीदने का मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं झेल पाता है। शुभ मुहूर्त के नाम पर वस्तुओं के दाम पहले अप्रत्याशित रूप बढ़ाये जाते हैं फिर उस पर नाटकीय छूट देकर जनता को भ्रमित किया जाता है।
शुभ मुहूर्त के नाम पर रूढ़ि के तौर पर भण्डारे/प्रसादी/सवामणी का प्रचलन भी जोरों पर है। प्रकृति की अनुकूलता से किसान की सफल अच्छी होती है और उसकी मेहनत सफल होती है। परीक्षार्थी को परिश्रम से वह परीक्षा उत्तीर्ण करता है, रोजगार पाता है। मगर अपने गाढ़े पसीने की कमाई को वह भण्डारों/प्रसादियों में खर्च करने का सामाजिक एवं धार्मिक दबाव महसूस करता है। अपनी वाजिब जरूरतों में कटौति करके वह अपना समय-धन भण्डारे की भेंट चढ़ा देता है। जो धन उसे परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगाना चाहिए या जो समाज के जरूरतमन्द व्यक्तियों की मदद, भलाई या सर्वहित-यथा शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए खर्च करना चाहिए, उस धन को वह भण्डारे/प्रसादियों में बहाता है। इसके जरिये वह स्वयं को धार्मिक होने का ढोंग करता है क्योंकि वह पाखण्ड के जाल में इस तरह फंसा हुआ होता है कि उसे इसका अहसास तक नहीं होता।
इस लेख का उद्देश्य यह नहीं है कि हम खुशी ही नहीं मनाएं बल्कि मंतव्य यह है कि हमें त्योहार/पर्व/उत्सव के मूल में जाना चाहिए और मिथको को छोड़कर ऐतिहासिक तथ्यों के प्रकाश में उत्सव का आनन्द लेना चाहिए। काल्पनिकता का सहारा लेकर कामना करने मात्र से कोई देवीय शक्ति, कोई पूजा-पाठ, कोई मन्त्रोचार या कर्मकाण्ड हमें वांछित परिणाम नहीं दिला सकते। अगर इनसे इच्छित कार्य पूरे होते तो हमारे देश पर कोई आक्रान्ता आक्रमण करने में सफल नहीं हो पाता, हम सदियों तक गुलाम देश नहीं होते। अगर इनमें इच्छापूर्ति की शक्ति होती तो देश के करोड़ों लोग दीन-हीन अवस्था में जीवन ढोने को बाध्य नहीं होते, इस देश में कोई अपराध नहीं होता, महिलाओं की इज्जत नहीं लूटी जाती। अगर दैवीय शक्तियों से ही भला हो जाता तो करोड़ों लोग अशिक्षा और अज्ञान में नहीं डूबे होते, वे पीने के पानी और दो वक्त की रोटी के मोहताज नहीं होते। दैवीय शक्ति वरदान देती तो आज चिकित्सालयों और दवा-उपचार-इलाज की जरूरत नहीं होती।
कर्मकाण्ड इतने ही असर कारक होते तो फिर क्यों नहीं इन्हीं के जरिये दुश्मन राष्ट्र को परास्त कर दिया जाता, क्यों आज भी सीमा-विवाद कायम है? कर्मकाण्ड अगर इतने ही असरदार है तो क्यों नहीं उन्हें सीमा पर तैनात किया जाता? क्यों आधुनिक अस्त्र-शस्त्र और सैनिक सीमा से हटाये नहीं जाते?
कर्मकाण्ड का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है बल्कि धर्म एवं ईश्वर के नाम कर्मकाण्ड एक धन्धा बना हुआ है जिसमें मुनाफा ही मुनाफा एक दो वर्ग विशेष ही उठाते हैं। कर्मकाण्ड में प्रयुक्त सामग्री बेचने वाले खूब लाभ कमाते हैं और वो सामग्री जिस पुजारी के काम आती है वह भी बिना कीमत चुकाये उसका भोग करता है साथ ही कर्मकाण्ड कराने का शुल्क, चढ़ावा भी सहर्ष प्राप्त करता है मगर तर्कहीन व्यक्ति ठगा जाता है।
वास्तविक कारण हो तो खुशी अवश्य ही होती है उसे मनाने के लिए धर्म/समाज का मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं होता है। जैसे अच्छी फसल होती है किसान स्वतः ही खुश हो जाता है। अपने परिवार की जरूरतों की चीजें अनायास ही लाने का मन बना लेता है। विद्यार्थी का परीक्षा परिणाम इच्छानुकूल होता है तो उसे किसी बहाने की आवश्यकता नहीं रहती बल्कि यह स्वाभाविक रूप से खुश हो जाता है। घर-परिवार में किसी बच्चे के जन्म होने पर स्वाभाविक प्रसन्नता होती है। फसल के दाम सही मिलने पर, पशुधन में बढ़ोतरी होने पर, परिजनों की सगाई-विवाह होने पर जो प्रसन्नता/खुशी होती है वह वास्तविक होती है, चिर स्थायी होती है जबकि धार्मिक/सामाजिक/रूढ़िगत दबाव के रूप में त्योहार/पर्व की खुशी उस अवसर के गुजरने के साथ समाप्त हो जाती है और उसे फिर उसी बहाने के रूप में अगले साल खोजना/पाना होता है। तो हमें सच्ची खुशियाँ मनानी चाहिए न कि राजा की जीत की। इन राजाओं के जीत का जश्न केवल उनके अहंकार का पुष्ट करता है, हमारे जीवन का उससे भला कभी नहीं हुआ। किसी भी देवी-देवता की आराधना हमारे पूर्वज सदियों से करते आये हैं मगर पूर्वजों की स्थितियां उनकी मेहनत से ही बदली/सुधरी/कोई दैवीय शक्ति उनकी निर्धनता, बेरोजगारी, बीमारी, अन्याय, अत्याचार और पीड़ा से नहीं बचा पायी। शिक्षा, जागृति, एकता, वैज्ञानिक सोच और मानवीयता की राह पर चलकर ही दुनिया के लोग सम्मानजनक जीवन जी पा रहे हैं। कर्मकाण्डी त्योहारों/रूढ़ियों के जरिये तो कमजोर, अशिक्षित, पिछड़े और वंचित वर्ग के लोग आज भी ठगे ही जा रहे हैं। हमें तब खुशी मनानी चाहिए जब वंचित, पीड़ित वर्ग के लोगों को उनका हक दिलाने के लिए किसी महापुरूष ने जन्म लिया हो। हमें उन घटनाओं/अवसरों की याद में खुशी मनानी चाहिए जब हमें न्याय, समानता और सम्मान मिला हो, जब हमारा संविधान लिखा गया हो, जब संविधान को लागू किया गया हो।
धर्म के ढकोसले के बजाय हमें मानवता के मूल्यों को जीने, और ऐसे मानवतावादी विचारकों, महात्माओं, महापुरूषों के जीवन की सुखद व कल्याणकारी घटनाओं की स्मृति में भी खुशी मनानी चाहिए। तो आईये ! बाहरी दिखावटी रूढ़िवादी खुशी के बजाय सच्ची खुशी मनाइये। सच्ची खुशी आपकी आत्मा को आनन्द से भर देगी।
-पण्डित बी.आर. भारतीय
फोटों गुगल से साभार