कहीं प्रतिमाओं में ही सिमटकर ना रह जाएँ बाबा साहब


देश का सूचना तंत्र जैसे-जैसे मजबूत होता जा रहा वैसे-वैसे ऐसी सूचनाओं का अम्बार लगा जा रहा है कि फलाँ जगह बाबा साहब की प्रतिमा को क्षति पहुँचाई या फलाँ जगह उनकी प्रतिमा खण्डित कर दी गई! इसे दुर्भाग्य ही कहा जाए कि पूरे विश्व में ऐसा कहीं और देखने को नहीं मिलता कि किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्त्व को एक बड़ा और तुलनात्मक रूप से धनी वर्ग इतनी घुणात्मक दृष्टि से देखता हो कि उनकी प्रतिमाओं पर अपना क्रोध व्यक्त करता घूमे! प्रतिमाएँ अन्य देशों में भी नष्ट की जाती हैं लेकिन उनका कारण पूर्णतः विपरीत भाँति के राजनीतिक तंत्र या विचारधारा का विरोध करना होता है ना कि समर्थक विचारधारा के किसी पुरोधा का विरोध, जिन्होंने उस विचारधारा (प्रजातंत्र) की आधारशिला ही रखी हो और अपना जीवन ही उस देश के संविधान निर्माण और और उसके सफल निष्पादन में न्यौछावर कर दिया हो! फिर एक वर्ग जो कि बाबा साहब का समर्थक होना चाहिए, उनका कृतज्ञ होना चाहिए क्यों उनकी मूर्तियों को खण्डित करता घूमता है? और एक वर्ग उनकी मूर्तियों की रक्षा करने में ही अपनी ताकत झोंकने में लगा हुआ है। 


इस प्रक्रिया में कौन जीतना चाहता है? क्या इस मूर्खतापूर्ण लड़ाई का कोई अन्त भी है? या ये लड़ाई और गहराएगी और विकराल रूप ले लेगी जो कि एक भयानक स्थिति होगी और किसी भी पक्ष के लिए दुष्कर ही सिद्ध होगी ये तो हम सब जानते ही हैं! अतः इस बिन्दु पर चर्चा करने की आज जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी ना थी और हाँ बिगड़ती स्थितियाँ शायद अवसर ही ना दे चर्चा करने का!! 


इस बात में कोई दो राय नहीं है कि विश्वभर में महापुरुषों और पौराणिक देवी-देवताओं को अमर बनाने के लिए उन्हें प्रतिमाओं के माध्यम से कुछ निश्चित स्थानों पर प्रतिस्थापित किया जाता रहा है। महापुरुषों और पौराणिक देवी-देवताओं के सिद्धान्तों की याद दिलाती ये प्रतिमाएँ लोगों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत होती हैं। परन्तु भारत में प्रतिमा संस्कृति एक जुनून की हद तक कायम है। प्रतिमा चाहे किसी महापुरुष की हो या देवी-देवता की। उसकी स्थापना से लेकर उसकी देख-रेख व अर्चना की एक निश्चित विधि पूर्व निर्णीत है। इस विधि से विलग कुछ भी इसके भक्तों को स्वीकार्य नहीं है। भर्त्सना या विरोध तो असम्भवकारी है। अर्चना और विरोध, दोनों ही एक निश्चित मानसिकता के तहत किए जाते हैं लेकिन ये सहचर्य की भावना के विरुद्ध हैं और यहीं से टकराव का आरम्भ होता है। 


