क्यों नहीं सुधर रहा है सरकारी शिक्षा का स्तर ?    

       
   यह विडम्बना ही है कि जहाँ एक ओर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का ढांचा चरमराया हुआ है, वहीं निजी विद्यालयों में फीस इतनी अधिक है कि उनमें आम आदमी अपने बच्चों का प्रवेश ही नहीं करवा सकता। यह घोर आश्चर्य है कि यहाँ तकनीकी शिक्षा और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम तो अच्छी तरह बने हुए हैं, इनमें समसामयिक परिवर्तन भी होते रहते हैं तथा सभी विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम लगभग समानता लिये हुए होते हैं, परन्तु शिशु कक्षा, जिसे आजकल नर्सरी कहते हैं, से लेकर आठवीं-नवीं तक विभिन्न बोर्ड्स के पाठ्यक्रमों में भारी अंतर देखने को मिलता है। जहाँ एक अच्छे निजी विद्यालय की कक्षा आठ में 13-14 पुस्तकें बतौर पाठ्यक्रम होती हैं, वहीं सरकारी विद्यालय में यह संख्या 7-8 के लगभग होती है। गुणवत्ता की कहें तो हालात यह हैं कि कक्षा पाँच का सरकारी विद्यालय का छात्र हिन्दी का अखबार तक ढंग से नहीं पढ़ सकता।
      शुरुआत की सरकारों ने इस क्षेत्र में विशेष रुचि दिखाई एवं उल्लेखनीय कार्य किये। तब सभी मैरिट लिस्टों में सरकारी विद्यालयों का ही दबदबा रहता था। तब चारों तरफ सरकारी विद्यालयों से निकले हुए छात्रों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। गाँव-गाँव में सरकारी विद्यालय खोले गये, परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, सरकारों ने इस पुनीत और राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य को अनुत्पादक कार्य की श्रेणी में रख दिया और इस पर ध्यान देना बंद कर दिया।
     सरकारी विद्यालयों और निजी विद्यालयों का तुलनात्मक अध्ययन कहता है कि हर दृष्टि से सरकारी विद्यालय ही बीस ठहरते हैं, उन्नीस नहींः-
1. भूमि और भवन सरकारी विद्यालयों के पास पर्याप्त एवं उचित होते हैं।
2. सरकारी विद्यालयों में निजी विद्यालयों की तुलना में अधिक शिक्षित-प्रशिक्षित अध्यापक होते हैं।
3. सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों के वेतन-भत्ते निजी विद्यालयों के अध्यापकों के वेतन भत्तों से कहीं अधिक होते हैं।
4. संसाधनो और सुविधाओं की दृष्टि से सरकारी विद्यालयों का पलड़ा भारी ठहरता है।
5. सरकारी विद्यालयों के अध्यापको को सेवानिवृति के बाद पेंशन और अन्य परिलाभ मिलते हैं।
6. इनमें प्रत्येक छात्र का बीमा होता है।
  निजी विद्यालयों की कुछ विशेषतायें हैंः-
1. इनमें अंग्रेजी पर जोर दिया जाता है।
2. इनमें यूनिफार्म चमक-दमक लिये रहती है।
3. इनमें शैक्षणिक व सह-शैक्षणिक गतिविधियाँ नियमित रूप से होती रहती है।
4. इनमें परीक्षा परिणाम अच्छे रहते हैं। 
5. इनमें क्रय-विक्रय के नियम लचीले होते हैं।
6. इनमें ट्रांसफर या नियुक्ति का चक्कर नहीं रहता है।
7. प्रबन्धन अच्छा होता है।
      फिर आखिर क्या कारण है कि आज सरकारी विद्यालयों का स्तर इतना खराब हो गया है? इस लेख में इसी पर चिंतन किया गया है और कुछ सुझाव हैं जो शिक्षा का स्तर वहीं पर ला सकते हैं जब सरकारी विद्यालयों की तूती बोलती थी।
     केन्द्र सरकार पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम लागू करवाये एवं सभी कक्षाओं में पुस्तकों की संख्या एवं विषय सामग्री समान हो। इसमें भाषा की छूट हो, अर्थात् जिस राज्य में जो भाषा बहुतायत से बोली, पढ़ी और समझी जाती हो, उसी में पुस्तकें अनूदित हों, परन्तु उनकी विषय सामग्री वही रहे। यह पाठ्यक्रम सभी बोर्ड और स्थानीय परीक्षा बोर्ड अपनाए। 
