मुझे दो दिन आई आई टी दिल्ली किसी कार्य से जाने का मौका मिला। इस दौरान एक साथी के साथ इस्कॉन मंदिर भी जाना हुआ। वहाँ यह देखकर हैरानी हुई कि देश के जाने-माने वैज्ञानिक संस्थानों, यथा आई आई टी, एम्स, निफ्ट आदि के विद्यार्थी बड़े मनोयोग और भक्ति भाव से प्रवचन सुन रहे हैं, हरे रामा हरे कृष्णा, हरे कृष्णा हरे-हरे, राम-राम ,कृष्ण-कृष्ण,विष्णु-विष्णु आदि जप रहे हैं। वे सेवा भाव से वहाँ का सारा प्रबन्धन भी देख रहे थे। यह आश्चर्य ही था आखिर देश के ये होनहार युवा, जो बड़ी कठिन-कठिन परीक्षायें पास करके उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पाते हैं, इनमें अध्ययन करते हैं, अपने अनुसंधानों और वैज्ञानिक सोच से देश और मानवता का भविष्य बदलने की ताकत रखते हैं, आखिर किस प्रकार अवैज्ञानिक और भक्ति के कुचक्र में फँसकर अपना अमूल्य समय और वैज्ञानिक सोच नष्ट कर रहे हैं?
किसी भी धर्म में वैज्ञानिक सोच और तर्क का कोई स्थान नहीं होता है। यदि कोई वैज्ञानिक विचारधारा वाला व्यक्ति तर्क करता भी है तो उसे नास्तिक का खिताब दे दिया जाता है। अधिक विरोध करने के एवज में उसको अपनी जान देकर कीमत चुकानी पड़ सकती है। स्वर्ग नरक है या नहीं, ये हैं तो कहाँ पर हैं, जब सुदूर बृहस्पति, शनि और अन्य ग्रह-नक्षत्रों तक की खबर अंतरिक्ष यान ले आये हैं तो ये क्यों नहीं खोजे गये है ? क्षीर सागर (विष्णु का निवास स्थान) कहाँ पर है ? क्या इसका कोई अवशेष आज तक कहीं मिला है?
प्रश्न उठता है उच्च मानक परीक्षाये पास करके अच्छे संस्थानों में प्रवेश पा लेने वाले युवा आखिर कैसे इनके चक्करों में फँस जाते हैं?
संभावित उत्तर यह हो सकता है कि भारत में युवा उच्च शिक्षा पाने, अच्छी नौकरी पाने और अच्छा वेतन पाने के लिये खूब मेहनत करता है, अच्छे संस्थानों में प्रवेश पा लेता है, और अपना लक्ष्य हासिल भी कर लेता है, परन्तु वैज्ञानिक सोच और विचारधारा से उसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। उसे जो पढ़ाया जाता है, उसे वह पूरे मन से आत्मसात् नहीं कर पाता है, फलतः उसका व्यवहारिक जीवन अलग होता है और सरकारी जीवन अलग। पुस्तकों में वह जो पढ़ता है, जिन अवधारणाओं के चलते वह वैज्ञानिक, डॉक्टर या इंजीनियर बनता है, वास्तविक जीवन में उसका उनसे कोई लेना-देना नहीं रहता। सरकार में कहलाने को तो वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर-पर मंदिर में मूर्तियों के आगे सष्टांग दण्डवत करते नजर आते हैं ! अंत तक उसके मन-मस्तिष्क में घर के संस्कार, तथाकथित धार्मिक पुस्तकों में पढ़ी बातें, भगवान, धर्म, ईश्वर, दैवीय चमत्कार और आलौकिक शक्तियों के प्रति भय और समर्पण का भाव विज्ञान की बातों से भारी ही रहता है। बीटेक, एमटेक, पीएचडी और यहाँ तक कि डीएससी या कोई अन्य डिग्री उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात भी इस प्रकार के व्यक्ति के संस्कार ’’धार्मिक’’ ही रहते हैं। यह पूर्व में ही लिखा जा चुका है कि किसी भी धर्म में वैज्ञानिक सोच और तर्क का कोई स्थान नहीं होता है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि रोज भगवान चोरों द्वारा लुट रहे होते हैं, इनके भक्त दुर्घटनाओं में अकाल मौत मारे जा रहे होते हैं, पूरा तीर्थ स्थल तक नष्ट हो जाता है, फिर भी कोई भक्त इन पर प्रश्न नहीं करता, न ही इनसे विमुख होता है ?
