शीर्षक देखकर जैसे आप चौंक गए ऐसे ही सभी चौंक जाते हैं लेकिन फिर भी अनुसूचित जाति/जनजाति की कुछ ऐसी दिलेर महिलाएँ हैं जिन्होंने इस काँच की छत को तोड़ कर अपने आप को स्थापित किया है और अपना व्यापार बखूबी सफलतापूर्वक चला रही हैं। भारतीय समाज में महिला होना ही एक किसी अपराध से कम नहीं है। देवी की तरह पूजना, घर की लक्ष्मी होना इत्यादि सब गाल-गपोड़े हैं, केवल वज्र-हृदय पुरुष ही महिला को अपने बराबर समझता है और दिल से सम्मान देता है और दिलाता है। यहाँ पैदा होते ही लड़कियों को दफन कर दिया जाता है, कचरे में मिलने वाले बच्चों में 80 प्रतिशत से अधिक केवल बालिकाएँ हैं, और लड़के की आस में 9-9 लड़कियाँ पैदा कर दी जाती हैं जैसे उन 9 लड़कियों का तो कोई वजूद ही नहीं हो!! ऐसे समाज में महिला, जो अपना सम्मान पुरुषों के लिए विशेष रूप से स्थापित क्षेत्र में ढूँढना चाहे तो आप सोच सकते हैं उसे धारा के विपरीत तैरने में कितना कष्ट उठाना पड़ता होगा।
अब कल्पना कीजिए अनुसूचित जाति/जनजाति की महिला की! एक तो वह महिला और फिर अनुसूचित जाति/जनजाति की भी! संघर्ष की इसे पराकाष्ठा ही कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। लेकिन कुछ वीरांगनाओं ने (वीरांगना संज्ञा इस लिए क्योंकि उनका भारत जैसे देश में व्यापार में सफल हो जाना किसी युद्ध जीतने से कम नहीं है) इन सभी परिस्थितियों पर पार पा कर अपने व्यापार को ना केवल स्थापित किया अपितु उसे लाभकारी भी बनाया और वे आज भी अपने दृढ़ इरादों पर अडिग हैं। आइए ऐसी ही कुछ महिलाओं की संघर्षों की कहानी से हम यहाँ रूबरु हो लें। हो सकता है आप लोगों में जो भी महिला पाठक हों वे प्रेरित होकर व्यापार के क्षेत्र में भी अपने हाथ आजमाएँ और जो पिता और भाई और पति हों वो अपनी घर की महिलाओं को बताएँ और उन्हें प्रोत्साहित करें कि व्यापार केवल पुरुषों का क्षेत्र नहीं है।
कल्पना सरोज- कल्पना सरोज 3000 करोड़ रुपए के व्यापार की मुखिया हैं! जी हाँ 3000 करोड़ रुपए!! वे महाराष्ट्र के अकोला जिले के एक पुलिस काँस्टेबल की पुत्री हैं। कल्पना दलित इन्डियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एण्ड इन्डस्ट्रीज द्वारा आयोजित प्रथम ट्रेड-फेयर की 5 प्रतिभागियों में से एक थी।
कल्पना की कहानी किसी भी निर्धन अनुसूचित जाति परिवार से अलग नहीं है लेकिन ये उनकी व्यापार के क्षेत्र में अद्वितीय उपलब्धियाँ हैं जिनके कारण वे और उनकी कहानी अलग हुई है। 12 वर्ष की उम्र में स्कूल से निकालकर उनकी शादी कर दी गई और कुछ महिनों में ही सास-ससुर के जुल्मो-सितम से तंग आकर उन्हें ससुराल भी छोड़ना पड़ा। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने पिता की तरह पुलिस में भर्ती होने का प्रयास किया लेकिन नाकामयाब रही। उन्होंने नर्सिंग में भी जाने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। उन्होंने अपने गाँव में ही सिलाई का काम आरम्भ किया लेकिन गाँव वालों ने उन्हें ‘‘छोड़ी हुई दुल्हन’’ की संज्ञा देकर उनसे कपड़े सिलवाने से मना कर दिया। उन्होंने तंग आकर घर छोड़ दिया और मुम्बई आकर एक गुजराती परिवार के घर में शरण लेकर होजरी की फैक्ट्री में 2/- रुपए प्रतिदिन में नौकरी आरम्भ की। 22 वर्ष की उम्र में सरोज ने एक फर्नीचर निर्माता से दूसरी शादी की और अपने पति की बंद पड़ी स्टील फर्नीचर की फैक्ट्री को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने 1995 में भवन-निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया और एक अलौह धातु से ट्यूब बनाने वाली ‘‘कमानी ट्यूब्स’’ को खरीद डाला। ये 116 करोड़ की एक बीमार यूनिट थी और लोगों ने कल्पना को इस मूर्खतापूर्ण सोदे के प्रति आगाह भी किया था। लेकिन कल्पना ने अपने आत्मविश्वास और अथक परिश्रम से इस यूनिट को केवल साल भर में लाभकारी बना दिया। इस सौदे ने उनकी व्यपारिक क्षमताओं को पंख लगा दिए और आज वे होटल, चीनी, आर्ट-गैलरी तथा स्टील फर्नीचर इन्डस्ट्री इत्यादि की मालकिन हैं। जीरो से हीरो की ऐसी गाथाएँ अनुसूचित जाति के पुरुषों के लिए ही बिरली है फिर एक अनुसूचित जाति की महिला द्वारा इतना कर पाना प्रशंसा से परे है।
गीता परमार- गीता परमार अपनी स्टील फर्नीचर की कम्पनी अपने पति के साथ 1971 से चला रही हैं। उनके पति गुजरात में फैक्ट्री का काम देखते हैं वे मुम्बई में मार्केटिंग का सारा काम देखती हैं। आज 62 वर्ष की हो गई हैं लेकिन उनका व्यापार के प्रति लगाव एक युवा जितना ही है।
अपर्णा कदम- अपर्णा केवल 30 वर्ष की है और ईवन्ट मैनेजमैंट जैसे पुरुष-प्रधान पेशे में कम्पनी की मालकिन हैं। उनको आज भी पुरुषों द्वारा चलाई जा रही कम्पनियों से कठिन प्रतियोगिता मिलती है लेकिन वे हार नहीं मानने की ज़िद से आगे बढ़ जाती हैं। ईवन्ट-मैनेजमैन्ट के कार्य में वैसे जातिवाद या दकियानूसीपन कम है लेकिन महिलाओं का इन कम्पनिओं में काम करना तो लोगों को बर्दास्त है लेकिन उनका मालकिन होना आज भी पुरुषों के अहम के लिए ज्वलनशील है! आज अपर्णा लैदर गारमैंट मैन्यूफैक्चरिंग में तथा ज्वैलरी डिजाइनिंग व मैन्यूफैक्चरिंग में अपना अलग वर्चस्व रखती हैं ओर 100 करोड़ के लगभग टर्न-ओवर है इनका!
