बाबा साहेब को दलित समाज अपना मसीहा मानता है। वास्तव में यह उनके कद को कम करके आँकना है। उनका व्यक्तित्व इतना विशाल था कि तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग उनका सही आंकलन नहीं कर पाया। ज्यों-ज्यों उन पर अध्ययन हो रहा है, अनुसंधान हो रहे हैं, उनसे एक ही बात सामने आ रही है कि वे अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे, वे न केवल दलित समाज के मसीहा थे बल्कि उन्होनें स्त्री जाति के लिये, समस्त मजदूरों, सर्वहारा वर्ग और शोषितों के लिये बहुत काम किये। बौद्ध धर्म को उसकी मातृभूमि में पुनर्जीवित करने का श्रेय आपको ही है। साथ ही हिन्दू धर्मावलम्बियों को अपने धर्म में सुधार करने के लिये विवश किया। दलित वर्ग पर तो उनके इतने अहसान है कि यह वर्ग उनसे उऋण नहीं हो सकता।
बाबा साहेब द्वारा समय-समय पर दिये गये भाषणों, उनके द्वारा लिखित पुस्तकों और उनके व्यवहार से उनके विचारों की बहुत कुछ जानकारी मिलती है।इस लेख में बाबा साहेब के उद्धरणों, और वर्तमान में दलित समाज के आचरण पर विचार किया गया है। यह विचार इसलिये आवश्यक है ताकि हम उनके द्वारा दिखलाये गये पथ से विचलित ना हो। जहाँ हमारे विचार बाबा साहेब के विचारों से मिलते हैं, आमतौर पर उन्हें छोड़ दिया गया है।
बाबा साहेब मानते थे कि ’अस्पृश्यता की जड़ जात-पाँत है और इसके मूल में वर्णाश्रम व्यवस्था है जो ब्राह्मणवाद की देन है।’ फिर भी हमारे अनेक बन्धु इसी ब्राह्मणवाद को मजबूत करने के लिये समय-समय पर तथाकथित धार्मिक कर्मकाण्ड करते रहते हैं और अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करते हैं।
बाबा साहेब का मानना था कि हिन्दू सभ्यता का असली नाम कलंक होना चाहिये। इसने मनुष्यों का एक ऐसा वर्ग पैदा किया, जिसे जीविकोपार्जन के लिये अपराधवृत्ति की मान्यता प्राप्त है, एक दूसरा मानव समुदाय है, जिसे मानव सभ्यता के युग में आदिम बर्बरता के साथ फलने-फूलने के लिये छोड़ दिया गया है, तीसरा वह समुदाय है जिसका मानवेत्तर अस्तित्व है और जिसे छूने भर से छूत लग जाती है।
इसमें बाबा साहब ने कितनी मार्मिक बात कही है! आज हमारे दलित समाज में ही ये विभिन्न स्थितियां मौजूद नहीं है! ज़रा विचार करें तो सब स्पष्ट हो जायेगा। फिर अपनी तुलना सवर्णों (सामान्य वर्ग) से करते हैं तो और भी स्पष्ट हो जायेगा। फिर भी हमारे दलित भाई इसी हिन्दू सभ्यता को मजबूत करने में लगे हुए हैं। आज आर एस एस, विहिप, बजरंग दल, शिव सेना और इसी प्रकार के अन्य हिन्दुवादी संगठनो की वास्तविक ताकत (हरावल दस्ता-मोर्चे पर आगे रहने वाल, लड़ने वाले) दलित (अजा, अजजा व अपिव) के व्यक्ति ही है। अगर आज ये इन संगठनों का साथ छोड़कर बाबा साहेब के आंदोलन के साथ जुड़ते हैं तो देश की कायापलट होते समय नहीं लगेगा। जहाँ ऐसा हुआ है वहाँ सार्थक परिणाम नजर आये हैं।
कितने ही प्रयत्न और परिवर्तन हुए, परन्तु बाबा साहेब का यह वाक्य आज भी अटल है कि ’हिन्दू सोसायटी उस बहुमंजिले मीनार की तरह है जिसमें प्रवेश करने के लिये न सीढ़ी है न दरवाजा। जो जिस मंजिल में पैदा हो जाता है, उसे उसी मंजिल में मरना होता है।’
हिन्दूवादी संगठनों के समर्थक दलित भाईयों! आपमें से किसी एक को भी आपके समर्थित संगठन ने ब्राह्मण ,क्षत्रिय या बनिया की मान्यता दी है! आप चाहे जिने भी पढ़े-लिखे और विद्वान हों, आपके शादी-ब्याह और अन्य सामाजिक कार्यक्रम आपकी जाति में ही होते हैं। प्रेम विवाह की बात अलग है, वह सामाजिक बैनर तले कहाँ होता है ?