    हर पाँच वर्ष में एक बार पाठ्यक्रम का पुनर्निरीक्षण हो, यदि कोई सामग्री अवधिपार हो चुकी हो तो उसे हटाकर समसामयिक नई सामग्री शामिल की जाये। उदाहरणार्थ-तार द्वारा संदेश भेजने को हटाकर मोबाइल व अत्याधुनिक तकनीक को जोड़ना। 
    सभी विद्यालयों से पैराटीचर, राजीव गाँधी पाठशाला टीचर, गुरुमित्र, शिक्षामित्र, गेस्ट फैकल्टी टीचर या ठेके पर टीचर आदि को हटाकर इन के बजाय पूर्णकालिक अध्यापकों की उचित छात्र-अध्यापक अनुपात में नियुक्तियां हों, जिनकी विषयवार जिम्मेदारी भी तय हों। 
    वेतन सम्बन्धी कोई विसंगतियां हो तो वे दूर की जायें। सरकारें यह ध्यान रखेंं कि अध्यापक मात्र सरकारी कर्मचारी नहीं हैं वे राष्ट्रनिर्माता भी हैं। अध्यापकों की नियुक्ति के समय प्रार्थी के प्रत्यक्ष चरित्र पर विशेष ध्यान दिया जाये, ताकि विद्यालयों में नित्यप्रति होने वाली छात्रों की अमानवीय पिटाई और कभी-कभी सामने आने वाली यौन शोषण जैसी दुर्घटनायें हों ही नहीं। अध्यापकों का तबादला दो साल से कम समय में नहीं हो और वह भी आवश्यक होने पर ही। तबादले राजनैतिक दबाव के बजाय अध्यापकों की कार्यक्षमता और शैक्षणिक आंकलन पर आधारित हों। शैक्षणिक आंकलन में विद्यार्थियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो। 
   शिक्षा से जुड़े सभी अधिकारियों की भी पूर्णकालिक नियुक्तियां हों और कोई पद खाली न रहे। साथ ही इनकी जिम्मेदारी भी तय हो। अध्यापकों की पदोन्नति के समय उनका कार्य के प्रति समर्पण और व्यवहार विशेष रूप से देखा जाना चाहिये। साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक या आकस्मिक निरीक्षण कर रिपोर्ट पर अमल भी हो। परिणाम सही नहीं आने पर अध्यापकों व अधिकारियों का तबादला हो। 
     यह कैसा रहेगा, जब बडे़-बड़े सरकारी अधिकारियों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ें, ताकि वे जब भी अपने बच्चों का हाल जानने स्कूल में आयें तो स्कूल में सतर्कता रहे। अतः ऐसा राज्यादेश(बल्कि ऐसी व्यवस्थाएं) होना चाहिये कि सभी सरकारी कर्मचारियों के बच्चे, चाहे वे किसी भी पद पर हों, सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ें, क्योंकि जब सरकारी नौकरी के लाभ लेने को वे तैयार रहते हैं तो फिर अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों पढ़ाने में क्यों पीछे रहें ? ऐसी स्थिति में शिक्षकों पर एक दबाव भी बना रहेगा और वे सही ढंग से अध्यापन करवा सकेंगे। 
      सरकार द्वारा भी शिक्षकों से मात्र शैक्षणिक और सहशैक्षणिक कार्य ही करवाये जायें। इससे उनका पूरा ध्यान पढा़ने में ही रहेगा। शिक्षकों को किसी भी हालत में जनगणना, पशुगणना, आर्थिक गणना, चुनाव, प्रतिनियुक्ति पर बाबू और अन्य किसी भी गैर-शैक्षणिक कार्य में नहीं लगाया जाये। प्रत्येक विद्यालय में पूर्णकालिक शारीरिक शिक्षक हो जो छात्रों में खेल भावना के विकास, अनुशासन और उनके शारीरिक विकास का ध्यान रखे। कन्या पाठशालाओं में महिला अध्यापक और बालक विद्यालयों में पुरुष अध्यापकों की ही नियुक्तियां हों। प्रत्येक विद्यालय में सहायक कर्मचारी हो। यह बड़े दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि सरकारी विद्यालयों में सहायक कर्मचारियों के पद नहीं हैं। इस कारण छात्र-छात्राओं से ही पानी भरवाने और साफ-सफाई का कार्य करवाया जाता है जो कि मेरी नजर में उनके और उनके परिवारजनों के ’पढ़ लिखकर अच्छा अफसर बनने’ जैसे सपने को कुचलना है। ट्रेनिंग चपरासी की तो अफसर कैसे बनेगा, यह सोचने की बात है।