क्या हमारे देश की सरकार का यह दायित्व नहीं है कि वह यह देखे कि जिन विद्यार्थियों का कार्य वैज्ञानिक कार्य कर विज्ञान और तकनीकी क्षे़त्र में देश को नये आयाम प्रदान करना है, वे किस प्रकार इन मंदिरों में जाकर अपनी प्रतिभा और ज्ञान को घण्टों हरे रामा हरे कृष्णा, हरे कृष्णा हरे-हरे, राम-राम कृष्ण- कृष्ण,विष्णु-विष्णु आदि जपने में लगाते हैं ?
मैं वापस इस्कॉन मंदिर की बात पर आता हूँ। यहाँ बड़े-बड़े डेक, स्टीरियो और ध्वनि विस्तारक यंत्र लगे हुए थे जिनके उच्च स्वरों पर भक्त गण बेतहाषा नाच-गा रहे थे। क्या मैं यह पूछने की गुस्ताखी कर सकता हूँ कि तथाकथित भक्ति का उच्च ध्वनि और वैज्ञानिक नियमों पर आधारित वाद्य यंत्रों से क्या सम्बन्ध है ? जहाँ तक मैं समझता हूँ, इनसे एक वातावरण या माहौल उत्पन्न किया जाता है ताकि व्यक्ति सम्मोहित हो जाये और उसके मन की शंकाओं का दमन (समाधान नहीं) हो जाये। अन्यथा ऐसा कहीं सुनने में नहीं आया कि डेक की ऊँची आवाज से भगवान तुरन्त प्रकट हो गये हों और साधारण भक्ति करने वाले को देखे तक नहीं। क्या ये विशुद्ध वैज्ञानिक यंत्र भी भग्वत् प्राप्ति के साधन हो सकते हैं ? इसी प्रकार किसी क्या मृत जानवर के चमड़े को जोर-जोर से पीटना भी ईश्वर प्राप्ति में सहायक है ( ढोलक, नंगाड़े, पखावज और तबले आदि और क्या हैं ?)।
बिलकुल सफेद धोती-कुर्ता पहन कर हम प्रवचन सुनने बैठे। प्रवचन राधा-कृष्ण और अन्य देवी-देवताओं से ही सम्बन्धित था। प्रवचन कर्ता बड़े ही पांडित्यभाव से हिन्दी -अंग्रेजी-संस्कृत में मिक्स प्रवचन दे रहे थे। मैं मन में निश्चय कर चुका था कि कुछ पूछना है।
प्रश्नोत्तर सत्र में मैंने पूछा,’’ राधाजी, कृष्णजी की क्या लगती थीं ? शास्त्रों में कहीं भी इनकी शादी का विवरण पढ़ने को नहीं मिलता है।’’
प्रवचनकर्ता ने कहा,’’ राधाजी कृष्णजी की आत्मा थीं। क्या कभी आत्मा की शादी आत्मा से होती है।’’
तालियों की गड़गड़ाहट से प्रवचन हॉल गूँज उठा। मैं समझ चुका था कि यहाँ अपनी आवाज नक्कार खानें में तूती की आवाज साबित होगी और यह कोई शास्त्रार्थ के लिये उपयुक्त जगह भी नहीं है। अतः मैं बैठ गया। प्रवचनकर्ता के उत्तर से मैं संतुष्ट नहीं था (क्या आप हैं?)।
अतः इस लेख के माध्यम से मैं कृष्ण प्रेमियों से कुछ सवाल करना चाहता हूँ। इनका उत्तर देने का कष्ट करें।
1. पहला सवाल तो वही है जो मैंने प्रवचनकर्ता ने किया था, ’’राधाजी, कृष्णजी की क्या लगती थीं? शास्त्रों में कहीं भी इनकी शादी का विवरण पढ़ने को नहीं मिलता है।
2. क्या तीन-तीन ब्याहता रानियों के होते हुए किसी की मूर्ति या फोटो एक ऐसी स्त्री के साथ लगाना या छापना उचित है, जिनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं हो? जहाँ तक मुझे ध्यान है कृष्णजी के सत्यभामा, जाम्बवती और रुक्मिणी नाम की तीन रानियाँ थीं। तब इन तीनों के होते हुए राधाजी के साथ इनका फोटो या मूर्ति दिखाया जाना क्या उचित है? जब आज के समाज में ही अपनी ब्याहता पत्नी को नजरअन्दाज कर किसी अन्य के साथ फोटो खिंचवाकर प्रदर्शित करना या उसके साथ अपनी मूर्ति लगवाना नैतिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता, तो क्या द्वापर-युग में अच्छा माना जाता था ?
