बचपन के बारे में सोचना किसको अच्छा नहीं लगता? अच्छे-बुरे सभी पलों को याद कर मन हमेशा ही विचलित हो जाता है। विद्यालयीन शिक्षा के दौरान निबन्ध के रूप में ‘‘दिवाली’’ एक बहुत ही सरल और आसानी से रटने लायक लोकप्रिय शीर्षक होता है। ‘‘दिवाली सारे भारत भर में बड़े हषौल्लास के साथ मनाई जाती है। यह हिन्दुओं का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण त्यौहार है। इस दिन सभी नए वस्त्र पहनते हैं। पटाखे चलाते हैं। एक-दूसरे को बधाई देते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। मिट्टी के दियों मे तेल डालकर जलाते हैं।’’ इत्यादि, इत्यादि.......! ये निबन्ध लिखते-लिखते हम, दुर्भाग्यवश बड़े हो जाते हैं, कुछ पढ़-लिख भी जाते हैं और तो और अंग्रेजी भी पढ़ना आ जाती है जिससे अंग्रेजी साहित्य पढ़कर आँखे जल्दी खुल जाती हैं। इतनी दुर्घटनाओं के बाद प्राप्त हुए ज्ञान से हमें ‘हकीकत’ और ‘कहानियों’ में अन्तर स्पष्ट दिखाई देने लगता है। ‘दिवाली’ का भी यही हाल होता है। वह निबन्धों में रटी-रटाई भाषा के स्वर्णिम युग से बाहर निकल कर हकीकत की तपती जमीन पर जब परखी जाती है तो खरी नहीं उतरती है और उसके सारे अपारदर्शी पर्दे एक-एक कर उतरते जाते हैं। ‘दिवाली खुशियों का त्यौहार है’, ‘दिवाली पूजने से लक्ष्मी आती है’ जैसे कथन सूने, नीरस और झूठे लगने लगते हैं। हम यहाँ निराशावादी बनने का प्रयास नहीं कर रहे हैं और ना ही हम अपनी ‘हर बात में नुख्स निकालने वाली’ आदत का ही परिचय दे रहे हैं बल्कि ‘दिवाली’ के ‘‘पवित्र’’ त्यौहार को एक अन्य चश्में से देखने का प्रयास कर रहे हैं। वह भी इस आशा में कि शायद समाज के 10 प्रतिशत पाठकों को भी जगा पाए तो यह एक सफल प्रयास होगा। आईए, अब हम दिवाली मनाने के कुछ लोकप्रिय कारणों या यूँ कहें, बहानों और उनसे जुड़ी हकीकतों के बारे में चर्चा करते हैं।
दिवाली के बारे में कहा जाता है कि इसे उस दिन की याद में मनाया जाता है जिस दिन अयोध्या के भावी राजा राम चन्द्र लंका से युद्ध जीतकर वापिस लौटे थे! अब आप इसी घटना को श्रद्धा की बजाए ऐतिहासिक और भारतीय की बजाए एक वैश्विक तथा हकीकत के चश्में से देखिए। राम जहाँ के राजा बने वह कौशल गणराज्य लगभग 300 वर्ष ईसा पूर्व 16 गणराज्यों या जनपदों में से एक था। कुछ जनपद इनमें से इतने बड़े थे कि उन्हें ‘‘महाजनपद’’ भी कहा जाने लगा। ये 16 गणराज्य मगध, वैशाली, कपिलवस्तु, काशी, अंग, वत्स, अवन्ती, गांधार, कम्बोज, मत्स्य, कुरु, पांचाल, सूरसेन, चेदी, वज्जी, मल्ल, अस्सक व कौशल थे। इनमें से महाजनपद मगध को कौन नहीं जानता जिसकी राजधानी पाटलीपुत्र (वर्तमान पटना) थी और चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक महान जैसे पुरोधा यहाँ के सम्राट रह चुके हैं। सभी गणराज्य अपने-अपने प्रभुत्व के लिए एक दूसरे से लड़ते रहते थे। सेनाएँ युद्ध के मैदान से लौटती तो खुषियाँ भी सभी मनाते होंगें। फिर एक छोटे से जनपद/गणराज्य-कौशल, जिसे मगध जैसे महाजनपद की तुलना में इतिहास में कोई ढँग से जानता भी नहीं है, उसकी कोई उपलब्धियाँ नहीं हैं फिर भी यहाँ के राजा के पुत्र राम चन्द्र के ही युद्ध जीतकर लौटने में क्या खास बात नजर आई हमें? इसका कारण बहुप्रचारित साहित्यिक सबूत तो नहीं? या औरों के भाट और विदूषक या दरबारी कवि ब्राह्मण वाल्मिकी या तुलसीदास दुबे की श्रेणी के नहीं थे इसी लिए इनका इतिहास तो चर्चित हो गया लेकिन औरों का जान-बूझकर दफन कर दिया गया? कहीं ऐसा तो नहीं हम कोरी कल्पना को इतिहास कह रहे हों? जिस देश का इतिहास केवल दन्त कथाओं पर आधारित हो उस देश का भविष्य कैसा होगा ये आज के हमारे अन्य देशों की तुलना में पिछड़ेपन से साफ दिखाई दे रहा है। 