महिलाओं की कुछ स्वजनित परतंत्रता की बेड़ियाँ 



 

 

इसे विडम्बना ही कहें कि महिलाओं की स्वतंत्रता सम्पूर्ण विश्व में धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है अतः इनकी स्वतंत्रता किसी भी देश के स्वतंत्र होते ही नहीं हो जाती है। जो स्वतंत्रताएँ पुरुषों को प्राप्त हैं उन्हें महिलाओं के लिए स्वतः ही प्राप्त कर पाना अन्यन्त कठिन काम है। कुछ महान हस्तियों ने इस दिशा में भरसक प्रयास किए और धीरे-धीरे कुछ स्वतन्त्रताओं को प्राप्त करवाने में महिलाओं की सहायता भी की है। इनमें सबसे अग्रणी नाम है बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का, जिन्होंने महिलाओं को संवैधानिक समानता देकर पुरुषों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया। अन्य उल्लेखनीय प्रयास रहें राजा राम मोहन राय के, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के, ज्योतिराव व सावित्रि फुले के। यहाँ तक कि भारत में तो महिलाओं के अधिकरों को पुनर्परिभाषित करने में अँग्रेजों का योगदान भी कम नहीं रहा है। 

चारों ओर से सामाजिक उत्थान के पुरोधाओं के प्रयासों के बावजूद भी महिलाओं ने अपने आपको धार्मिक और सामाजिक वर्जनाओं में जकड़े रखने का भरपूर प्रयास किया है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को स्वयं को इन गर्हित बन्धनों से स्वतंत्र होना नहीं आया और वे आज भी धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं की इतनी गुलाम हैं कि उन्हें अपनी स्वतंत्रता की सुध ही नहीं है तथा वे स्वयं ही अपनी साथियों को परतन्त्र करवाने में और उन्हें परतंत्र बनाए रखने में पुरुषों की भागीदारी निभाती आ रही हैं। जब महिलाओं की परतन्त्रता की बात होती है तो दलित महिलाओं का तो एक अजीबोगरीब हाल है कि वे ना केवल अपने पारिवारिक पुरुषों की बल्कि अन्य पुरुषों की, जिनके गुलाम उनके पारिवारिक पुरुष होते हैं, की भी गुलाम ही बनी हुई है।

 

बेटे की चाहत बनी परतन्त्रता की बेड़ी- 

 

इन परतन्त्रता की बेड़ियों में सबसे अधिक दुखदायी हैं महिलाओं द्वारा स्वयं पहनी गई बेड़ियाँ। जिनमें सवार्धिक दर्दनाक है- बेटों को बेटियों से अधिक आँकने की बेड़ी। बेटों को वंशवृद्धि सम्पूर्ण श्रेय देने का प्रचलन पुरातन काल में भी कहीं ना कहीं महिलाओं द्वारा ही चलाया गया लगता है और इस कुरीति का बोझ हमारी बच्चियाँ अब तक ढोते आ रही हैं। इसका खामियाजा इतना बड़ा है कि यह कुरीति देश की उन्नति तक में बाधक है। सम्पूर्ण विश्व में बेटियों द्वारा बेटों से अधिक तरक्की और उपलब्धियाँ हासिल करने के बावजूद हमारे देश में बेटियों के बनिस्पत बेटों को महिलाओं द्वारा अधिक तवज्जो दी जाती है। जिसके बडे़ दुखदायी परिणाम देखे जा सकते हैं। बेटियों के गर्भ में ही मारे जाने से देश का लिंगानुपात हमेशा से गड़बड़ाया हुआ है। महिलाएँ पुत्र प्राप्ति के लिए सौ कष्ट सहन करने के लिए तैयार रहती हैं जिसके लिए उन्हें अपने शरीर से चीर-फाड़ करवाने में भी कोई परहेज नहीं है। बात यहीं खत्म नहीं होती अगर कोई महिला बेटा-बेटी दोनों को जन्म देती है, तब भी वह अधिक ध्यान बेटे की परवरिश पर ही देती है, क्योंकि वह बेटे को अपना और बेटी को पराया समझती है। 