कलावती श्रीधरन- कलावती चैन्नई की व्यापारी है और ये एक ऐसा काम करती है जो कोई पुरुष व्यवसायी भी करने की हिम्मत नहीं कर सकता। ये स्वयं के समाज यानि अनुसूचित जाति से ही अपना सारा स्टाफ चुनती हैं। इनकी चैन्नई में गारमैंट मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट है जिसमें 100 से अधिक का स्टाफ है और वो सारा केवल अनुसूचित जाति का है! कलावती भी एक निर्धन अनुसूचित जाति परिवार से हैं।
कलावती के पिता एक पोस्ट मैन थे और कलावती 6 भई-बहिनों में सबसे छोटी हैं। सभी भाई-बहिनों ने तकनीकि शिक्षा का दामन थाम कर नौकरी करना पसंद किया लेकिन कलावती ने फैशन-डिजाइनिंग कर अपना स्वयं का व्यापार जमाना अधिक लाभकारी समझा और उसे सिद्ध भी किया। महिलाओं की जो घर सम्भालने वाली मजबूरियाँ होती हैं वो भी उन्होंने झेली। 12-15 घण्टे अपने व्यापार को देने के कारण उनकी बेटियों ने उनको ‘‘सण्डे-मम्मी’’ की संज्ञा भी दी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। आज वो एक दूसरी यूनिट श्रीपैराम्बुलुर में स्थापित कर रही हैं और नित-नए बढ़ते सेल्स के आँकड़ों से अति-उत्साहित हैं।
कलावती का कहना है कि ‘‘केवल महिला ही नहीं बल्कि अनुसूचित जाति समाज के होने के कारण हमें गम्भीरता से नहीं लिया जाता। बैंक हमारे प्रोपोजल को बिना पढ़े लौटाने का प्रयास करते हैं। कोई हमें व्यापार सिखाने के लिए अपने व्यापार से नहीं जोड़ना चाहता, कोई हमें गाइड करना नहीं चाहता, जबकि पारम्परिक व्यापारी समाज अपनी कई पीढ़ियों तक इन्तजाम किए हुए है! सरकार की कई योजनाओं को अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों तक पहुँचने ही नहीं दिया जाता। लघु एवं मध्यम ईकाइयों से 25 प्रतिशत तैयार माल की खरीद सरकारी विभागों को करनी चाहिए उसमें भी 4 प्रतिशत अनुसूचित जाति/जनजाति की यूनिट्स से करनी चाहिए लेकिन अधिकारी इस टारगेट को भी पूरा नहीं करते।’’
लेकिन क्या हमेशा धारा के विरुद्ध तैरने वाली कल्पना या कलावती जैसी बहादुर नारियाँ इन बातों से डरने वाली हैं? बिल्कुल नहीं। सभी मुसीबतों के बावजूद इनके फौलादी इरादों की बदौलत ही ये आगे बढ़ी हैं। कल्पना या कलावती या अपर्णा या गीता जैसे लोगों ने अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों की उस छवि को बदला है जिसमें उन्हें हमेशा सरकार के संसाधनों पर बोझ माना जाता है आरक्षण जैसे सूक्ष्म सहारे के वष में जीने को तत्पर माना जाता रहा है।
इन महान नारियों ने जो कुछ उपलब्धियाँ हासिल की हैं वो राजनीति में या नौकरशाही में आई अनुसूचित जाति/जनजाति की महिलाओं से कहीं अधिक है क्योंकि व्यापार के क्षेत्र में अभी कोई आरक्षण नहीं है। अतः इनके योगदान को और उपलब्धियों को जितने मंचों पर सराहा और पुरस्कृत किया जाए कम है। इन महिलाओं के योगदान को दलित इन्डियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एण्ड इन्डस्ट्रीज (डिक्की) ने भी स्वीकार किया है और अपने 500 के आस-पास सदस्यों में भी 20-25 महिला सदस्यों को भी जगह दी है। अब समय आ गया है कि हम अपने घर की महिलाओं, बेटियों और पत्नियों को अपने व्यापार में साझीदार बनाएँ हो सकता है एक दिन वह आप से भी आगे निकल जाए क्योंकि हम सभी जानते हैं कि सूक्ष्म प्रबन्धन में महिलाओं का कोई सानी नहीं होता।
महिला व्यापारी? और वो भी अनुसूचित जाति की...?