हमें ना कोई धर्म चाहिए ना कोई नया संगठन चाहिए, हमें केवल और केवल गरीबी से छुटकारा चाहिए। हमें लड़ाई नहीं, हमारा हिस्सा चाहिए। कोई कह रहा है गाय का माँस मत खाइए, कोई कह रहा है गाय को राष्ट्रीय माता घोषित करिए, कोई मोर के प्रजनन की विधि बता रहा है! कोई कह रहा है सकल घरेलू उत्पाद के आँकड़े गड़बड़ हैं, कोई कह रहा है पाकिस्तान को सबक सिखाना है, कोई कह रहा है अमेरिका में जॉब्स कम हो रहे हैं तो अब क्या होगा? कोई चीन को सबसे बड़ा संकट बता रहा है! कोई ऐसा नया संगठन बना रहा है जिसमें केवल वे लोग रहेंगे जो धन इकट्ठा कर सकें, कोई नई पार्टी बना रहा है, कोई अपनी बारी का इन्तजार कर रहा है तो कोई अपनी जाजम को उठने से बचा रहा है! लेकिन सामाजिक और वित्तीय समृद्धि के बारे में कोई कुछ नहीं सोच रहा है जो कि सभी मर्जों की दवा है। कैसे? आइए, अपने एक घर की कहानी पर चर्चा करते हैं!
राधेश्याम और रामकली एक गाँव में बड़े मजे से रहते हैं (जैसा कि आप इसे परिभाषित कर सकें कि मजे से रहना क्या होता है!!)। 1-2 बीघा ज़मीन है, जिसमें पानी, खाद, ट्रैक्टर से बुवाई का कार्य उसी जमींदार की कृपा से हो जाता है जिसके यहाँ राधेश्याम हाली का कार्य करता है। ये जमींदार कोई भी हो सकता है, जाट, ठाकुर (या राजपूत जैसा आप उचित समझें!), गुर्जर, यादव और यहाँ तक कि मेवात है तो मुस्लिम और मीणा-बाहुल्य क्षेत्र है तो मीणा भी, परन्तु अनुसूचित जाति का ना हो,क्योंकि अपने धनवान लोग हमसे और हम उनसे केवल घृणा ही कर सकते हैं उनकी तरक्की में या धनार्जन में हम आपस में एक दूसरे का साथ कभी भी नहीं देंगें!)।
खैर, रामकली भी लगभग बिना किसी वेतन के इन्हीं जमींदार के यहाँ सेवाएँ देती है। जमींदार के यहाँ से, इन दोनों के वर्ष-भर अथक परिश्रम के बदले में अपनी बूढी काम-चलाऊ भैंस के लिए चारा, या जब भैंस दूध ना दे तो छाछ! यदि घर में कोई हारी-बीमारी हो या कभी जाति-पंचों के दबाव में मृत्युभोज, वगैरह करना पड़े तो कभी ब्याज पर रुपया भी मिलता रहता है। इसका ब्याज चक्रवृद्धि होता है तथा कभी भी नियमित रूप से राधेश्याम और रामकली को बताया नहीं जाता है! जैसे ही ये दोनों या इनमें से कोई एक जमींदार का काम छोड़ कर अपनी सदाबहार आर्थिक तंगी दूर करने के लिए किसी अन्य जमींदार या नरेगा या कोई अधिक दिहाड़ी वाला कार्य करना चाहते हैं तो इन्हें जमींदार द्वारा तुरन्त हिसाब बताया जाता है कि यहाँ काम छोड़ने से पहले लाओ पुराना हिसाब तो चुका दो। ये बेचारे पहले तो हिसाब देखकर ही दंग रह जाते हैं और इस सदमें से उबरने के बाद नया काम तो भूल ही जाते हैं बल्कि उसी चक्की में पिसने के लिए फिर तैयार हो जाते हैं।
बात यहीं तक रुक जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन मुसीबत यह है कि इनकी अगली पीढ़ी भी इस कर्जे से मुक्त नहीं हो पाती है। उन्हें भी बचपन से ही इस कीचड़ में धकेला जाता है और कहा जाता है कि पढ़ने लिखने में क्या रखा है कुछ कमाएगा तो जमींदार के कर्जे का कुछ बोझ ही हल्का होगा! फिर एक अनन्त काल की शारीरिक, मानसिक और संगठित सामाजिक शोषण की गाथा प्रारम्भ हो जाती है।
ये कोई मुन्शी प्रेमचन्द के काल की कहानी नहीं है। आज भी राजस्थान सहित अधिकतर राज्यों के अनुसूचित जाति के अधिकांश भाई-बहिनों की कहानी है। समाज में पढ़े-लिखे लोग भी निकल रहे हैं, राजनीतिज्ञ भी निकल रहे हैं यहाँ तक कि छोटे-बड़े उद्योगपति भी निकल रहे हैं लेकिन जिस दीन-हीन तबके का वर्णन ऊपर किया गया है उसके स्तर में ये सब मिल कर भी कोई खास परिवर्तन नहीं कर पा रहे हैं। हम इन्हें आर्थिक रूप से आत्म निर्भर नहीं बना पा रहे हैं। क्यां? क्योंकि हमारे विशाल मानव संसाधनों की अथाह ऊर्जा का सही जगह दोहन नहीं कर रहे हैं।
