मंजिल अभी दूर है...!


यदि वैश्विक परिवेश में देखें तो भारत की व्यापार के क्षेत्र में हालत ही पतली है क्यांकि पूरे देश को ही हमारी शिक्षा प्रणाली केवल नौकरी करना सिखाती है! फिर भी यदि विशेषकर अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग की ओर नज़र घुमाएँ तो पाते हैं कि स्थिति अत्यन्त ही दयनीय है। हम व्यपार के नाम पर सदियों से हमारे मस्तिष्क को केवल सेवा के लिए प्रशिक्षित किया गया है और हम सेवा से परे कुछ सोचें ही नहीं, इसको भी जातिवादी परम्पराओं के माध्यम से सुनिश्चित कर दिया गया। ये हम भली-भाति जानते हैं कि मनुष्य का मानसिक विकास जिन परिस्थितियों में किया जाए वह वैसे ही ढल जाता है। तभी तो सेवक की संतान सेवा सीखती है, अभिनेता की संतान अभिनय सीखती है, राजनीतिज्ञ की संतान राजनीति आसानी से सीखती है उसी प्रकार व्यापारी की संतान भी व्यापार आसानी से सीखती है। ये संतानें इन्हीं कामों को करना स्वीकार करें या ना करें ये उनकी इच्छा पर निर्भर करता है वरना अति सूक्ष्म परिश्रम से सीख तो जाते ही हैं। फिर अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के मामले में तो सुनिश्चित ही कर दिया गया था कि हम सेवा के निश्चित दायरे से बाहर निकल कर सोचे ही नहीं। और ये वर्जनाए आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं वरना हमारे रेस्टोरैंट या चाय की दुकान ग्रामीण या अर्द्ध-शहरी कस्बों में सफल क्यों नहीं होती? हम से कोई मकान बनवाना, कपड़े सिलवाना, पंक्चर बनवाना जैसे छोटे-मोटे व्यापार ही क्यों करवाना पसंद करता है? खाद्य-सामग्री या पूजा सामग्री के सामान को खरीदते वक्त दकियानूसी खरीददार दुकानदार की जाति का ध्यान क्यों रखता है? 
  
सब्जी-बिक्री और भवन-निर्माणः - अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग द्वारा अधिकतर अपनाए गए व्यवसाय
ये व्यापारिक समाज की एक निश्चित सोच है जिसमें समाज के अन्य वर्ग भी ढले हुए हैं। भारत में हमने सभी धंधों के भी कोष्ठक बना दिए हैं। कौनसा क्या कार्य करेगा यह इस तरह से सुनिश्चित किया गया है कि दूसरा वर्ग उस कार्य को यदि करेगा तो वह बुरी तरह असफल हो यह समाज के बाकि वर्गों द्वारा सुनिश्चित किया जाता है। यदि बनिए की संतान व्यापार करना चाहती है तो संपूर्ण बनिया वर्ग उसे सफल बनाने में लग जाता है जैसे बिना ब्याज के ऋण देना या सही स्थान तलाश करने में सहायता करना या समयानुसार सही धन्धे का चुनाव करने में सहायता करना या पुराना व्यापार धराशायी हो जाए तो उसे पुनः खड़ा करने में भरपूर योगदान देना टैक्स चोरी में सहायता करना इत्यादि। तभी तो इन्हें सरकार से किसी भी मदद की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह अलग बात है कि सरकार की मदद ये करते हैं तो सरकार को चूना लगाने के नए-नए नुस्खे बताकर सरकारें भी इनकी सहायता के लिए हमेशा तैयार रहती हैं। वैसे ये परिदृश्य तो वैश्विक है परन्तु व्यापार स्थापना में समानता का व्यवहार अन्य पूँजीवादी देशों में अधिक है हमारे देश में न केवल अव्यावहारिक प्रतियोगिता है बल्कि अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के व्यापारी के प्रति शत्रुता का ही व्यवहार व्याप्त है। अवसर की समानता हो तो सभी वर्गों को फलने-फूलने का भरपूर मौका मिले तब पता चले कि कौन किस काम में महारत रखता है।
जहाँ-जहाँ अवसर की समानता का वातावरण है अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के व्यापारी व्यापार में भी अपना लोहा मनवा रहे हैं और सदियों की दकियानूसी सोच को धत्ता बता रहे हैं। उदाहरणतः, अनुसूचित जातियों में व्यापार को बढ़ावा देने में तथा जागरूकता बनाए रखने में दक्षिण भारतीय उत्तर भारतीयों से आगे हैं। सरकारों की सहायता के बिना यह सम्भव नहीं होता है। इस बात में कोई दो-राय नहीं होनी चाहिए कि जैसे-जैसे शिक्षा का वातावरण बनता है, शिक्षित नागरिकों की संख्या बढ़ती जाती है वैसे-वैसे युवाओं की आकांक्षाएँ भी पींगें भरने लगती हैं। वे अपने