3000 वर्ष पूर्व लिखी गई और 500 वर्ष पूर्व पुनर्परिभाषित कथा के पात्रों के भरोसे जिस देश का बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष-महिला, समस्त प्रकार का व्यापारी वर्ग, सैनिक वर्ग, समस्त वर्गों के व्यवसायी यहाँ तक कि वैज्ञानिक वर्ग भी हो तथा उनके चमत्कारों का इन्तजार करता रहता हो, उस देष को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा करना ना केवल मुश्किल है बल्कि असम्भव है।
मुद्दे की बात यह है कि जिसकी डफली अधिक बजी उसका ही राग सर्वाधिक सुना गया! राजा-महाराजा बहुत हुए लेकिन ‘‘रामायण’’ नामक ग्रन्थ को और उसके पात्रों को इस तरह प्रचारित किया गया कि आज सम्पूर्ण भारत में उसके पात्रों की तूती बोलती है। आप भारतीय धर्मान्धता के इतिहास से ‘‘रामायण’’ को गायब करके देखिए आपको लगेगा अब क्या करें क्योंकि भगवान सारे गायब, मंदिर सारे गायब, पुजारी और उनके कर्मकाण्ड सारे गायब, सारे व्रत-त्यौंहार गायब, सारे शकुन-अपशकुन गायब, सारी जन्मकुण्डलियाँ-भाग्य और उसके दोश गायब, सभी श्याणे-भोपों के चक्कर गायब! यानि सारे फसाद की जड़ केवल एक ग्रन्थ! इसी ग्रन्थ में हमारी सारी मान्यताएँ सिमटी हुई हैं। हम इस एक ग्रन्थ के पात्रों के पीछे मृगतृष्णा की भाँति दौड़े जा रहे हैं जबकि इतिहास गवाह है कि ना तो किसी को इस ग्रन्थ से या इसके पात्रों से कुछ मिला है और ना ही किसी को कुछ मिलने वाला है। फिर भी इसका पाठ करवाया जाता है। इसी ग्रन्थ के एक पात्र ने सेवक की भूमिका में इतना नाम कमाया कि उनके अपने मालिक से अधिक पूजा-स्थल हैं! इनके नाम के पाठ और चालीसा अलग से प्रचलित हैं! लेकिन एक बात इसमें अभीष्ट है कि रामायण के सभी पात्रों के पूजा-स्थलों के पुजारी एक ही वर्ग विशेष के लोग हैं। इसका अर्थ है कि इन पात्रों की प्रसिद्धि में इस वर्ग का ही मुख्य रूप से हाथ रहा है। इस वर्ग ने रामायण के पात्रों को इतना गाया, इतना बजाया, आधुनिक यन्त्रों-तन्त्रों के माध्यम से प्रचारित किया कि लोगों को इन पात्रों से आगे कुछ भी सोचने का अवसर ही नहीं दिया।
तो क्या ये वर्ग अकेला इतना बड़ा कारनामा अन्जाम दे सकता है? क्योंकि जनसंख्या अनुपात में तो ये वर्ग 3-4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। फिर भी कैसे कामयाब हुआ हमारे दिमागों के सारे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द कर केवल एक ही दिशा में हमारा ध्यान भटकाए रखने में? तो इसका उत्तर छुपा है रामायण के पात्रों के पूर्वजों द्वारा लिखी हुई अन्य ग्रन्थावलियों में जैसे वेद, स्मृतियाँ, स्तुतियाँ, तरह-तरह के पुराण (जो कि 16वीं सदी तक लिखे गए हैं) इत्यादि में। उन्होंने मूलनिवासियों के भोले-भाले, सीधे-सच्चे राजाओं को पहले अपनी कुटिलता से पराजित किया और समस्त प्रजा पर अपनी मनगढ़न्त पुस्तकों के नियम थोप दिए। वर्णव्यवस्था की स्थापना कर समाज को वर्गां में विभाजित कर उनकी ताकत को कई हिस्सों में बाँट कर आसानी से वश में किया गया। क्षत्रियां को तलवार थमा कर उनको बाकी सभी वर्गों को नियन्त्रित करने का तथा लूट-खसोट कर धन जमा करने और जमीनें हथियाने का कारोबार दे दिया (लोगों से डरा-धमका कर लूटी हुई सम्पत्तियों पर ये आज भी ऐसे कब्जा जमाए हुए हैं जैसे इनके पूर्वजों ने बड़ी मेहनत से अर्जित की हो!)