बाबा साहब की प्रतिमाओं की अर्चना और विरोध के पीछे ऐसे ही कुछ कारण हैं। उनके समर्थकों ने उन्हें अमर बनाने के लिए, उनकी अर्चना उनका प्रतिरूप बनी इन प्रतिमाओं में प्रारम्भ किया जो कि एक स्वाभाविक-सी बात है। बाबा साहब की अर्चना करनी भी चाहिए। जिन करोड़ों दबे-कुचले लोगों के वे तारणहार बन कर उभरे उनकी कृतज्ञता प्रकटन के लिए यह एक अत्यन्त स्वाभाविक कृत्त्य है। लेकिन एक वर्ग ने इसका विरोध करना क्यों प्रारम्भ कर दिया? क्या इस वर्ग के लिए बाबा साहब ने कुछ नहीं किया? या बाबा साहब का समर्थक वर्ग विरोधी वर्ग को समझा ही नहीं पाया कि ‘‘क्यों बाबा साहब सभी के लिए पूजनीय हैं और उनको किसी एक वर्ग के लिए पूजनीय और दूसरे के लिए विरोधी साबित करना मात्र कुछ देश और संविधान विरोधी तत्त्वों की कारस्तानी है!’’        


यह एक विचारणीय बिन्दु है कि, क्या बाबा साहब के समर्थकों ने केवल उनको प्रतिमाओं में समेट कर रख दिया और उनकी विचारधाराओं को और इतने विराट व्यक्तित्त्व को लोगों तक विशेषतः विरोधी समूह तक फैलाने का प्रयास ही नहीं किया? और क्या उनके विरोधी वर्ग के एक बड़े हिस्से को बाबा साहब के एक ऐसे रूप के बारे में ही पता है जिसके प्रति उनमें घृणा का भाव कुछ अवसरवादी तत्त्वों द्वारा कूट-कूट कर भर दिया है? दोनो ही स्थितियाँ चिन्ताजनक हैं। क्योंकि बाबा साहब के बोए हुए फलों को खाने वाले यदि उन्हें महान होने के बावजूद सर्वमान्य महान नहीं बना पा रहे हैं तो आने वाली पीढ़ियों के लिए यह अत्यन्त घातक स्थिति है। और यदि उनका विरोधी वर्ग अपने अन्तर्मन में झाँक कर बाबा साहब के बलिदानों को सहेजकर अपने वर्ग को नहीं समझा पाया तो यह भी एक घातक स्थिति है।
 
हाल ही में बाबा साहब की प्रतिमाएँ तोड़ने की, विद्रूप करने की और खण्डित करने की घटनाएँ जितनी तेजी से बढ़ रही हैं यह भविष्य में बाबा साहब के अनुयायियों व उनके विरोधियों के लिए सहचर्य की भावना के लिए अत्यन्त प्राणघातक सिद्ध हो सकती हैं। इन घटनाओं की परिणति कई बार छिटपुट दंगों में भी हुई है। आने वाले समय में इन घटनाओं की संख्या बढेगी और इस बात में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि नुकसान उस वर्ग का अधिक होगा जिस वर्ग के पास संसाधनों की कमी होगी, जिस वर्ग के पास राजनीतिक और आर्थिक ताकत कम होगी और जो वर्ग प्रशासनिक रूप से कमजोर होगा। अब इस बात को समझने के लिए कोई रॉकेट साइन्स की आवश्यकता नहीं है कि यह वर्ग कौनसा होगा! कुछ अत्यन्त उत्साही लोगों और वाट्सएप जैसे माध्यमों के बब्बर शेरों के लिए यह कथन कायरता से भरे हुए भी लग सकते हैं लेकिन आज यदि आप ऐसे मामलों में थोड़ा अन्दर तक झाँकने का प्रयास करेंगें तो पाएँगे कि विरोधी वर्ग के लोगों को एक तो पहचाना ही नहीं जाता और पहचान लिया भी जाता है तो कोई पुलिस कार्यवाही नहीं होती और एकाध मामले में कोई कार्यवाही होती भी है तो गिरफ्तारी नहीं होती और यदि गिरफ्तारी हो भी गई तो न्यायालयों में घटिया पैरवी के दम पर कोई सजा नहीं होती! 