इर्द-गिर्द जीवन-यापन के जरिए सभी तरह के तौर-तरीकों को शोधना आरम्भ करते हैं और फिर जो अति लुभावना और लाभकारी होता है उसे चुन कर आगे बढ़ जाते हैं। व्यापार करना सर्वोत्तम लाभकारी है इस बात को समझने के लिए कोई रॉकेट-साइन्स पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। अतः युवाओं को व्यापार के प्रति सतत आकर्शित बनाए रखने के लिए किसी भी राज्य के बैंकिंग वातावरण और सरकार की व्यापार-परक योजनाओं को लागू करने की इच्छा-शक्ति को सारा श्रेय जाता है। और यह सारी तश्वीर निःसंदेह दक्षिण भारतीय राज्यों की अधिक निखरी हुई है। निम्नलिखित सारणी से यह स्पष्ट है कि जहाँ भी प्रत्येक वर्ग को सरकार ने समानता से व्यापारिक पदिश्य में लाने का प्रयास किया वहाँ अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग भी खुल कर सामने आया है।
दक्षिण भारत व उत्तर भारत के राज्यों में अनुसूचित जाति के व्यापारियों द्वारा स्थापित कम्पनियों की स्थिति



  1. राज्य का राष्ट्रीय स्तर पर स्थान राज्य अनुसूचित जाति के व्यापारियों द्वारा स्थापित कम्पनियों  की संख्या
    1. तमिलनाड़ू 18120
    2. कर्नाटक 16580
    3. उत्तर प्रदेश 14140
    4. मध्यप्रदेश 13650
    5. पंजाब 6350
    उत्तर भारतीय सरकारें केवल विकास का नाम जानती हैं लेकिन विकास के लिए क्या करना है ये उनको सूझता ही नहीं। मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी इसका एक कारण है। दूसरा बड़ा कारण संकुचित जातिवादी विचारधारा का दामन अनन्तकाल तक थाम कर चुनावों में सफलता को एक मात्र ध्येय बनाकर आगे बढ़ना। जब तक उत्तर भारतीय- ‘‘मैं आगे, मैं आगे’’ की ओछी मानसिकता से बाहर आकर ‘‘सबका विकास’’ जैसे जुमलों को केवल जुमला ना बनाकर उन्हें मूर्त्तरूप देने की आवश्यकता पर बल नहीं देंगे, दक्षिण भारत के राज्यों की बराबरी नहीं कर सकेंगें। 
    वैसे तस्वीर उतनी धूमिल भी नहीं है। हमारे कुछ सेनानी व्यापार के क्षेत्र में उतरे हुए भी हैं और अच्छी लड़ाई लड़ रहे हैं। इनमें मुख्य रूप से संतोष कांबले, कल्पना सरोज, मिलिंद काम्बले  इत्यादि हैं जिनकी कम्पनियों के नेट-वर्थ 10 करोड़ या उससे अधिक हैं। केन्द्र सरकारें भी लगातार प्रयास करती रही है कि अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग की आरक्षण पर निर्भरता समाप्त की जाए और उन्हें स्वावलंबी बनाया जाए। ये कदम कानून व्यवस्था के लिए भी सकारात्मक सिद्ध होते है क्योंकि बहुत सारी पिछड़ी जातियाँ चोरी और जरायम पेशों पर अपना जीविकोपार्जन निर्भर कर देती हैं। यदि इनके युवाओं को किसी सकारात्मक कार्य में लगाया जाए तो वे निश्चित रूप से समाज के लिए फलदायी होगा। काश! राज्य सरकारें भी इस दिशा में कुछ अच्छे कदम उठा पाती! राज्य सरकारें ‘‘तुरत-फुरत’’ प्रकार के इलाज मात्र में विश्वास करती हैं ताकि वोट माँगते समय इनका गुण-गान किया जा सके। कोई भी स्थायी हल ढूँढने की उनकी स्पष्ट मंशा दिखाई नहीं देती।
    ‘‘स्टैंड-अप इन्डिया’’ भी एक अच्छा कदम है जिसमें 10 लाख से 1.00 करोड़ तक का ऋण बाजार दर से कम ब्याज दर पर दिया जाता है तथा इसके तहत 5 वर्ष के अन्तराल में लगभग 1,25,000 अनुसूचित जाति/जनजाति की कम्पनियाँ खड़ी करने का प्रावधान रखा गया है। वैसे ये संख्या हमारी जनसंख्या के हिसाब से कुछ खास नहीं है क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति की 30 करोड़ से अधिक की जनसंख्या जिसमें लगभग 20 करोड़ युवा 18 से 35 वर्ष के हैं (यानि लगभग 65 प्रतिशत) वहाँ ये ऊँट के मुँह में जीरा ही है लेकिन कुछ नहीं होने से तो कुछ होने की कसम खा लेना ही पर्याप्त है। कम से कम इच्छा-षक्ति तो दिखाई देती हैसरकार की। वैसे जिन-जिन लोगों ने ‘‘स्टैंड-अप इन्डिया’’ के तहत ऋण के लिए आवेदन किया होगा उनको पसीने भी खूब आए होंगे बैंकों की शर्तेंं पूर्ण करने में।