शिक्षा का महत्त्व बताते हुए बाबा साहेब ने कहा था, "शिक्षा शेरनी का दूध है, जिसने यह दूध पी लिया वह निडर हो जायेगा। शिक्षा सस्ती से सस्ती होनी चाहिये जिससे कि निर्धनतम व्यक्ति भी आसानी से इसे प्राप्त कर सके।"
आज शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले नित्य प्रतिदिन के प्रयोगों ने शिक्षा का सत्यानाश करके रख दिया है। विद्यार्थी मित्र, गुरु मित्र, राजीव गाँधी पाठशाला, कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय विद्यालय, अम्बेडकर आवासीय विद्यालय, मिड डे मील, सर्व शिक्षा अभियान और न जाने कितनी इसी तरह की बेसिर-पैर की योजनाएं चल रही हैं और न जाने कितनी बंद हो गई, परन्तु शिक्षा का स्तर उठने के बजाय गिरता ही जा रहा है। सरकार की तरफ से दी जाने वाली षिक्षा न केवल सस्ती, बल्कि निशुल्क है, परन्तु उसमें गुणवत्ता नहीं रही है। आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी ये योजनायें गरीबों और दलितों पर भारी पड़ रही हैं। आज हर तरफ से लाचार, मजबूर और दीनहीन व्यक्ति ही सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजता है।
क्या सरकारों के लिये इतना ही काफी नहीं था कि सभी विद्यालयों में पूर्णकालिक अध्यापक हों, अध्यापक समय पर आयें और कार्य पूर्ण कर समय पर जायें, स्कूलों में शैक्षणिक व सहशैक्षणिक गतिविधियों के लिये फण्ड की कमी न हो, तबादले कार्य के आधार पर हों, न कि राजनीति से प्रेरित, और शिक्षकों व विद्यालयों को सभी प्रकार के गैर शैक्षणिक कार्यों यथा-जनगणना, पशु गणना, आर्थिक गणना, चुनाव आदि से मुक्त रखा जाये, ताकि निर्बाध रूप से शिक्षण कार्य हो सके ? प्रत्येक सरकारी कर्मचारी और राजनेता के बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ें, चाहे कर्मचारी कलेक्टर हों या चपरासी, नेता चाहे पार्षद हों या मुख्यमंत्री। अन्य सभी योजनाएं खत्म। गरीब व कमजोर तबके के विद्यार्थियों को मदद के नाम पर मासिक उपस्थिति के आधार पर नकद, राशन या कापी किताबें दी जाती तो अच्छा रहता।
शिक्षा को रसातल में पहुँचाने में क्या हमारे दलित नेता और मंत्री जिम्मेदार नहीं हैं? शिक्षा विरोधी नीति-नियम बनते गये और ये अपना मुँह सिले कुर्सी से चिपके बैठे रहे। कई बार तो दलित नेताओं को ही स्वतंत्र रूप से शिक्षा मंत्री बनाया गया। यदि ये बाबा साहब के अनुयायी होते तो ऐसे स्वर्ण अवसर को यूं ही ऐशों-आराम में गँवाते? शिक्षा के क्षेत्र में दलित विरोधी नीति-नियमों के विरोध में इस्तीफा देना तो दूर की बात, कभी पुरजोर विरोध तक न हुआ।
एक स्थान पर बाबा साहेब ने कहा था कि 'स्वतंत्रता को किसी महान आदमी के आगे समर्पित नही करना चाहिये। भक्ति या वीर पूजा पतन और तानाशाही का मार्ग है।’
इसके विपरीत कई व्यक्ति (दलित और गैर दलित, सभी) यसमेन बनकर रहते हैं। कभी किसी गलत बात का भी विरोध नहीं करते और इसी कारण देश और समाज का पतन प्रारम्भ होता है।