3. कृष्णजी ईश्वर-अवतार माने जाते हैं, जबकि ये मानव की तरह पले, बढ़े और एक बहेलिये का तीर पैर में लगने से 120 वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए। क्या अवतार के साथ ऐसा होता है?
4. क्या योगीराज का दर्ज़ा पाने वाले इंसान के सोलह हजार रानियाँ होना संभव है? यदि इतनी न भी मानें तो तीन का तो प्रत्यक्ष उदाहरण है ही।
5. आज के युग में कोई व्यक्ति, बालक या किषोर यदि नहाती हुई लड़कियों या स्त्रियों के कपड़े चुरा ले और उनको नग्न अवस्था में ही पानी से बाहर आने को यह कह कर मजबूर करे कि ’तुमने नग्न अवस्था में पानी में जाकर जलदेवता का अपमान किया है’ तो क्या वह सहनीय या क्षम्य है ? जबकि कृष्णजी के जीवन में ऐसा विवरण मिलता है।
6. यदि कृष्णजी ईश्वर थे तो उनको सभी के लिये समान रहना चाहिये था। गुरु द्रोण, जरासंध, कर्ण, दुर्याधन और भीम आदि के वध के समय उन्होनें स्पष्टतः पाण्डवों का पक्ष क्यों लिया? क्या हथियार उठाकर लड़ने वाला ही योद्धा होता है ? रणनीतिकार योद्धा नहीं कहलाता ? उक्त सभी वधों के पीछे क्या कृष्णजी की कूटनीति नहीं थी। यदि कहा जाये कि ये अधर्म के साथ थे तो फिर स्वयं कृष्णजी ने भी तो अपनी सारी सेना दुर्योधन को दी थी। पापियों और अधर्मियों को भी तो ईश्वर ही उत्पन्न करता है, ये भी तो विपदा के समय ईश्वर को ही याद करते हैं। फिर पापियों और अधर्मियों का ईश्वर धर्मात्माओं से अलग होता है ?
7. एक ओर कृष्णजी कहते हैं- ’मैं युद्ध में भाग नहीं लूंगा, केवल रथ चलाऊंगा।’ दूसरी ओर कौरव सेना के उक्त बड़े-बड़े महारथियों को मरवाने की रणनीतियां स्वयं तैयार करते हैं। ऐसा क्यों?
8. ईश्वर को जगत का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता बताया गया है। जबकि गीता के अनुसार ’जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म बढ़ने लगता है,......तब-तब सज्जनों की रक्षा, दुष्कर्मियों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिये ईश्वर अवतार लेते हैं।’
प्रश्न यह है कि जब ईश्वर ही सब कुछ है तो दुष्ट, अधर्मी और पापी उत्पन्न ही क्यों होते हैं, जिससे अधर्म बढ़ता है। क्या इनका ईश्वर कोई और होता है ? दूसरे, तब ईश्वर दुष्ट, अधर्मियों और पापियों का ही विनाष करता है तो सज्जनों, धर्मात्माओं और पुण्यात्माओं का विनाश कौन करता है? जैसा कि केदारनाथ में हाल ही जून 2013 में हुआ। इस काम का टेण्डर क्या किसी दूसरे ईष्वर के पास है?
9. ’उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अगर बुरे साधनों को भी अपनाना पड़े तो कोई बुराई नहीं।’ इस आदर्श वाक्य का महाभारत में कई स्थानों पर सहारा लिया गया है। तब तो परीक्षा में पास होने के लिये नकल करना, लाभ कमाने के लिये मिलावट करना, धनवान बनने के लिये अनुचित साधन अपनाना आदि सब जायज है ?
इस प्रकार के अनेक प्रश्न कृष्णजी को लेकर खड़े होते हैं। इस लेख के जरिये मैं इतना ही कहना चाहता हूँ (खासकर उन युवाओं से जो इस प्रकार के संगठनो से जुड़े हुए हैं) कि अपने मस्तिष्क के दरवाजे कभी बंद मत करो। संगठनों में जाने से पहले उनकी अच्छी जांच-पड़ताल करो ताकि आपका हाल आसाराम के अनुयायियों जैसा न हो, जिन्हे आज धर्म से मुंह छिपाने की जगह तक नहीं मिल रही है।
-श्याम सुन्दर बैरवा
फोटों गुगल से साभार