‘‘बुरे माहौल का ज़माना आदी हो गया शायद।
किसी भी बात पर कोई भी हंगामा नहीं होता।।’’
यह 16 वीं सदी के मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी का नायाब शेर है जो आज भी उतना ही सही है जैसा तब था। इस शेर से शुरुआत करने का कारण है आज कल तेजी से घटित हो रहे देश व प्रदेश के घटनाक्रमों पर एक दृष्टिपात, जिनके विश्लेषण से ऐसा शेर मस्तिष्क में कौंधना स्वाभाविक है। कितने बड़े से बड़े खुलासे हो रहे हैं परन्तु उन पर जनमानस या कहें ‘सिविल सोसायटी’ (‘अन्ना हज़ारे एण्ड कम्पनी’ को धन्यवाद, जिन्होंने इस शब्द को अति लोकप्रियता प्रदान की है।) की प्रतिक्रिया आशा के अनुरूप नहीं हो रही है।
ये हम सब जानते हैं कि ‘राजस्थान पत्रिका’ के मुख्य संपादक गुलाब कोठारी आरक्षित वर्ग और आरक्षण के विरुद्ध आग उगलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। ऐसा ही एक लेख उन्होंने दिनांक 18 जून, 2011 के अंक में मुखपृष्ठ पर ‘सबका भला’ (शीर्षक होना चाहिए था ‘अनारक्षित 15 प्रतिशत का ही भला’) शीर्षक से अत्यधिक ही ‘ईमानदार’ लेख छापा। ‘ईमानदार’ इसलिए कि उन्होंने अपनी दिल की सभी भावनाएँ (‘भड़ास’ कहेंगें तो भी उन्हें बुरा नहीं लगेगा!) चुन-चुन कर इस लेख में निचोड़ दी। मैं इस लेख की अक्षरशः गहराई में नहीं जाऊँगा क्योंकि इसे ‘दीक्षा-दर्पण’ के सुधी पाठकों ने तो ध्यान से पढ़ा ही होगा और जिन्होंने नहीं पढ़ा है वे कृपया इसे ढूँढ कर पढ़ें, यह अत्यन्त ही प्रेरणादायी लेख है तथा आपको अपना धरातल दिखाने के लिए पर्याप्त है।
यहाँ केवल इस बात पर जोर देने की आवश्यकता है कि इस लेख में कोठारी ने कुछ भी नया नहीं लिखा है। ये आरक्षित वर्गों के विरुद्ध विष-वमन केवल स्वाभाविकतावश हुआ है। इतना तय है कि इससे भी दुगुना विष अनारक्षित वर्ग के आम जन के अन्दर भरा हुआ है बस वे इसे प्रकटतः उगलते नहीं हैं। कोठारी ने तो बड़े ही शालीन तरीके से कुछ बातों को अपने लेख के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाया है अन्यथा इस वर्ग के ऐसे नागों की कमी नहीं है जो चुपचाप आपको विभिन्न कारस्तानियों के ज़रिए डस रहे हैं।
इस लेख पर हमारे आरक्षित वर्ग के राजनीतिज्ञों, अधिकारियों व विभिन्न क्षेत्रों व समाजों के लिए कार्यरत नुमाइन्दों से कठोर प्रतिक्रिया की उम्मीद थी लेकिन अन्य समाचार माध्यमों से भी कोई बयान नहीं देखा गया। कई बातें तो इस लेख में स्पष्ट रूप से असंवैधानिक हैं जिनके लिए कोठारी को आसानी से न्यायालय में घसीटा जा सकता है परन्तु जैसा कि अकबर इलाहाबादी के शेर में लिखा है, ना तो कुछ होना था, ना ही हुआ। हम कुछ-कुछ भावनाशून्य भी होते जा रहे हैं तथा अमरबेल की नीति पर कार्य करने की आदत कभी नहीं छोड़ते। यानि हमारे लिए कोई और ही कुछ कर दे, हम तो केवल जबानी जमाखर्च पर ही जिन्दा रहेंगे।
वैसे गुलाब कोठारी एक उच्च कोटि के व्यापारी हैं तथा कोई बहुत बड़े विद्वान या ज्ञान के धनी नहीं हैं, तथा वे यदा-कदा अनुसूचित समाज व आदिवासियों की भावनाओं को कुरेदते रहते हैं। आरक्षण के विरुद्ध उनका नज़रिया छुपा नहीं है। उनके समाचार पत्र ‘राजस्थान पत्रिका’ के ‘पाठकों के पत्र’ सैक्शन में भी यदि आपको अपना पत्र छपवाना है, तो आप केवल ‘आरक्षण’ या आरक्षित वर्ग के विरुद्ध कुछ लिख कर भेज दीजिए, आपका पत्र तुरन्त छप जाएगा बनिस्पत किसी अन्य सामाजिक समस्या के। ‘दीक्षा-दर्पण’ के भी एक नियमित सुधी लेखक का लेख ‘राजस्थान पत्रिका’ में तभी छप सका जब उन्होंने अपने लेख में आरक्षित वर्ग के तथाकथित सम्पन्न वर्ग (कौनसा अनुसूचित समाज का सदस्य सम्पन्न है? सम्पन्नता की परिभाषा क्या है? कितनी आय को सम्पन्नता माना जा सकता है? ये प्रश्न इस लेख में अनुत्तरित हैं।) की भर्त्सना करने का सहारा लिया! हो सकता है इस लेख में लिखी गई कुछ बातें आंशिक रूप से सत्य हों परन्तु इन्हें पूरे समाज पर लागू करना उन कुछ महानुभावों के साथ अन्याय तथा हतोत्साहित करने वाला है जो वास्तव में अनुसूचित समाजोत्त्थान के लिए अपना यथा सम्भव प्रयास कर रहे हैं। मैं समझता हूँ यह अदूरदर्शिता ही है क्योंकि मीडिया के अलावा सम्पूर्ण न्याय प्रणाली भी आरक्षित वर्ग के पक्ष में नहीं है और इस तरह के लेखों के लिए यह सही समय भी नहीं है।