। और उनको नियन्त्रित करने के लिए ऐसे नियम बना दिए कि मजाल है जो बिना ब्राह्मण की अनुमति के एक कदम इधर से उधर रख जाए! इस तरह से जो शब्द ब्राह्मणों के मुँह से निकल गया उसे ‘‘ब्रह्म-वाक्य’’ जैसी मनगढ़न्त संज्ञा देकर बल-पूर्वक लागू करवा दिया। आज जो ‘रामायण’ के पात्रों को सब पूज रहे हैं यह इसी ‘दादागीरी’ का परिणाम है। कालान्तर में इन पात्रों के महानिकृष्टतम कार्यों को भी ‘लीला’ का नाम देकर और सम्पूर्ण विश्व का भाग्य-विधाता (जबकि विश्व की परिभाषा और विस्तार का भी ज्ञान इन भौंदूओं को नही था!) बताकर सर्वव्यापी होने का निरन्तर ठप्पा लगाते रहे। मन्दिर रूपी दुकानों से धन लूटते रहे और अपने बच्चों को विदेशों में आधुनिकतम उच्च-शिक्षा हेतु भेजते रहे। और हम ‘रामायण’ के पात्रों की लंका से जीत कर आने का जश्न ‘‘दिवाली’’ के रूप में मनाते रहे!
हमारे देशवासियों को पुरोहित वर्ग ने ऐसा भाग्यवादी और भगवान-भरोसेवादी बना दिया कि हम केवल इसी कल्पना में डूबे रहते हैं कि कुछ ना कुछ या तो बिना परिश्रम के मिल जाए या भगवान की भक्ति से मिल जाए। इसी कड़ी में दिवाली पर भी सर्वाधिक लोकप्रिय तथ्य है कि बिना किसी परिश्रम के धन प्राप्त करने के लिए काल्पनिक धन की देवी लक्ष्मी की पूजा के लिए भी कहा जाता है। अब लक्ष्मी की हकीकत देखिए। लक्ष्मी विष्णु की पत्नी थी और उसके 12 बच्चे थे ऐसा उल्लेख श्रीमद् भागवत महापुराण के स्कन्ध 4 अध्याय एक के श्लोक 1 से 7 में पाया जाता है। इन बच्चों के नाम तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्र, सुदेव और रोचन थे। अब जरा सोचिये, जिस महिला के ऊपर अपनी 12 सन्तानों के पालने का भार हो वह क्या तो बेचारी किसी को धन देगी और क्या अपने बच्चे सम्भालेगी? कई तुक्के तो बड़े हास्यास्पद हैं जैसे लक्ष्मी का वाहन उल्लू! दिन के उजाले में अन्धा, 100 ग्राम से 500 ग्राम का उल्लू, कैसे किसी मनुष्य का वाहन हो सकता है? लेकिन इसे श्रद्धा की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि भारत में इसरो के वैज्ञानिक तक इन तथ्यों के बावजूद विश्वसनीयता के परे जाकर इन्हीं की पूजा में लीन पाए जा सकते हैं! लक्ष्मी की पूजा मात्र से धन की प्राप्ति का योग ढूँढ रहे महानुभाव इस त्यौहार की तैयारी मात्र में ढेर सारी ‘लक्ष्मी’ घर से बाहर बनियों और ब्राह्मणों के घरों में पहुँचा चुके होते हैं। पूजा का अधिकतर सामान बनियों की दुकानों से आता है। एक परम्परा और है कि रात को सारा माल निकालकर लक्ष्मी के इन्तजार में लोगों को दरवाजा खोलकर सोने के लिए भी कहा जाता है शायद माल दो गुणा हो जाए!! ऐसे मामलों में कई बार दो गुणा तो क्या होता है जो है उस पर भी कोई लक्ष्मी का परम भक्त हाथ साफ कर जाता है। तब भी हमारी आँखें शायद ही खुलें!