बाबा साहेब ने कभी हिन्दुओं की धार्मिक पुस्तकों के प्रति वह आदर प्रकट नहीं किया जो ऐसी पुस्तकों के प्रति प्रकट किया जाता है। इस पर बाबा साहेब का कथन था कि ’धार्मिक पुस्तकों के प्रति श्रद्धा कराई नहीं जा सकती है। यह तो स्थितियों से स्वयं उत्पन्न होती है अथवा हटती है। इनके प्रति ब्राह्मणों की श्रद्धा तो स्वाभाविक है, परन्तु गैर ब्राह्मणों के लिये यह अस्वाभाविक है।’ इस कथन का कारण है कि बाबा साहेब ने लगभग सभी धार्मिक पुस्तकों का आलोचक की दृष्टि से अध्ययन कर लिया था। हमारे दलित भाई इनको श्रद्धा की दृष्टि से पढ़ते हैं। तभी तो आज भी सर्वाधिक कर्मकाण्ड-रामायण पाठ, सुन्दरकाण्ड पाठ, नवरात्रा आदि कार्यक्रम दलितों के घरों में ही होते हैं और इन सबका फायदा ब्राह्मण और व्यापारी वर्ग उठाते हैं। दलित वर्ग को क्या मिलता है? भक्ति ? तभी तो सुन्दर काण्ड का पाठ कराते हैं जिसमें लिखा हैः-
ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी।
सकल ताड़न के अधिकारी।।
रामचरित मानस ( सुन्दरकाण्ड-58-3।।)
ब्राह्मण हमारे ही घर में इस चौपाई के जरिये हमें और माताओं-बहनों को ताड़ना का अधिकारी घोषित कर जाता है और साथ ही मोटी दक्षिणा भी ले जाता है। यह है हमारी बुद्धि का नमूना!
बाबा साहेब पढ़-लिखकर उच्च पदों पर आसीन हुए, केंद्र सरकार में अपनी काबिलियत के बल पर विरोधी सरकार होते हुए प्रथम कानून मंत्री बने (बाबा साहब की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी आफ् इंडिया थी, काँग्रेस नहीं), पर कभी उन्होनें अपने आपको उन कठोर, क्रूर और अमानवीय व्यवहार से अलग नहीं समझा, जो भारत के उच्चवर्गीय लोगों ने दलितों को प्रदान किया। इनको वे अपनी वास्तविक ताकत मानते थे।
आज हमारे कई दलित भाई जो आरक्षण के बल पर उच्च पदों पर आसीन हैं और अपने समाज में अच्छा सामाजिक स्तर पा लिया है, वे कहते हैं ’हमारे दादा के दादा को सवर्णों के दादा के दादा ने थप्पड़ मारा, यह बात अब कहने से क्या होगा ? इससे तो आपसी कटुता बढे़गी और सामाजिक सौहार्द कम होगा।’
सामाजिक सौहार्द कायम रखने की जिम्मेदारी हमारी ही तो है! हमको ही तो सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र का मेडल लेना है ! इसी सत्य का परिणाम है कि आज तक सामान्य वर्ग को वास्तविक रूप से उन असमानताओं का अहसास तक नहीं हो पाया, जो हमारे वर्ग ने सही। पश्चाताप प्रकट करने और मानवोचित अधिकार देना तो दूर की बात है। उनकी दृष्टि में यह सब रोजमर्रा का कार्य था। ये आरक्षण को दलित वर्ग के लिये पुनर्भरण का माध्यम और जरूरत नहीं, बल्कि भीख मानते हैं और वोटों के बल पर समाप्त करने की घोषणा करते हैं। ऐसे ही सत्यवादियों की वजह से जगह-जगह पर आरक्षण का विरोध हो रहा है और वह दिन दूर नहीं जब आरक्षण बिलकुल खत्म हो जाये या इसे आर्थिक आधार पर लागू कर दिया जाये।
बाबा साहेब ने गाँधी युग को भारत का अंधकारमय युग बताया था और इसके पीछे उचित तर्क भी दिये थे कि इस युग में लोग आगे बढ़ने के बजाय पुरातन की और लौट रहे हैं।