    एक और सकारात्मक परिवर्तन केन्द्र सरकार ने कर रखा है कि सरकारी विभाग जो भी वर्ष-भर में खरीद करेंगे उसका 25 प्रतिशत वे ‘‘लघु और मध्यम स्तर के उद्यमों’’ (डैडम्) से खरीदेंगें। इस 25 प्रतिशत में से भी 4 प्रतिशत अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के उद्यमियों से खरीदा जाएगा। ये मार्केट में कुछ हद तक भेदभाव से पार पाने के लिए अच्छा कदम है। इसे भी ईमानदारी से लागू करने की आवश्यकता है।   
    कुछ सफल अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के व्यवसायियों के जीवन में झाँकें तो हम पाते हैं कि उपनाम परिवर्तन का आधुनिक बाजार संस्कृति में अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जैसे ही आप व्यापारिक गतिविधियों में आगे बढ़ते हैं और फाईनैंसर, मैटिरियल सप्लायर या डीलर और तैयार माल की खपत के लिए मार्केट एजैंटों के सम्पर्क में आते हैं तो पारम्परिक रूप से व्यापारिक गतिविधियों में संलग्न जातिवादी उपनामों की अधिक विश्वसनीयता मानी जाती है। जैसे ही मार्कैट प्लेयर्स को पता चलेगा कि आप अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग से हैं तो वे अपने हाथ खींचना प्रारम्भ कर लेंगें। उन्हें आप विश्वास दिला सकें कि आप का वर्ग कुछ भी हो आप इस व्यापार को सफलता पूर्वक चला पाएँगें तो वे विश्वास नहीं करेंगें। ये हकीकत है और इसका सामना करना ही पड़ता है। अतः कई अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के सफल व्यवसायियों ने अपने उपनाम बदल लिए जैसे कुछ पटेल बन गए, कुछ चौधरी बन गए, कुछ राय बन गए, कुछ गोयल बन गए इत्यादि। अब ये आपके लिए बहस का मुद्दा हो सकता है कि वे सही करते हैं या गलत परन्तु मार्केट में टिकने के लिए सब कुछ जायज है।   
    दयनीय स्थिति तो अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के राजनीतिज्ञों की है! या तो वे कम पढ़े लिखे हैं या फिर सेवानिवृत्त सेनानी हैं जिनका सारा तेल समाप्त हो चुका है और वे केवल ‘‘भागते भूत की लंगोटी’’ समेटने में लगे हुए है, उच्चाधिकार प्राप्त राजनीतिज्ञों की कृपा का पात्र बनकर! युवाओं की आकांक्षाओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दुःख की बात यह है कि हमारे राजनीतिज्ञ भी अन्य वर्गों की भाँति कुशल व्यापारी भी नहीं बन पाते! हम तब भी संतुष्ट हो जाएँ इनके क्रिया-कलापों से यदि ये स्वयं तो कुछ ढँग के प्रतिष्ठान ही स्थापित करने में सफल हो जाएँ! लेकिन कुछ पता नहीं चल पा रहा कि पिछले 70 वर्ष से अधिक बीतने के बाद भी इतने राजनीतिज्ञ अनुसूचित जाति/जनजाति वर्गों से निकले लेकिन सफल व्यापारी ना तो स्वयं ही बन सके ना ही इनकी पीढ़ियों ने कुछ तीर मारा। ये हमारे राजनीतिज्ञों का असफलता का सबसे बड़ा कारण है अपने चुनाव अपने दम पर ना जीतकर सामान्य वर्ग की बैसाखियों पर लंगड़ाते हुए आगे बढ़ते रहने की मजबूरी आर्थिक रूप से विपन्न बने रहने के कारण है। दुर्भाग्य यह है कि ये अपने लोगों को कभी अच्छा भाषण भी नहीं दे पाते जिससे कि हमारे जवानों को ही कुछ प्रेरित कर पाएँ अच्छे व्यापारी बनने के लिए। केवल सब्जी बेचो या मिस्त्री बनो या सेवा के अन्य कार्यों के लिए नित नए प्रयास करते रहो। इसे कुछ लोगों ने भाग्य की संज्ञा देकर इसे असम्भव और बना दिया है। जबकि हम सब जानते हैं कि व्यापार भाग्य का नहीं सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने का नाम है। हमें आवश्यकता है युवाओं को व्यापार लगाने के लिए और जो अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के व्यापारी अच्छा मुकाम पा चुके है उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने की। मुश्किलें आती हैं और आएँगी लेकिन यदि गरीबी और सेवा करते रहने की व्यवस्था से बाहर निकलना है तो इन मुश्किलों का सामना कर आगे तो बढ़ना होगा। सामाजिक संस्थाएँ भी कुछ व्यापार-परक सेमीनार इत्यादि करवाएँ और कौशल प्रशिक्षण के शिविर इत्यादि को भी एक परम्परा बनाएँ ताकि समाज में व्यापारी वर्ग की संख्या बढें और सकल समाज सम्पन्नता की ओर आगे बढ़ कर बाबा साहब के सपने साकार करे। 


           फोटो गुगल से साभार