आपको दिवाली पर मिठाई खाने और खिलाने के लिए भी कहा जाता है। ये मिठाईयाँ भी अधिकतर बनियों की दुकानों से ही खरीदी जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि जितना दूध भारत में उत्पन्न नहीं होता उससे कहीं अधिक की मिठाईयाँ यहाँ के लोग खा जाते हैं। जब कुल उत्पन्न दूध हमारी मिठाईयों के लिए भी पर्याप्त नहीं है तो पीने के लिए, चाय के लिए, घर पर बनाए जा रहे व्यंजनों इत्यादि के लिए दूध कैसे प्राप्त हो जाता है? अब आप बताईए, त्यौहारों मे तो क्या हाल होता होगा? सारा नकली, जहरीला और कैंसरकारक दूध हमारे देष में मिलता है। कैंसर के इतने मामले अचानक क्यों बढ़ गए? हमारा दूध उसका मुख्य कारण है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बड़ी-बड़ी डेयरियों पर बनियों का कब्जा है। और दिवाली जैसे त्यौहार पर ये समाज पर कैसे कहर बनकर टूटते होंगे, आप सोचकर देखिए।
दिवाली के कुछ दिन पहले ‘‘पुष्य नक्षत्र’’ का नाटक किया जाता है और ‘‘धन-तेरस’’ का भी ड्रामा खेला जाता है। नए-नए सामान, नए वस्त्र, गहने, बहुमूल्य धातुओं के सिक्के इत्यादि खरीदने के लिए शुभ मुहुर्त्त जैसी किवदन्तियाँ फैलाई जाती हैं और गरीब-अमीर सब इन जाल-जंजालों में फँसते जाते हैं। और फायदा होता है केवल दो वर्गो का। बनियों और ब्राह्मणों का। आपस में मिले होने के कारण एक नाटक करता है शुभ मुहुर्त्त जैसी किवदन्तियाँ फैलाने का और दूसरा बेचता है सामान- नकली भी-महँगा भी। भौंदू बन रहे हैं पिछड़े वर्ग के मेहनतकश और बुद्धु लोग! हम साल-भर कमा-कमा कर इनका घर भर रहे हैं और ये सूक्ष्म परिश्रम के दम पर ही अरबपति बने जा रहे हैं। इनसे व्यापार करने के गुर सीखने का प्रयास करके देखिए किसी दिन। ये इतना रोएँगे कि ‘‘अरे साहब बचता क्या है, बस दाल-रोटी मुश्किल से चल पा रही है।’’ और इनके सारे रिस्तेदार विदेशों में ऐश कर रहे होते हैं! वे भी हमारी कमाई पर!
अब निबंध के अगले वर्णन पर आते हैं जिसमें सिखाया जाता है कि ‘‘घर में और बाहर मिट्टी के दिए जलाए जाते हैं और नए वस्त्र पहन कर एक दूसरे के घर जाकर गले मिलते हैं और बधाई देते हैं।’’ आज के मिट्टी के दिए सब झूठे हो गए। चीन की लाइटों और मोमबत्तियों ने इनकी जगह ले ली है। बनियों ने गरीब कुम्हार का धन्धा चौपट कर दिया है। जहाँ 100-100 दिए खरीदे जाते थे वहीं केवल शगुन के 10-12 ही रह गए हैं! रही बात नए कपड़ों की और बधाईयाँ देने की तो नए वस्त्रों का मुनाफा भी बनियों की जेबें ही भरता है। और गले मिलना और बधाईयों का मामला तो सोशल मीडिया के ग्रुप्स तक ही सिमट कर रह गया है। पड़ोसियों में तो कोई प्यार-प्रेम रहने नहीं दिया ब्राह्मणों ने! इतनी जातियों में बाँट दिया है समस्त भारतीय समाज को कि बधाई तो दूर कोई आपकी तरफ ध्यान से देखना भी पसंद ना करे! फिर चाहे होली हो या दिवाली हो!