बेटे को जहाँ शुरूआत से ही आजादी दी जाती है, वहीं बेटी पर कई तरह की बंदिशें शुरू हो जाती है, दोनों की परवरिश में यह भेदभाव महिलाओं की सोच के कारण है। कहने का तात्पर्य यह है कि महिलाएँ अपनी सोच को बदल कर नया आयाम लिख सकती है। इस बात को ध्यान में रख कर कि बेटे की तरह बेटी की रगों में भी उन्हीं का खून है। जिस दिन महिलाएँ यह सोचेंगी उस दिन कन्या भ्रूण हत्या के मामले खुद-बखुद कम हो जाएँगे। ये तो हुई परिस्थिति वाली बात, परन्तु यदि वैज्ञानिक रूप से सोचें तो बेटा या बेटी का होना महिला के नहीं बल्कि पुरुष के हाथ में है। जबकि बेटियों के पैदा होने का सारा जिम्मा महिलाओं के मत्थे मढ़ दिया जाता है। इसके चलते महिलाओं की फजीहत करने में सास-देवरानी पीछे नहीं रहती हैं और महिलाओं को शारीरिक यातनाएँ तक दी जाती हैं। इस तथ्य को चिकित्सक भी पता नहीं क्यों लोगों को नहीं समझाते कि बेटा या बेटी का होना महिला के नहीं बल्कि पुरुष के हाथ में है। 

महिलाओं के पुत्र-प्रेम के कारण ही भारत में लिंगानुपात के बड़े ही भयावह आंकड़़े हैं। अंडरस्टैंडिंग जैंडर इक्वैलिटी इन इंडिया 2012 के आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जैसे आर्थिक रूप से सम्पन्न राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति पांडिचेरी, छत्तीसगढ़, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, केरल और ओडिशा जैसे राज्यों की तुलना में बेहद कम है? दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या क्रमशः 866, 818, 813 और 877 है।

 

कुप्रथाओं का बोझा ढोती महिलाएँ-

 

कहते हैं अगर कोई औरत कुछ करने की ठान ले तो वह उसे कर के ही दम लेती है, मगर निराश करने वाली बात यह है कि ज्यादातर महिलाएँ किसी को बरबाद करने की भले ठान ले लेकिन कुछ अच्छा करने की नहीं ठानती है अगर वे ऐसा कुछ करती तो आज समाज में दहेज, बाल-विवाह, परदा-प्रथा जैसी कुप्रथाएँ अपने पाँव न पसारती, असल में महिलाओं की सोच ने ही इन प्रथाओं को जीवित रखा है।  

 

दहेज की बलिवेदी पर चढ़ती बेटियाँ और उकसाती महिलाएँ- 

 

दहेज एक ऐसी कुप्रथा है जिससे महिलाएँ स्वयं अपना पीछा छुड़ाना नहीं चाहती हैं। सास के पीहर वालों की इतनी बुरी गत देखकर भी कोई सास आपको अपने बेटे का ससुराल से दहेज माँगने का विरोध करती नज़र नहीं आएगी। दहेज के लिए पुरुष अपनी घर की महिलाओं के विरुद्ध अपराध 90 प्रतिषत मामलों में एक औरत के उकसाने पर ही करता है। यदि माँ अपने बेटे को बहु के विरुद्ध ना भड़काए तो हो सकता है आज कितनी ही बेटियाँ दहेज की बलि-वेदी पर ना चढ़ाई गई जाती और आज हमारी और आपकी तरह ज़िन्दा होती। दहेज-विरोधी फिल्में, विज्ञापन, धारावाहिकों से इन महिलाओं के सर पर जूँ भी नहीं रैंगती! इस महाअभिशाप से भारतीय महिला समाज कब बाहर निकलेगा पता नहीं। जो बुराई किसी जीते-जागते मनुष्य की जान ही ले-ले तो उसके विरुद्ध पूरा समाज मूक-दर्शक क्यों है?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकडों के अनुसार, वर्ष 2007 से 2011 के बीच देश में दहेज हत्याओं के मामलों में तेजी आई है। 2007 में ऐसे 1093 मामले दर्ज हुए, लेकिन 2008 और 2009 में यह आंकड़ा क्रमश 8, 172 और 8, 383 था। 2010 में इस प्रकार की 8399 मौतें दर्ज की गई और 2012 में भारत भर से दहेज हत्या के 8233 मामले सामने आए। आंकाड़ों के औसत की मानें तो प्रत्येक घंटे 1 महिला दहेज की बलि चढ़ रही है।

 

कर्म से ज्यादा धर्म पर यकीन-

 