बाबा साहेब के समय से ही दलित समुदाय कई वर्गों में बँटा हुआ था। एक वर्ग गाँधीजी और काँग्रेस का कट्टर भक्त था, जो बाबा साहेब के बजाय इनको ही सब कुछ मानता था। दूसरा वर्ग बाबा साहेब का अनुयायी रहा। तीसरा वर्ग दोनों का ही समर्थक रहा। बाबा साहेब के अवसान के बाद उनके अनुयायियों को कोई नेतृत्व नही मिला, जबकि प्रथम वर्ग को हर प्रकार से सुख-सुविधा और राजसत्ता मिली। इसी कारण से यह वर्ग फला-फूला। आज भी इसी वर्ग का सभी तरफ दबदबा है। बसपा के उदय के बाद इस वर्ग का वर्चस्व कम जरूर हुआ है, परन्तु अभी तक यह द्वितीय वर्ग की अपेक्षा कई गुना अधिक है।
काँग्रेस के लिये बाबा साहेब ने कहा था कि काँग्रेस एक जलता हुआ जहाज है, उसमें जाकर अपना और अपने समाज का नुकसान न करें। दलित युवक काँग्रेस में जाते हैं तो अछूतों की वेदनाओं को मुखरित करने वाला कोई नहीं बचेगा।
आज हालात क्या हैं किसी से छिपे नहीं है। कुर्सी पाने के लिये उदितराज को भाजपा में ही जगह मिली।
भागवत् गीति के सम्बन्ध में बाबा साहेब ने कहा था कि’ ब्राह्मणों ने सत्ता हथियाने के लिये भाग्वतगीता लिखी।’ आज हमारे नव धनाढ्य दलित भाई आये दिन उस भागवत् गीता का पाठ कराते हैं जो वर्ण-व्यवस्था की कट्टर हिमायती है और यह कहती है ’अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत-प्राप्ति रूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता हैं ( अर्थात् जो वर्ण-व्यवस्था के अनुसार धर्म का पालन करता है।) (भागवत् गीता अध्याय 18, 44-47)
इस विचार से दलित समाज का कोई भी व्यक्ति भगवत-प्राप्ति रूपी परमसिद्धि तभी प्राप्त करेगा, जब वह अपना पुश्तैनी धन्धा खुशी-खुशी अपनाये। जबकि हकीकत यह है कि दलित समाज की उन्नति पुश्तैनी धन्धे छोड़ने से और पढ़ाई-लिखाई में निहित है। दलितों के पुश्तैनी धन्धे तीनों वर्णों की सेवा से जुड़े और कई स्थानों पर तो घृणास्पद हैं।
कई स्थानों पर बाबा साहेब ने लिखा है कि ऐसा प्रयत्न करो जिससे तुम्हारे बच्चे तुमसे अच्छी अवस्था में जी सकें। शिक्षा का महत्त्व पहचानों।
आज हालात यह है कि हमारे पढ़े-लिखे और शिक्षित तबके को छोड़ दें तो समाज में अधिकांश कम पढ़े लिखे, पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाले या छोटा-मोटा काम धन्धा करने वाले अधिक हैं।
गाँधी ने दलितों को हरिजन शब्द दिया। काँग्रेस यही शब्द बम्बई विधानसभा में अछूतों के लिये प्रयुक्त करने की सिफारिश करना चाहती थी। बाबा साहेब काँग्रेस का मन्तव्य भली-भाँति समझते थे। (हरिजन शब्द का प्रचलित अर्थ हरि की संतान बताया जाता था, परन्तु वास्तव में तो मंदिरों में रहने वाली देवदासियों की संतानों को हरिजन कहा जाता था)। अतः उन्होनेंं कहा, ’हरिजन शब्द से पाखण्ड की बू आती है। फिर भी यदि सभी हिन्दुओं को हरिजन कहा जाये तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। यदि अछूत लोग ईश्वर की संतान हैं तो हिन्दू क्या दानव की संतान हैं ?’
