हमारा देश विविधिताओं से भरा हुआ है तथा देश विविधिताओं के साथ-2 विभिन्न प्रकार की अमानवीय धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों से भी भरा हुआ है जिनमें मुख्यतः जातिवाद एवं छूआछूत हैं जो एक-दूसरे के पर्याय हैं। जातिवाद और छूआछूत खत्म होने के नाम ही नहीं ले रहे हैं क्योंकि इनके पोषक इन्हें समाज में कायम रखने के लिए नये-2 रास्ते सृजित कर लेते हैं। इसी प्रकार की एक सामाजिक/धार्मिक बुराई केरल राज्य में थी जिसके अंतर्गत महिला को अर्द्धनग्न रहना पडता था जिसके विरूद्ध महामानव/विदूषी श्रीमती दक्ष्याणी वेलायुद्दन लडाई लडी।
दक्ष्याणी वेलायुद्दन (1912-1978) का जन्म ग्राम-मुलावुकड, तालुका-कन्नायानुर, जिला-इर्नाकुलम (केरल) में सन् 1912 में हुआ था। उन्होंने सन् 1935 में अपने स्नातक की पढाई पूर्ण कर ली थी। तत्पश्चात उन्होंने अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के लिए मद्रास विश्वविद्यालय से पूर्ण किया था। उन्होंने सन् 1935 से 1945 तक सरकारी हाई स्कूल, त्रिचुर एवं त्रिपुनिथुरा में अध्यापक के रूप में कार्य किया। दक्ष्याणी पुलाया समुदाय से संबंध रखती थीं। उनका भाई श्री के. पी.वालन एक समाज सुधारक एवं विधायक थे। उनकी शादी श्री आर.वेलायुद्दन से हुई थी जो एक अनुसूचित जाति के नेता एवं बाद में लोकसभा के सदस्य बने। उनकी शादी का समारोह सेवाग्राम में आयोजित की गई थी जिसमें गॉधी जी और उनकी पत्नी श्रीमती कस्तूरबा भी उपस्थित हुई थी। उन्होंने क्रिश्चियन धर्म नहीं अपनाया जबकि उनके परिवार के अधिकांश सदस्य अपना चुके थे। दक्ष्याणी माननीय श्री के.आर.नारायणन से भी संबंधित थीं जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने थे।
दक्ष्याणी केरल की पुलाया समुदाय से ताल्लुक रखती है तथा सवर्ण व्यक्तियों के द्वारा पुलाया समुदाय की महिलाओं को उनके ऊपरी अर्द्ध धड को ढकने के साथ-2 शिक्षा, बालों की कटिंग या सवर्ण व्यक्ति के आने पर उनके पास जाना प्रतिबंधित था। उन्हें केवल मनका हार पहनने की अनुमति थी। दक्ष्याणी वेलायुद्दन जब वे छोटी थीं तब उन्होंने ऐसे अमानवीय कुकृत्यों का विरोध किया था। उनका नाम अपने आप में एक प्रेरणाप्रद था क्योंकि वहॉं दलित लडकियों के नाम कुरूम्बा, पूमाला, थारा इत्यादि रखे जाते थे लेकिन उनके माता-पिता ने उनका नाम दक्ष्याणी रखा था जिसका अर्थ “दुर्गा या दक्षा की बेटी” होता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में बताया कि सवर्णों ने उनके नाम का विरोध किया था कि एक दलित लडकी ऐसा नाम कैसे रख सकती है जैसे सवर्ण लडकियों के नाम रखे जाते हैं। उन्होंने कभी भी अपने बारे में नहीं सोचा। वे अपने माता-पिता के पॉंच भाई-बहिन थे लेकिन वे अपनी माता जी से बहुत प्रभावित थीं। वे उनके सामाजिक पुलाया महाजन सभा के द्वारा गठित असाधारण संगठन से प्रभावित होकर आगे बढीं। बाद में दलित नेता मिले और बोट पर, ”दलित समूह वेमवनाडू झील पर राजा के नियमों के विरूद्ध में मीटिंग नहीं करेंगे”, का विरोध किया। षिक्षा और रोजगार पर सवर्णों के प्रतिबंध के बावजूद, वह और उनके परिवार ने उक्त कुकृत्यों का विरोध किया और वे अपने संपूर्ण शरीर को कपडे से ढकने वाली पहली दलित लडकी बनीं और सरकारी स्कूलों में षिक्षा प्राप्त की। आगे उन्होंने कोचीन राज्य सरकार के द्वारा प्रदत्त छात्रवृति प्राप्तकर महाराजा कॉलेज, इर्नाकुलम, केरल से रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री) में स्नातक की उपाधि हॉसिल की।
दक्ष्याणी के द्वारा असवर्ण समुदाय से संबंधित एवं अकेली महिला होने के कारण भेदभाव का सामना करना पडा। उन्हें सवर्ण अध्यापक के द्वारा प्रयोग देखने पर प्रतिबंधित किया हुआ था। उसके बावजूद भी उन्होंने हार नहीं मानी और उन्होंने कक्षा में द्वितीय स्थान पर रहीं और उपाधि प्राप्त करने वाली पहली दलित महिला बनीं। उपाधि प्राप्ति के पश्चात्, उन्होंने सवर्ण प्रभावित हाई स्कूल में पढाया और उस अवधि के दौरान उनके साथ भेदभाव के कई वाक्या हुए जिनके चलते उन्हें कॉलेज छोडना पडा। उनके अध्यापन शुरू करने के कुछ समय बाद एक ऐसा वाक्या हुआ कि उन्हें एक नायर महिला से मुठभेड हुई जो चाहती थी कि वह (दक्ष्याणी) रोड छोडकर धान के खेत की तरफ उतर जाये और उधर से जाये परंतु उन्होंने मना कर दिया और कहा यदि वह रोड चाहती है तो वह उनके पीछे आये, उसे रास्ता छोडना चाहिए और फिर उसे आना है तो आये।