हमारे पढ़े-लिखे, समझदार और आन्दोलनकारी वर्ग में गज़ब का ज़ज्बा है ना जाने क्या-क्या कर गुज़रने का लेकिन पहुँच कहीं नहीं पा रहे हैं! कुछ संगठनवादी प्राणियों को आप हमेशा धन एकत्रित करने के लिए घर-घर या इधर-उधर घूमते ही पाओगे! इनको आप कोसते हुए ही बाहर निकलते देखेंगें! जो नहीं देता है उसको कौम का विरोधी बताते हुए और जो देता है उसे कंजूस बताते हुए कि कम दे रहा है! उपरोक्त उदाहरण इसी ओर इंगित करते हैं कि दुनियादारी की सबसे बड़ी आवश्यकता है धनार्जन! यानि अनुसूचित जाति समाज की आर्थिक समृद्धि ही सभी समस्यओं का हल है। जिसकी ओर एक मिशन की तरह आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
सोशल मीडिया पर चल रहे अम्बेडकरवादी मिशन सूचना प्रसारण के लिए तो लाजवाब हैं लेकिन इन वादों-इरादों की जमीनी स्तर पर कोई परिणति कहीं भी नज़र नहीं आती। जिनके पास स्मार्टफोन हैं वे आपस में एक-दूसरे को ‘‘इमोजी’’ दिखा-दिखा कर खुश होते रहते हैं और या तो तारीफों के पुल बाँधते रहते हैं अन्यथा ऐसे झगड़ते हैं कि शराफत की सारी हदें पार कर जाते हैं लेकिन आर्थिक उन्नति की कोई बात नहीं करता।
कुछ लोग अपने आप को ऐसा अम्बेडकरवादी दिखाते हैं कि एक शब्द भी आपने इनकी अपनी विचारधारा के विरुद्ध बोला या लिखा तो अपना ऐसे आपा खो देते हैं जैसे आपने इनकी किडनी माँग ली हो! कई लोग तो आपको आपकी औकात दिखाने लग जाएँगे, कुछ आप से आपके सामाजिक कार्यों का लेखा-जोखा माँगने लग जाएँगे, कई लोग आपको चाहे जानते तक नहीं हों परन्तु आपके ज्ञान व आपके पारिवारिक परिदृश्य पर भी टिप्पणी करने से नहीं चूकेंगे! यदि आप सोशल मीडिया पर कुछ विचार प्रकट कर रहे हों और इन अतिवादियों के आस-पास भी शारीरिक रूप से फटक जाएँ तो ये आपको भीड़ से ठुकवाने तक की जहमत उठा सकते हैं! इतना क्रोध है इनमें! लेकिन वही ढाक के तीन पात! आर्थिक समृद्धि की कुंजी किसी के पास नहीं है।
बाबा साहब अम्बेडकर को जिन्होंने सही मायनों में पढ़ा है वे जानते हैं कि वे केवल एक समाज-सुधारक और राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि एक उच्च कोटि के अर्थशास्त्री थे। उनकी उच्चशिक्षा ही अर्थशास्त्र में हुई थी। उनकी पुस्तक ‘‘रुपए की समस्या’’ में ही लिखा हुआ था कि समानान्तर अर्थव्यवस्था को काबू में रखने के लिए प्रत्येक 10 वर्ष में विमुद्रीकरण करते रहना चाहिए। जैसा कि वर्तमान सरकार ने किया है। एक अर्थशास्त्री होने के नाते ही बाबा साहब ने आरक्षण जैसे हथियार का उपयोग किया ताकि समाज के शिक्षित लोग आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त कर दूसरे समाज बन्धुओं को आर्थिक रूप से सम्पन्न होने में सहायता कर सकें। बाबा साहब की केवल एक ही इच्छा थी कि मेरे लोग सभी के बराबर सम्पन्न बनें। लेकिन हम सम्पन्न बन कर दूसरों की बराबरी करना तो भूल गए हैं और कुतर्कों में पड़कर केवल बातों की खिचड़ी बनाना और निःशुल्क ज्ञान बाँटना अधिक प्रारम्भ कर दिया है।
हमें नए धर्मां के और संगठनों की संरचनाओं में अपनी शक्ति और मस्तिष्क को खपाने से अच्छा है अपने आस-पास के बेरोजगार युवाओं को और व्यापार के इच्छुक लोगां के नए-नए समूह तैयार करने चाहिए और उन्हें सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों के माध्यम से प्रशिक्षित करवा कर अपना स्वयं का व्यवसाय लगाने के लिए उकसाना चाहिए। पूँजी के लिए विभिन्न बैंको में कार्यरत हमारे बैंक प्रबन्धकों से सलाह लेकर इन समूहों को आवश्यक ऋण उपलब्ध करवाने में सहायता करनी चाहिए।
इन बातों से लग रहा होगा कि ये जितना कहना आसान है करना उतना ही मुश्किल है। बिल्कुल सही। कुछ भी आसान नहीं है। लेकिन असम्भव नहीं है। क्या कुछ लोग सफल नहीं हैं? यदि हैं तो हम उन्हें प्रेरणा स्त्रोत क्यों नहीं बना रहे? हम अपने युवाओं की ऊर्जा को केवल 1 प्रतिशत से भी कम सरकारी नौकरियों के पीछे भागने में क्यों व्यय करवा रहे हैं?