हम सब जानते हैं कि मरने के दिन मानव के कर्म ही उसके विचारों की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है, लेकिन महिलाएँ हमेशा कर्म के बजाय धर्म को अधिक अहमियत देती है वे चाहे तो तीज-त्यौहार के मौके पर अनाथालय जा कर बेसहारा बच्चों को खुशी दे सकती हैं लेकिन धनसंपत्ति, खुशहाली तो कभी पति की दीर्घ आयु आदि की प्राप्ति के लिए वे धर्म स्थलों के द्वार पर जाकर खड़ी हो जाती हैं भले ही वे किसी गरीब या दीन-दुःखी की सहायता न करें, मगर धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों पर दान देने से पीछे नहीं हटती, ढोंगी साधू-बाबाओं में भी उनका गहरा विश्वास  होता है, घर में कलह से लेकर बाँझपन आदि समस्याओं के लिए समाधान निकालने के बजाय वे बाबाओं के ताबीजों का सहारा लेती हैं। यही वजह है कि आए दिन बाबाओं द्वारा महिला भक्तों पर रेप के मामले बढ़ रहे हैं। आज यदि महिलाओं के विचार स्वतंत्र होते तो बाबाओं की दुकानें न चलती। जबकि इनकी आँखें खोलने के लिए रात दिन फर्जी बाबाओं की खबरें छपती हैं लेकिन वैज्ञानिक सोच इन्हें छू भी नहीं पाती! बाँझपन का आज के युग में इलाज लगभग पूरी तरह सम्भव है। सबसे पहले इसका कारण समझना आवष्यक है क्योंकि बाँझपन पुरुष और महिला किसी भी एक का या दोनों का हो सकता है। लेकिन सास बनते ही महिला इतनी बुरी तरह बदल जाती है कि उसे अपने पुत्र का बाँझपन दिखाई ही नहीं देता और सारा दोष बहु पर ही मँढ़कर निश्चितं होने की जुगत में रहती हैं। और तो और ये गलतियाँ या कहें कि बेवकूफियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराई जा रही हैं। सभी बहुएँ सास बनती हैं और अपनी बेवकूफ सास वाली गलतियाँ ही दोहराती जाती हैं। और हाँ, शिक्षा का इन पर कोई असर नहीं होता है चाहे कला में स्नातकोत्तर हों या विज्ञान में हो! वही सुबह उठना, नहाना-धोना, थाली सजाना, नंगे पैर ही धार्मिक स्थल की ओर निकल लेना! किसी भी समझदार आदमी की एक नहीं सुनना! उसे एकाध गाली ही सुना देना। ना पढ़ती हैं ना गुणती हैं बस अपनी जैसी ही बेवकूफ बेबुद्धि महिलाओं के साथ फालतू चर्चा करना और सुधार को कोई अवसर ना देना। 

पढ़ी-लिखी महिलाएँ अधिक धर्म भीरू और दहेज-लोभी-

देखने में आया है कि उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च पदस्थ महिलाएँ भी आपको धर्म-आडम्बर और कर्मकाण्डों के वशीभूत होकर ऐसी-ऐसी बेवकूफियाँ करती मिलेंगी कि रोना आ जाता है उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा पर। ये अपनी बेवकूफ अनपढ़ बुजुर्ग रिश्तेदारों की बिना गुरेज के छोटी-छोटी बातों को अक्षरशः पालन करती नज़र आ जाएँगी। यही दुर्भाग्य है इस देश का जो इसका हो सकता है सदियों तक बन्टाढार करता रहेगा इसकी महिलाओं की बेवकूफियों के कारण! महानगरों की बात करें या कस्बों की, महिलाएँ पूर्णरूप से स्वतंत्र होने के बाद भी कोई निर्णय लेने से पहले अपने पति या सहयोगी की राय जरूर लेती है। किचन क्वीन होने के बाद भी ‘‘खाने में क्या बनाऊँ’’ जैसा छोटा सवाल वे परिवार वालों से करती हैं। वे अपने कमाए पैसों का निवेश भी खुद नहीं कर पाती। स्वतंत्र होते हुए भी महिलाओं ने खुद को सीमाओं में जकड़ रखा है, जिसे देख कर तो कतई नहीं लगता कि स्वतंत्र देश की स्वतंत्र महिलाएँ विचारों से भी स्वतंत्र है।

मई 2016 को एक एनआरआई उच्च शिक्षा प्राप्त महिला ने पंजाब के एक बाबा पर रेप करने का मामला दर्ज करवाया। महिला का आरोप है कि एक पाखंडी बाबा ने उसे बुरी आत्माओं से बचाने के नाम पर उस के साथ रेप किया। बाबा का कहना था कि वह उसे बुरी आत्माओं से आजाद करा देगा। आरोपी बाबा ने महिला के साथ गलत हरकते की,  महिला द्वारा आपत्ति जताने पर वह कहता कि वह उसके साथ नहीं बल्कि बुरी आत्माओं के साथ ऐसा बरताव कर रहा है। आश्चर्य तो इस बात का है कि पढ़ी-लिखी महिलाएँ भी ऐसे बाबाओं के झाँसे में आ जाती है। कुछ दिन पहले ही बाराबांकी में महिलाओं की गोद भरने के नाम पर 100 से भी अधिक महिलाओं का यौन-शोषण करने वाले स्वयंभू बाबा परमानन्द को गिरफ्तार किया गया। यह बाबा महिलाओं का यौन शोषण करने के साथ-साथ उनका अश्लील विडियों बना कर उन्हें अपने जाल में उलझा लेता था। 