मैं इस लेख के बारे में कोई विस्तृत टिप्पणी नहीं करूँगा लेकिन इतना अवश्य है कि हमारे द्वारा इस प्रकार के विचार ही गुलाब कोठारी जैसे लोगों के मस्तिष्क में ये विचार डालते हैं कि ‘हाँ, इनके वर्ग में भी हमारे आरक्षण-विरोधी विचारों के समर्थक हैं तो क्यों नहीं थोड़ी और ‘लिबर्टी’ ली जाए और अनारक्षित वर्ग के उन पाठकों, विज्ञापनदाताओं और राजनेताओं को खुश किया जाए जो हमारी रोजी-रोटी की रीढ़ हैं?’ वे एक अनुसूचित समाज के पाठक को खुश क्यों रखेंगें? उन्हें इनसे मिलता ही क्या है? एक आम अनुसूचित समाज का पाठक समाचार पत्र केवल पढ़ने के लिए खरीद सकता है, बस! समाचार पत्र की बिक्री से जो कमाई होती है वह राजनीतिक दलों से (उनकी विचारधारा के प्रचार-प्रसार की एवज में), बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों से (उनके लिए राजनीतिक दलों के कर्ता-धर्ताओं से बिचौलियागीरी की एवज में) तथा विज्ञापनों की कमाई की तुलना में सब्जी में नमक के बराबर भी नहीं है। फिर वे अनुसूचित समाज के हित की बात अपने समाचार पत्र में क्यों छापेंगें? खैर, कोठारी अपने तरीके से गरीबों के बारे में, नक्सलवादियों के बारे में, आदिवासियों के हितों के बारे में भी यदा-कदा कुछ थोड़ा बहुत लिख देते हैं परन्तु यह केवल एक ‘तटस्थ’ दिखने का दिखावा भर है।
हम आरक्षित वर्ग विरोधी मीडिया पर कैसे पार पा सकते है, इस पर गहन मन्थन करने की आवश्यकता है। क्या हमें एक समानान्तर अनुसूचित समाज के मीडिया की आवश्यकता नहीं है? आप देख सकते हैं आज मीडिया किसी को भी ‘हीरो’ बना सकता है और किसी को भी ‘ज़ीरो’ बना सकता है। 2जी स्पैक्ट्रम के नाम से चलाए गए ड्रामे में फँसे ( अनुसूचित समाज का होने के कारण) ए. राजा की चहुँ-ओर भर्त्सना होती है और उसी घोटाले में भागीदार अरुण शौरी, कपिल सिबल व प्रमोद महाजन का नाम एकाध बार आकर रह जाता है। आरक्षित वर्ग के विरुद्ध आए किसी भी न्यायालय के फैसले को मुखपृष्ठ पर ‘हैडलाइन’ का दर्जा देकर व बिना सम्पूर्ण फैसला पढ़े, झूठ का तड़का देकर छापा जाता है जबकि अनुसूचित समाज के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों या विरोधों के प्रदर्शनों के समाचारों को कभी दिन की रोशनी भी नसीब नहीं होती है! सुश्री मायावती के कार्यकाल में चुनावी वर्ष को देखते हुए अचानक बलात्कारों की चार-पाँच खबरों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता था जबकि महिलाओं पर अत्याचारों में पारम्परिक रूप से ‘टॉप’ पर रहने वाले मध्य प्रदेश व राजस्थान में हो रहे प्रतिदिन लगभग दस बलात्कारों (विश्व मानवाधिकार रिपोर्ट-2010) का कोई जिक्र नहीं होता!
अब इस समस्या का हल क्या है? क्या समाचार पत्र पढ़ना छोड़ दें? क्या ‘राजस्थान पत्रिका’ जैसे समाचार पत्रों का बहिष्कार कर दें? या अपना अलग से एक मीडिया समूह तैयार करें?
आप प्रथम दो विकल्पों से कुछ खास हासिल नहीं कर पाएँगें अतः इनमें से अन्तिम विकल्प सर्वोत्तम है। कुछ ‘दीक्षा-दर्पण’ जैसे समाचार पत्रों को इतना बढ़ावा दिया जाए (राजनीतिक, आर्थिक व विपणन संवर्द्धन) जिससे कि ये बड़े मीडिया समूहों के सामने खड़े हो सकें। हमारी ख़बरें हमारी ही भाषा में प्रस्तुत कर सकें। साथ ही इलैक्ट्रोनिक मीडिया के लिए कुछ टी वी चैनल भी प्रारम्भ किए जाएँ। ये काल्पनिक बातें नहीं हैं बल्कि पूर्णतः व्यावहारिक हैं तथा दक्षिण भारत में ऐसा हो भी रहा है। एक चैनल ‘‘दलित टीवी’’ के नाम से तो एक अमेरिकन अनुसूचित समाज के उद्योगपति ने इन्टरनैट पर चला भी रखा है। कुछ दक्षिण भारतीय व महाराष्ट्रियन बौद्ध भाई भी ऐसी ही कुछ योजना बना रहे हैं। अभी तक वे दूसरे धर्म-आधारित चैनलों पर ‘टाइम-स्लॉट’ के लिए इन्तजा़र करते रहते हैं। इसे अच्छी शुरूआत समझें तथा आशा करें कि वह दिन दूर नहीं जब अनुसूचित समाज के विरोधी मीडिया का तिलस्म एक दिन टूट जाएगा।