निबंध में पटाखे चलाने वाले तथ्य को सबसे अधिक फुटेज दिया जाता है। पटाखे नहीं चलाने की हिदायत के साथ हमेशा प्रदूषण फैलने की अपील की जाती है लेकिन हम यहाँ प्रदूषण की दुहाई नहीं देंगे, वो तो आपको वाट्सएप के माध्यम से भारी मात्रा में मिल गई होगी, बल्कि हम यहाँ बात करेंगे पटाखा इन्डस्ट्री की जहाँ गरीब बच्चों का खून चूसा जाता है और उनका पीछा तभी छूटता है जब वे या तो किसी आग्नेय दुर्घटना या टीबी-कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का शिकार हो कर मर ना जाए। अकेले शिवकाशी(जहाँ भारत की सर्वाधिक पटाखा फैक्ट्रियाँ हैं) में पिछले 10 वर्ष में 500 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। ये तो वे हैं जिनकी खबर हम तक पहुँच पाती है। इतनी कितनी ही दुर्घटनाएँ होंगी जिनकी खबरें हम तक पहुँचती ही नहीं होंगी। इन बच्चों को इन फैक्ट्रियों से निकाल कर शिक्षा की मुख्यधारा में लाना आवश्यक है ताकि ये भी कोई इज्जतदार व्यवसाय अपना सकें। इसके अलावा जो लोग पटाखा चलाते समय दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं वो अलग! क्या दिवाली बिना पटाखों के नहीं मनाई जा सकती?
अब आप यह सोच रहे होंगे कि हम आपके मजे को किरकिरा कर रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। हम आपको दिवाली सही कारण के लिए और सही तरीके से मनाने की सलाह भर दे रहे हैं। वास्तविक दिवाली 258 ई. पू. सम्राट अशोक ने तथागत बुद्ध की 84000 कथाओं की स्मृति में बनाए गए 84000 चैत्त्यों और स्तूपों के निर्माण पूर्ण होने पर प्रथम बार समस्त मगध महाजनपद के प्रभाव-क्षेत्र में ‘‘दीप-दानोत्सव’’ के रूप में मनवाया गया था। ये त्यौहार मूलनिवासियों द्वारा सम्पूर्ण भारतवर्ष में 16वीं सदी के अन्त तक बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता था जब तक कि तुलसीदास दुबे ने ‘‘रामचरितमानस’’ की काल्पनिक कथाओं का चस्का राजा-महाराजाओं को नहीं लगाया! गा-गा कर राम-लीलाओं का मंचन ब्राह्मण बहरुपियों द्वारा गाँव-गाँव में घूम-घूम कर किया गया जो सामान्य जन की शोषित और नीरस जिन्दगियों में मनोरंजन का तड़का लेकर आया तो अत्यधिक लोकप्रिय भी हुआ और इसे शासक वर्ग का संरक्षण भी प्राप्त था इसलिए इसे बलपूर्वक भी दिखाया गया। धीरे-धीरे ‘‘दीप-दानोत्सव’’ भारतीय संस्कृति से गायब-सा हो गया यद्यपि इसे थाईलैण्ड, चीन, जापान आदि राष्ट्रों में इसे हमेषा ही अति-उल्लास से मनाया जाता रहा।
अब समय आ गया है कि हमें काल्पनिक देवी-देवताओं के जंजाल से बाहर आकर सोचना चाहिए ताकि हमारी वैज्ञानिक सोच विकसित हो और सही और गलत का निर्णय लेना आ जाए। हमारा जन्म कमा-कमा कर ब्राह्मण-बनियों के घर भरने के लिए नहीं हुआ है बल्कि बचत करके अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक अच्छा प्लैटफॉर्म देकर जाने के लिए हुआ है जहाँ से वे अपने आपको सुरक्षित और आर्थिक रूप से सुदृढ़ महसूस कर सकें। हमें पूजा-पाठ की निरर्थकता को शीघ्र ही पहचानना होगा और शान्ति से पूर्णतः मिट्टी के बने हुए दियों से अपने घर को सजा कर सही और सच्चे आचरण की चन्द प्रतिज्ञाएँ करके सदा अपनी और अपने समाज की आर्थिक और मानसिक उन्नति के विकास में भागीदारी का प्रण लेकर गाने-बजाने और नृत्य से अपना हर्ष प्रकट कर मस्ती में शुद्ध मन से बिना किसी वृथा मुहुर्त्त, पूजा की विधि इत्यादि के दबाव के ‘‘दीप-दानोत्सव’’ का त्यौहार मनाना चाहिए। जानवरों और पशुओं को को कम से कम और अपने निर्धन समाज बन्धुओं को अधिकाधिक दान देकर उनका जीवन स्तर सुधारने में अपनी संतुष्टि की पराकाष्ठा तक पहुँचना चाहिए। मैंने जबसे सारे पूजा-पाठ और ढकोसले छोड़े हैं मैं अपने आपको निहायत ही मुक्त महसूस करता हूँ और केवल और केवल विकासोन्मुख सोच से कार्य करता हूँ। ये कठिन नहीं है, ड्रामा छोड़िए और देखी-दिखाई संस्कृति के बजाए अपनी स्वयं की सुदृढ़ संस्कृति स्वयं गढ़िए।
- -फोटों गुगल से साभार