कोचिंग और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में हमारा युवा इतना थक जाता है, हताश हो जाता है, आर्थिक रूप से भी तंग हो जाता है कि उसमें व्यापार इत्यादि के लिए ना तो जोखिम के लिए हिम्मत बचती है और ना ही परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता! और तो और हम भी उसे प्रताड़ित करने में कसर नहीं छोड़ते। उसको अवसर देने के लिए भी तैयार नहीं होते।
यहाँ ये नहीं कहा जा रहा है कि आप सरकारी नौकरियों में जाने का प्रयास ही ना करें लेकिन जो लोग अपनी नई पीढ़ी को एक दो व्यापारिक जोखिम उठवाने में सक्षम हैं उन्हें तो बिना किसी गुरेज़ के अन्य सफल व्यवसायी समाज की तरह अपने बच्चों में केवल धनार्जन के ही गुण डालने चाहिए। व्यवसायी का धर्म केवल धनार्जन होता है। उससे अन्य अपेक्षा बेमानी है कि वह आए और आपके साथ अम्बेडकरवाद पर तर्क-वितर्क करे! कुछ लोगों को हमें अकेला छोड़ना होगा। उन्हें केवल धनार्जन करने के लिए ही उकसाते रहना होगा।
अब हमें यह भी स्वीकरना होगा कि व्यवसायी को सभी समाजों के लोगां के साथ उठना-बैठना होता है। अपने नफे-नुकसान के बारे में अधिक और सामाजिक सरोकारों के बारे में सीमित ही सोचना रहता है। अतः हमारी उनसे अपेक्षाएँ भी सीमित ही होनी चाहिए। उसे ब्राह्मण को मनुस्मृति लिखने के लिए गलियाते रहने के लिए कहना अपने रास्ते से भटकाना ही होगा। क्योंकि उसके सवर्णों से व्यावसायिक रिस्ते भी होंगें जिनके बिना वह किसी भी हाल में आगे नहीं बढ़ सकता है। वह सम्पन्न होने का प्रयास करके समाज के ऊपर कोई अत्याचार तो कर नहीं रहा! क्योंकि एक तरह से तो वह भी बाबा साहब के सपने को पूरा करने में ही लगा हुआ है। उसका व्यवसाय में सफल होना ही उसकी बाबा साहब के प्रति सच्ची श्रद्धा है। हमें इस पक्ष को गहराई से समझना होगा और अपने कूप-मण्डूकता के सीमित ज्ञान की रजाई से सिर बाहर निकालना होगा और वैश्विक सोच के साथ आगे बढ़ना होगा। अमेरिका के अफ्रीकन मूल के समाज ने ऐसा किया ही है और उनके आज अनगिनत व्यवसायी सफलता की नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं।
हम डिक्की कुछ सफल व्यवसायियों के साक्षात्कार देखते हैं तो पाते हैं कि उनके प्रारम्भिक तरक्की के दिनों में उनकी मूल जातियों का उन्होंने कभी ढिंढोरा नहीं पीटा। किसी को पता चल गई तो ठीक नहीं तो जाति को कोई खास तवज्जो नहीं दी। आज कुछ लोग अपनी जाति को इतनी महत्ता देते हैं कि हजारों संगठन खड़े कर दिए हैं जातियों के नाम पर। कई के तो नाम सुन कर ही हँसी आती है। गली में कोई जानता नहीं और नाम में शामिल है ‘‘अखिल भारतीय’’! इनकी निरर्थक जातीय सगठनों की बजाए कुछ व्यवसायपरक संगठन बनाएँ तो हम नौकरियाँ माँगने वालों की बजाए नौकरियाँ देने वाले बनें और आने वाली पीढी को कुछ देकर जाएँ बजाए इसके कि वे जहाँ जाएँ अपनी जाति के ही लोगों को ढूँढने में अपनी सारी ऊर्जा व्यय करते रहें।
राधेश्याम और रामकली का उद्धार करें वे हमारी ओर बड़ी कातर दृष्टि से देख रहे हैं कि हम उन्हें जमींदारों के दलदल से बाहर निकाल कर एक अधिक सम्मानित काम देकर जीने का नया उद्देश्य प्रदान करेंगे!
- फोटों साभार गुगल