    ऐसी योजनाएं, जिन्होनें शिक्षा को तमाशा बना कर रख दिया है, तुरन्त बन्द कर देनी चाहिये। जैसे कि मिड डे मील, गुरुमित्र, शिक्षामित्र, सम्पूर्ण साक्षरता आदि। कारण कि जब से ये योजनाएं लागू हुई हैं, शिक्षक का ध्यान इनके तथाकथित ’लक्ष्यों’ को पूरा करने, खाना बनवाने, उसका हिसाब-किताब रखने, भण्डारगृह की साफ-सफाई करवाने और कागजी कार्रवाही में ही लगा रहता है। वह चाह कर भी बालकों को अच्छी और गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं दे पाता है। विगत सालों में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जिनके चलते जाने-अनजाने मिड डे मील में कीड़े-मकोड़े, छिपकलियाँ और यहाँ तक कि जहरीले पदार्थ तक मिले हैं, जिनके चलते अब तक सैंकडा़ें मासूम मौत की गहरी नींद में सो चुके हैं। कोई भी शिक्षक नहीं चाहता कि उसके सिर पर ऐसा कलंक लगे, अतः उसका ध्यान पढ़ने-पढ़ाने के बजाय खुद को ऐसी मुसीबत से बचाने में अधिक लगा रहता है, जो कि उचित भी है। इनके स्थान पर छात्रों को कम दाम पर या निशुल्क पुस्तकें देकर, साल में दो तीन यूनिफार्म देकर या अव्वल आने पर नकद धनराशि देकर मदद की जा सकती है। जो समस्यायें विद्यालय स्तर पर पर हल होने की हों, उन्हें विद्यालय स्तर पर और अन्य को विद्यालय, अभिभावक व संबंधित विभागों के सामंजस्य से हल किया जाना चाहिये। 
     आज शिक्षा का कार्य विशुद्ध रूप से व्यवसायिक बन चुका है। अतः निजी विद्यालयों को शिक्षा के नाम पर दी जाने रियायतें नहीं दी जानी चाहिये, बल्कि सरकारी विद्यालयों का माहौल ऐसा तैयार करें कि सबको गुणवत्तापूर्ण और सस्ती शिक्षा मिल सके। जिन विद्याथियों का सम्पूर्ण अध्ययन सरकारी विद्यालयों में रहा हो, उनको सरकारी मेडिकल, इंजीनियरिंग और अन्य कॉलेजों में प्रवेश के समय विशेष रियायत दी जानी चाहिये। 
     अभी हाल ही में शिक्षा के अधिकार के तहत ऐसा प्रावधान है कि कक्षा आठ तक के विद्यार्थियों को अनुत्तीर्ण नहीं किया जाये। मेरी नजर में यह एक राष्ट्र के लिये आत्मघाती फैसला है। क्या एक ऐसी मजबूत बहुमंजिली इमारत की कल्पना की जा सकती है जिसी नींव राख-मिट्टी और कमजोर पदाथों से भरी गई हो ? 
    यह अत्यन्त गंभीर चुनौती है कि राजस्थान में सालाना लगभग 5000 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद प्रतिदिन औसत 376 बच्चे विद्यालय छोड़ देते हैं। (यह सन 2007 नवम्बर तक की संख्या है)। यही हालात रहे तो सबको शिक्षित करने का लक्ष्य कभी पूरा नहीं हो पायेगा। निजी विद्यालयों को कोसने, उनकी भारी फीस का रोना रोने, धर्म विशेष की शिक्षा देने का आरोप लगाने के बजाय सरकारी तंत्र अपने आप को सुधरने की पहल करे तो छात्रों और देश का भला होगा। हमारी कॉलेज शिक्षा और तकनीकी शिक्षा अभी तक सुदृढ़ है। वहाँ हालात अभी इतने नहीं बिगड़े हैं, आवश्यकता केवल नीचे वाली मंजिल में साफ-सफाई कर सजाने की है।  
                      -श्याम सुन्दर बैरवा, सहायक प्रोफेसर               
                                                          भीलवाड़ा 
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