वर्तमान में हरिजन शब्द असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है। फिर भी जगह-जगह हरिजन कॉलोनी, हरिजन बस्ती के बोर्ड लगे हुए मिल जाते हैं। यहाँ तक कि मेहतर समाज के लोग अपने नाम के साथ हरिजन नाम न केवल लगाते हैं, बल्कि उसे हटवाने के लिये कोई उचित कार्रवाही भी नहीं करते हैं।
बाबा साहेब ने घृणित काम-धन्धे छोड़ खूब पढ़ाई-लिखाई कर अच्छी जीविका अपनाने के लिये कहा था। लेकिन भारी अफसोस है कि मेहतर बन्धु आज भी इसी धन्धे से चिपके रहना चाहते है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है 14 जून 2011, 22 जून 2011 व 24 जून 2011 को भीलवाड़ा से निकलने वाले राजस्थान पत्रिका में छपी खबरें, जिनका सार यह था कि नगर परिषद में डेढ़ सौ सफाई कर्मियों की भर्ती में 74 गैर वाल्मिकी समाज और अन्य जिलों के लोगों के नाम पात्रता सूची में शामिल करने के खिलाफ अखिल भारतीय सफाई मजदूर काँग्रेस, अम्बेडकर वाल्मिकी समाज सेवास्तम्भ, वाल्मिकी सफाई ठेका संघर्ष समिति व मिशन सेवा ने विरोध किया। अखिल भारतीय सफाई मजदूर काँग्रेस ने कलेक्टर को इस आश्य का ज्ञापन दिया। वाल्मिकी सफाई ठेका संघर्ष समिति ने ज्ञापन नगर परिषद प्रशासन को दिया।
कितना विरोधाभास है? कहाँ पहले अन्य दलित जातियों लोग राजे-रजवाड़ों की मार खाते-खाते बेदम हो जाते थे, फिर भी घृणित काम-धन्धा नहीं करते थे। आज ये उसी घृणित काम से चिपके रहना चाहते हैं! इस बारे में क्या कहा जाये ?
एक अन्य स्थान पर बाबा साहेब ने कहा था कि विद्यार्जन जिन्दगी भर करते रहना चाहिये। विद्या के साथ प्रेम पुत्र-पत्नि से भी अधिक होना चाहिये।
जिन्दगी भर विद्यार्जन की क्या कहें, अधिकतर दलित भाई तो एक-दो बार फेल होने पर ही मजबूरीवश पढ़ाई छोड़ देते हैं। आगे बाबा साहेब ने कहा था कि आपकी अधिक संतान होगी तो आप उनकी अच्छी देखभाल नहीं कर पायेंगे न ही अच्छी शिक्षा दे पायेंगे।
आज भी कई दलित परिवार ऐसे हैं जिनमें 6-7 संताने आम बात है और आय का कोई ठोस जरिया नहीं है। फलतः एक भी संतान काबिल नहीं बन पाती है।
स्वयं के 50 वें जन्म दिन के समारोह में बाबा साहेब ने कहा था कि ’मनुष्य को ईश्वर के समान मानना विनाश का मार्ग है।’ आज हमारे कई दलित भाई बाबा साहेब को भले ही जानें न जानें, पर आसाराम, मोरारी बापू, राम रहीम गुरमीत ईसा आदि अनेक तथाकथित सन्तों को जरूर ईश्वर जैसा सम्मान देते हैं।
बाबा साहेब ने कभी हिन्दु देवी-देवताओं का प्रभुत्व स्वीकार नहीं किया और अंत में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। कई दलित भाई आज भी जब तक सुबह-शाम एक-एक बार बालाजी, भैरूजी, राम जी आदि अन्य ’भगवानों’ की पूजा नहीं कर लेते, तब तक उनको चैन नहीं पड़ता। याद रहे, आरक्षण, जिसकी बदौलत आज का दलित समाज इतनी ऐषो-आराम की जिन्दगी जी रहा है, वह बाबा साहेब की देन है न कि इन संतों और भगवानों की। आरक्षण नहीं मिलता तो कही जूते गाँठते रहते या मेहनत मजदूरी करते। यह ऐशों-आराम नसीब न होता।
दलितों की मुक्ति का उत्तम मार्ग उच्च शिक्षा, अच्छा रोजगार और जीविका कमाने के उत्तम ढंगों में निहित हैं। बाबा साहेब ने यह बड़े ही मार्के की बात कही थी, जबकि हमारे दलित भाई आज भी अपनी मुक्ति तीर्थ यात्राओं, गंगा-स्नानों और मंदिरों में ढूंढते हैं। यदि इनसे ही मुक्ति होती, तो क्रांतिकारी संत कबीरदास को क्यों कहना पड़ता-
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहाड़ और मूंड मुंडाय हरि मिले और तीरथ नहाये हरि मिले....