 

जिम्मेदारी पति के कंधो पर ही क्यों-

 

वे दिन गए जब महिलाए गृहणी हुआ करती थी। आज मैट्रो सिटीज की कई महिलाए वर्किंग है लेकिन बात जब भी आर्थिक जिम्मेदारी संभालने की आती है तो महिलाएँ अपना पल्ला झाड़ लेती है। उन्हें लगता है कि पैसों से जुड़ा मामला पुरूषों को संभालना चाहिए। घर के राशन से ले कर खुद की खरीददारी तक वे पति के पैसों से करना चाहती है। आज भी होटल में लंच या डिनर पार्टी के बाद महिलाएँ बिल भरने के लिए पुरूषों का मुँह ताकती है। कभी खुद से पहल नहीं करती हैं। पैसा खर्च करने की जिम्मेदारी सिर्फ पुरूषों की है। महिलाओं को अपनी यह सोच बदलनी चाहिए, क्योंकि जब वे बाकी मामलों में पुरूषों की बराबरी कर सकती है तो उन्हें आर्थिक जिम्मेदारी को भी बराबर बांटना चाहिए। 

 

महिलाओं को मानसिक रूप से स्वतंत्र होना होगा-

 

डॉ. निमिषा, मनोचिकित्सक, इंटरनेशनल सर्टिफाइड लाइफ कोच कहती है कि महिलाओं को भी और हम सभी को अपनी मानसिकता में कुछ परिवर्तन लाने होंगे। सदियों से महिलाओं को आश्रित, परतंत्र या कमजोर देखा और माना गया है, जिस का काफी हद तक प्रभाव महिलाओं की खुद की मानसिकता पर होता है। उदाहरण के तौर पर अकसर महिलाएँ जहाँ स्वतंत्रता से स्वयं का विकास कर सकती है, वहां भी इस मानसिकता और तमाम भूमिका निभाने के दबाव में वे अपना ध्यान नहीं रख पाती है। उनकी मानसिकता उन्हें सिर्फ दूसरों का ध्यान रखने, त्याग करने या दूसरों के लिए जीने के लिए प्रेरित करती है। अफसोस कि विचारों से महिलाएं आज भी स्वतंत्र नहीं है वे आज भी वही बोलती हैं जो लागों को सुनने में अच्छा लगता है। शादी और रिश्तों की मर्यादा संभालते-संभालते उन की आवाज भी दब गई है और उन की आवाज तब तक दबी रहेगी जब जक वे खुद के लिए बोलेंगी नहीं, जब तक महिलाओं को इस बात की परवाह रहेगी कि लाग क्या सोचेंगे तब तक वे मजबूत हो कर भी कमजोर ही रहेंगी। बेशक आज की महिलाएं पावरफुल हैं उन्हें किसी की जरूरत नहीं है, वे पूरी तरह से स्वतंत्र है और अपने और आपनों से जुडे लोगों के जीवन की बागडोर संभालने में सक्षम भी, लेकिन बात जब विचारों की आती है तो उनके विचार आज भी उतने प्रभावशाली नहीं है, जितने कि होने चाहिए, तो भला कोई कैसे कह सकता है कि महिलाएं विचारों से स्वतंत्र है?

महिलाओं  का शिक्षित होना बेहद जरूरी है, शिक्षा से उनका आत्मविश्वास बढ़ता है निर्भयता आती है और उन्हें बहुत जानकारी मिलती है। महिलाओं को खुद के विषय में संतुलित सोच रखनी चाहिए, उन्हें भावनाओं में बह कर नहीं सोचना चाहिए और ना ही भावनाओं में आ कर कोई फैसला करना चाहिए। किसी भी सामाजिक सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि समाज द्वारा थापा गया कोई भी निर्णय आप की खुशी और शांति से बढ़ कर नहीं है। एक खुश और शांत महिला समाज को बहुत कुछ दे सकती है। महिलाओं को अपने निर्णय खुद लेने चाहिए, इससे वे ज्यादा सफल साबित होंगी और अधिक स्वतंत्र हांगी।

 

-डॉ. हेमलता आंकोदिया

एसोसिएट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान)

राजकीय कन्या महाविद्यालय,

चौमू,जयपुर

9414938449

 

 

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