यानि लड़ाई या न्यायालय और कानून व्यवस्था के रखवालों के दम पर आप बाबा साहब की प्रतिमाओं की रक्षा नहीं कर सकते! तो फिर क्या करें? क्या बाबा साहब की आराधना कम कर दें या भय के कारण उनकी प्रतिमाओं की रक्षा ही ना करें? या फिर उनकी प्रतिमाओं का निर्माण कम कर दें? शायद इनमें से कोई भी कार्य आपको कायरतापूर्ण लगेगा। तो क्या प्रत्येक प्रतिमा की रक्षा हेतु अपनी ही एक सेना बना लें? ‘‘भीम-प्रतिमा रक्षा सेना’’? 


इन सभी प्रश्नों के उत्तरों के लिए हमें मन्दिरों में रखी प्रतिमाओं की रक्षा प्रणाली पर गौर करने की आवश्यकता है। मन्दिर की प्रतिमाएँ दुर्गम से दुर्गम स्थान पर एक पुजारी के दम पर या कई बार बिना पुजारी के भी सुरक्षित रहती हैं। क्यों? क्योंकि उनकी मान्यता को पहले सर्वमान्य बनाया गया है। उनके चमत्कारों को प्रचारित करने के सामूहिक प्रयास किए गए हैं। क्या ऐसा कोई प्रयास बाबा साहब के अनुयायियों के द्वारा हुआ है कि बाबा साहब के कार्यों, उनके देश के लिए किए गए योगदानों को सर्वमान्य बनाया गया हो? इस बात में तो कोई दो राय नहीं है कि कुछ प्रयास हुए हैं लेकिन केवल उनके स्वाभाविक अनुयायियों के मध्य! लेकिन जो लोग ना तो उनके साफ तौर पर अनुयायी थे और ना ही विरोधी (विशेषतः अन्य पिछड़ा वर्ग) ऐसे एक बड़े वर्ग को हम बाबा साहब की महिमा समझाने में बुरी तरह विफल रहे हैं। यह वर्ग आज भी हमने ऊहाँपोह की स्थ्ति में छोड़ा हुआ है और बाबा साहब की प्रतिमाओं के खण्डन इत्यादि में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है। क्योंकि बाबा साहब उनके भी पूजनीय हैं यह इनको बताने के लिए हमारे बुद्धि-जीवियों द्वारा कोई भारी-भरकम प्रयास नहीं हुए। 


आज बाबा साहब को प्रतिमाओं से अधिक एक ‘‘विचारधारा’’ में विकसित करने की अधिक आवश्यकता है ताकि विरोधी भी उनका सम्मान करने पर विवश हो जाएँ। यदि हम उनकी प्रतिमाएँ बनाते रहे और उनको खण्डित होने से ही बचाते रहे तो हम हमारी ताकत निश्चित रूप से सही जगह नहीं लगा रहे हैं। और हमारा विरोधी यही तो चाहता है कि बाबा साहब को हम एक ‘‘मूल-विचारधारा’’ के रूप में विकसित ना कर पाएँ और उन्हें ‘‘सर्वमान्य’’ नेता बनाने में कभी सफल ना हों जिससे एक बड़ा वर्ग उनसे घृणा और अधिक घृणा करता रहे ताकि हम थक हार कर पहले जैसी स्थिति में आ जाएँ और वे बाबा साहब को समाप्त करने में कामयाब हो जाएँ। बाबा साहब की ‘‘मूल-विचारधारा’’ की क्षीणता निश्चित रूप से संविधान का क्षय साबित होगी तथा देश के तथा उनके अनुयायियों के लिए एक निर्णायक साबित होगी। इसीलिए हमारे बुद्धिजीवियों को अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग के बुद्धिजीवियों की सहायता से वर्कशॉप, सेमीनार, नित-नए प्रकाशनों के माध्यम से, मीडिया में लगातार चर्चा के माध्यमों से बाबा साहब को लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता बनाने के लिए कठिन से कठिन प्रयास करने होंगें अन्यथा केवल प्रतिमाओं की प्रतिस्थापनाओं से तो अम्बेडकरवाद एक ‘‘विचारधारा’’ में विकसित नहीं होगा।



  • -फोटो गुगल से साभार