इन भगवानों के क्या हाल हैं, यह रोज अखबारों में छपी खबरों से पता चल जाता है। चाहे रामदेवजी हों चाहे कुंभ का मेला हो या पावागढ़ हो या कोई अन्य देवी-देवता, सभी जगह जाने वाले भक्त अकाल मौत मरते आये हैं और ये भगवान किसी को नही बचा पाये। मंदिरो की मूर्तियों के चोर वस्त्राभूषण खोल कर ले जाते हैं और बेचारे भगवान नंग-धडंग रह जाते हैं। चोरां का बाल भी बाँका नहीं कर पाते। यह कम फिर पुलिस या जनता को करना पड़ता है।
मंदिर प्रवेश के बजाय हमें भौतिक और राजनैतिक उन्नति की और ध्यान देना चाहिये। हो क्या रहा है? रोज मंदिरों के भगवानों में इस विज्ञान के दौर में भी प्राणप्रतिष्ठायें की जा रही है जो कि अधिकतर दलितों द्वारा की जा रही है। प्राणप्रतिष्ठा करने वाले क्या किसी मृत शरीर में प्राणप्रतिष्ठा कर देंगे? मुँहमांगा इनाम दिया जायेगा। आज बाबा साहेब होते तो दलितों के क्रिया-कलाप देख कर निश्चित ही सिर धुन लेते।
देवी-देवताओं के बेकार के चढ़ावे, लम्बे समय तक शोक, जन्म, मृत्यु तथा विवाह संस्कारों से मात्र ब्राह्मणों को ही खुशी मिलती है। अतः इनका समय कम होना चाहिये। (कई स्थानों पर यह कम हुआ भी है परन्तु बहुसंख्या में आज भी इनमें काफी समय लगता है।)
’’मैं किसी समाज की प्रगति का अनुमान इस बात से लगाता हूं कि समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है ?’’ जुलाई 1942 में अमरावती में दलित महिला सम्मेलन में दिये गये उद्बोधन को कितना अंगीकार कर पाये हैं हम ? आज भी दलित समाज में लड़कियों से दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है, खासकर ग्रामीण औेर कस्बाई पृष्ठभूमि में। उनकी पढ़ाई-लिखाई पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। बुजुर्ग लोग आज भी चाहते हैं कि चाहे जितनी लड़कियां हो जाये, एक लड़का तो होना ही चाहिये। इस सोच के नतीजे अच्छे नहीं हैं।
आज इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बाबा साहेब के सिद्धान्तों पर चलने वाले, उनके आद को जीवन में उतारने वाले और कर्मकाण्डों को ठेंगा दिखाने वाले व्यक्ति भी लाखों की संख्या में मौजूद हैं। हमारी कोशिश यही होनी चाहिये कि ऐसे सच्चे अम्बेडकरवादी सिपाहियों का हौंसला अफजाई करें, उन्हें समाज में उचित सम्मान प्रदान करें और बाबा साहेब के सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार में सहयोग करें। यही उनकी सच्ची पूजा होगी और उनको श्रद्धाञ्जलि भी!