इन मासूमों पर किसी को दया नहीं आती 

 




 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 शादी-ब्याह के दिनों में सब कोई अपनी मौज-मस्ती में डूबे रहते हैं। इन सबसे हटकर में ऐसे मासूम बच्चों के बारे में बताना चाहता हूं जो शादी रूपी यंत्र को चलाने के लिये आजकल तो और आवश्यक हैं, लेकिन इनकी तरफ किसी भी स्तर की किसी भी सरकारी या गैर सरकारी संस्था की नजर अभी तक नहीं पड़ी है, अन्यथा इनके लिये कुछ न कुछ भला अवश्य होता। चूंकि छोटे बच्चों का कहीं कोई संगठन नहीं होता, न ही इन बेचारों में इतनी समझ विकसित होती है कि ये अपने अधिकारों और हितों की बात कर सकें। अपनों से बड़ों ने जो कहा, वो ये कर देते हैं, गलती होने पर मार-पिटाई गालियां खाते हैं, दुत्कार दिये जाते है और रो-बिलख कर चुप हो जाते हैं। होने को तो बाल विकास विभाग, श्रम विभाग और न जाने कौन- कौन से अन्य विभाग और भी मौजूद हैं, लेकिन इन सबका इन पर क्या असर, जबकि इनका शोषण उसी तरह जारी है ? यह दुर्भाग्य ही है कि इनकी दशा सुधारने के लिये जिन नुमाइन्दों को लगाया गया हैं, जिन कर्मचारियों को लगाया गया है, वे बिलकुल सरकारी हिसाब से ही अपनी ड्यूटी बजाते हैं। जमीनी स्तर पर कार्रवाही करने की अपेक्षा वे कागजी घोड़े दौड़ाने और आँकडों के खेल में अधिक माहिर होते हैं। बालकों की भलाई से उनका कोई वास्ता नहीं होता। कई तो नीचता की इस हद तक गिरे होते हैं कि बच्चों के हिस्से की दवाईयां, खाना, कपड़ा और अन्य सुविधाओं तक के पैसे हजम कर जाते हैं।


    मैं चर्चा कर रहा हूँ शादियों में निकासी के वक्त रोशनी के हण्डे, झाड़, या ट्यूब-लाईट्स संभालने वाले मासूम व कोमल हाथों वाले छोटे-छोटे बच्चों की। बच्चों के अलावा गरीब व दलित तबके की औरतें भी यह काम करती हैं। शादी में निकासी व बारात के वक्त रोशनी करने के लिये आमतौर पर डीजल जनरेटर काम लिया जाता है जिससे दो समान्तर तारों की लाईनें भीड़ के दायें-बांये चलती हैं। आमतौर पर इनमें एक तरफ 15-20 हण्डे, झाड़, या ट्यूब-लाईट्स होती है जिनको ये बच्चे या औरतें संभालती हैं। एक हण्डे, झाड़, या ट्यूब-लाईट का वजन  आमतौर पर 2 किलो से चार-पाँच किलो तक होता है। एक निकासी में लगभग डेढ-दो घण्टे का समय लगता है। इस पूरे समय तक ये बच्चे या औरतें इन हण्डों को हाथों में पकड़े रहते हैं या सिर पर रख लेते हैं। वजन के अलावा डोरी समय-असमय खिंचने से भी इनकों खासी परेशानी होती है। नाच-गानों के समय लाउडस्पीकरों व बैण्डबाजों की तेज आवाजों में पाँच-सात साल से सोलह-सत्रह साल तक के बच्चों का दर्द दबकर रह जाता है। बारह-तेरह साल के ऊपर के बच्चे तो यह दर्द किसी तरह सहन कर लेते हैं परन्तु छोटे बच्चों के लिये यह असहनीय होता है जो उनके चेहरों पर स्पष्ट रूप् से झलकता है। एक दो स्थानों पर तो मैंने 6-7 साल तक के बच्चे हण्डे उठाते हुए देखे। मैंने ऐसे ही कुछ बच्चों से बात की तो पता चला, किसी के पिता नहीं है, माँ यह काम करती है, अतः वह भी आ गया। दो पैसे मिलेंगे तो घर में काम आयेंगे। किसी का बाप शराबी है, माँ जो कमाती है उस को ही छीन कर दारू पी जाता है, अतः पेट भरने के लिये यह काम करना पड़ रहा है। कुल मिला कर दास्तानें इसी तरह की हैं। लेकिन इससे किसी को क्या फर्क पड़ रहा है कि जहाँ इनकी उम्र के बच्चे नाच गाने का आनन्द ले रहे हैं, या पीछे गाड़ियों में आ रहें हैं, ये 30-40 रुपयों के खातिर डेढ़-दो घण्टे तक लगातार 2 से 4-5 किलो तक का वजन  अपने नन्हे हाथों और कमजोर कन्धों पर उठाने का अभिषप्त हैं।

      निष्चित रूप से इनके माता-पिता गरीब हैं तभी तो ये यह कार्य करने को मजबूर हैं। स्त्रियों के बारे में कह सकते हैं कि वे इनकी अपेक्षा शारीरिक रूप से सक्षम हैं अतः वे यह वजन आसानी से सहन कर सकती हैं। लेकिन इनमें भी कई ऐसी देखने को मिलती है जो अपने छोटे बच्चे को कपड़े में लिटाकर पीठ के पीछे बाँध लेती हैं और स्वयं हण्डे, झाड़, या ट्यूब-लाईट को थामे रहती हैं।

     कहने का आशय यह है कि शादियों या अन्य प्रकार की निकासियों में छोटे बच्चों की मजबूरी का फायदा उठा कर उनके द्वारा वजनी हण्डे, झाड़, या ट्यूब-लाईट उठवाना उनके प्रति क्रूरता और अमानवीयता है। लेकिन इनको इस समस्या से मुक्त करने हेतू कोई पहल नहीं कर रहा है।

  यदि सम्बन्धित विभाग चाहे तो डेकोरेटर्स को चार पहियों की 5-6 फिट ऊँची एक ऐसी गाड़ी रखने के लिये राजी (या मजबूर) कर सकते हैं जिस पर हण्डे, झाड़, या ट्यूब-लाईट को उतनी ही ऊँचाई पर रखा जा सकता है जितनी ऊँचाई एक आदमी द्वारा उठाने पर मिलती है। बच्चों या स्त्रियों का कार्य गाड़ी को संभालना व इसे धकेलना-रोकना ही रहे।

   इस बारे में स्वयंसेवी संस्थायें, जो बालकों व स्त्रियों के हितों के लिये कार्य करती हैं वे भी आगे आकर पहल करें तो अच्छा होगा। यदि कोई कार्य सुविधा से बिना किसी को परेशान, मजबूर या दुखी किये बिना किया जा सके तो मानवता को ध्यान में रखते हुए वह कार्य अवश्य करना चाहिये, भले ही कार्य थोड़ा खर्चीला ही क्यों न हो।  

-श्याम सुन्दर बैरवा, सहायक प्रोफेसर 

भीलवाड़ा 

मो.नः +918764122431