सामाजिक सुधार और संविधान बनवाने में भूमिका
उन्होंने व्यवस्थित भेदभाव का उन्मूलन और उसे चुनौती देने के लिए संस्थागत तरीके से अपनी राजनैतिक पहुंच बनाई। उन्होंने अपने भाई के पदचिन्हों पर चलते हुए कोचीन विधान परिषद से अनुसूचित जाति की सीट से चुनाव लडा। उसके बाद उनको मद्रास से संविधान सभा के लिए नामांकित किया गया। वे संविधान सभा में केवल अकेली दलित महिला नेता थीं। वो सभा में इतने अधिक प्रश्न पूछती थीं जिनके के लिए उन्हें आलोचना को झेलना पडता था। वे असवर्ण जातियों के व्यक्तियों के कल्याण के लिए अग्रसक्रिय थीं। वहॉं कुछ वाक्या हुए जब उन्हें उनकी समय सीमा से अधिक अधिकार देने और असवर्णों की भलाई के लिए अपना पक्ष रखा तो उन्होंने लिंग भेद टिप्पणियों का भी सामना करना पडा। अध्यक्ष ने भी उनकी अधिक समय सीमा के संबंध में कहा था कि आपको अधिक समय दिया क्योंकि आप महिला हो। वे महात्मा गॉधी जी और बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जी की जातिगत भेदभाव को खत्म करने और उसे गैर-कानूनी बनाने के लिए प्रबल समर्थक थीं। वे सामाजिक गणराज्य के विचार पर दृढनिश्चिय थीं और यह विचार ही उनका मजबूत बिंदू था। वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 की सबसे अधिक समर्थक थीं जिसके अंतर्गत छूआछूत का उन्मूलन करना और इसे भूलने जैसा व्यवहार करना तथा छूआछूत को अपराध की श्रेणी में रखना।
वे बाबा साहब से प्रतिनिधित्व और अलग मतदान के मुद्दे पर थोडा अलग थीं परंतु वे असमानता और जातिवाद का खात्मा चाहती थीं। उनका कहना था कि अलग मतदान से असमानता का नाश नहीं होगा जब तक सामाजिक ढॉंचे में सुधारात्मक नैतिक सुरक्षा लागू नहीं की जाती। संविधान सभा और अस्थायी संसद की सदस्य के बाद, उन्होंने सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत हो गयीं और उन्होंने सामाजिक समूहों के साथ काम किया। जिंदगी के अंतिम क्षणों में उन्होंने अंबेडकराईट महिलाओं के लिए दिल्ली में एक सामाजिक संगठन बनाया जिसका नाम ’महिला जागृति परिषद’ था जिसने कच्ची बस्तियों में रह रहे व्यक्तियों के बीच कार्य किया। ऐसी महान हस्ती के लिए जो लिखा जाता है वह भी कम ही पडता है। परंतु देखने की बात यह है कि इस देष से सामाजिक और धार्मिक असमानता खत्म लेने का नाम ही नहीं ले रही है। अगर हम ग्रामीण परिवेश पर नजर डालें तो स्थिति में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं है। इस देश में असमानता भी ऐसी कि एक मानव दूसरे मानव से घृणा करता है और इससे हमारे देश के बुद्धिजीवी भी पीछे नहीं हैं। इसमें फर्क इतना ही है कि उन्होंने असमानता के दूसरे रास्ते अपना लिये हैं। इस देश के विकास में सामाजिक और धार्मिक असमानता ही बाधक है उसके बावजूद भी इनमें कोई सुधार नहीं है।
कुछ ऐसी कुरीतियों के पोषक हैं जिनकी महत्वा में सबसे पहले जाति, उसके बाद धर्म और सबके बाद राष्ट्र आता है जबकि मेरा ऐसा मानना है कि हम सभी के लिए सबसे पहले और बाद में देश सर्वोपरि होना चाहिए, न कि जाति और धर्म क्योंकि देश में असमानता के मुख्य कारण जाति और धर्म ही हैं और ये दोनों एक दूसरे के पूरक एवं पर्याय हैं। ये समानता के पक्के दुष्मन हैं। इसलिए हमें महामानव दक्ष्याणी से यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि जिस प्रकार उन्होंने सामाजिक और धार्मिक बुराईयों का उन्मूलन करने के लिए संपूर्ण जिंदगी को न्यौछावर कर दिया था उसी प्रकार हमें भी समाज में व्याप्त बुराईयों का नाश करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। इसमें यही कहूॅंगा कि महामानव बुद्ध ने कहा था अप्प दीपो भवः, स्वयं का प्रकाश स्वयं बनो तभी हमारा उद्धार हो सकता है। इस संबंध में निम्नलिखित पंक्तियां प्रस्तुत हैं।
सब्ब पापस्स अकरणं, कुषलस्स उपसंपदा।
सच्चितपरियोदपनं, एतं बुद्धान शासनं।।
भावार्थः कोई पाप नहीं करना, केवल कुशल कार्य ही करें। अपने मन को परिषुद्ध करें, यही बुद्ध का अनुसरण है।।
-रूपसिंह
फोटों गुगल से साभार