और अम्बेडकर मुस्कराए...!

 


आज के बुद्धिजीवी भारत (यह जनसंख्या का 30 प्रतिशत ऐसा हिस्सा है जो देश की दशा और दिशा तय करने का  निर्णय लेता है) का वातावरण कुछ बदला बदला-सा है। कई ऐसे मुद्दे, जिन्हें बुहार कर दरी के नीचे छुपा देना उचित समझा जाता था, उन्हें वापिस निकाल कर, झाड़-फूँक कर, साफ किया जा रहा है। इन विषयों के सतह पर आने के बाद से ही सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर कुछ नई रणनातियाँ बन रही हैं और कुछ बदल भी रही हैं। ऐसे मुद्दे जिन्हें अछूत समझा जाता था, उनमें से एक है ‘जाति’ का और दूसरा है ‘धर्म’ का। इन्हीं दोनों मद्दों से जन्मा तीसरा मुद्दा है ‘आरक्षण’ का।
जातिवाद जैसे विषय जिनके रास्ते से लोग अपना दामन बचा कर निकलना उचित समझते थे (विशेष कर हिन्दूवादी विचारधारा से ओतप्रोत सज्जनगण) उन्हें भी जाति के ऊपर अपने विचार प्रकट करते सुना जा सकता है। समर्थक हैं या विरोधी यह एक अलग विषय है परन्तु इस विषय में इनका बात करने के लिए तैयार होना ही इस देश में एक अनहोनी घटना जैसा है। जो हिन्दूवादी संगठन और उनकी दकियानूसी विचारधारा के अनुयायी, मूलनिवासी संगठनों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे वे आज विभिन्न अवसरों पर मूलनिवासियों के साथ मंच साझा करने के लालायित नज़र आ रहे हैं। राष्ट्र के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक वातावरण का ये रूप देख कर शायद बाबा साहेब अम्बेडकर भी मुस्करा रहे होंगें!  
हाल ही में तेजी से घटे कुछ घटनाक्रमों ने भारतीय समाज के कई पहलुओं को उजागर किया है। इनमें मुख्यतया एक धार्मिक संगठन (जो स्वयं के नाम के अनुसार ही सही अर्थों में अपनी स्वयं की सेवा करने में लगा हुआ है) के पुरोधा द्वारा आरक्षण पर पुनर्विचार की घोषणा करना और देश के जनसंख्या की दृष्टि से दूसरे सबसे बड़े राज्य में इनके समर्थन वाली पार्टी का बुरी तरह पटखनी खाना फिर हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वैमूला द्वारा एक लम्बा भावातिरेक पत्र लिख कर अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के वर्णन के बाद मृत्यु का वरण करना, इसके बाद इस मामले में केन्द्र सरकार व विश्वविद्यालय प्रशासन की लीपा-पोती करना, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्हैया कुमार द्वारा जाति-धर्म के नाम पर देश चलाने वाली ताकतों को आड़े-हाथों लेना, देशद्रोह की नई परिभाषा का गढ़ा जाना और सरकार चलाने वाले पुरोधाओं द्वारा सभी मुद्दों पर सफाई देने के लिए विवश होना और अपनी वैचारिक जमी हुई बर्फ को आश्चर्यजनक रूप से पिघला कर मूलनिवासियों के आरक्षण को बनाए रखने की कसमें खाना और रोहित वैमूला को देश का महान पुत्र घोषित करना। इनके अलावा भी जैसे एक गुजराती पटेल का आरक्षण की माँग कर किसी का नायक तो किसी का खलनायक बनना, हरियाणा की एक दबंग जाति द्वारा आरक्षण की माँग की आड़ में अन्य जातियों को सबक सिखानें की कोशिश करना इत्यादि ऐसे मुद्दे हैं जिन्होंने बाबा साहेब द्वारा लिखे संविधान के मूल मंत्रों से परे जाकर सरकार चलाने वालों को ‘यू-टर्न’ लेने पर विवश कर दिया।
ये सारी परिस्थितियाँ, एक ही मूल भावना प्रकट करते हैं कि- जिन्होंने भी देश को भारतीय संविधान की मूल भावनाओं के इतर किसी भी धार्मिक या सामाजिक रुढ़िवादी पद्धति से शासित करने का प्रयास किया वह कभी भी सफल ना हो सका। साथ ही यह भी निश्चित है कि जिन्होंने भी बाबा साहेब अम्बेडकर को सम्पूर्ण भारत का नेता न मानकर केवल मूलनिवासियों का ही नेता मानने की भूल की, उसने भी पटखनी ही खाई है। क्योंकि अब ये सिद्ध हो चुका है कि न केवल बाबा साहब का संविधान बल्कि उनका देशहित का दर्शन ही शास्वत व सर्वदा स्थाई है। अन्य कोई भी ‘‘राष्ट्रवाद’’ की परिभाषा सर्वमान्य नहीं हो सकती है। 
अब चूँकि सब कुछ फिर से इतनी तेजी से परिवर्तित हो रहा है (सोशियल मीडिया के सर्वव्यापी हथियार जैसे वाट्सएप इत्यादि को धन्यवाद!) कि आप जनसामान्य की प्रतिक्रिया सैकण्डों में जान सकते हैं। इसी सूचना के प्रसार के आन्दोलन के युग का कमाल है कि कुछ अनचाहे प्रश्नों की चर्चा करने पर देश चलाने वालों को विवश कर रहा है, इसे अम्बेडकरवाद का पुनर्जागरण ही कहेंगे। जिसकी अनुभूति से बाबा साहेब अम्बेडकर भी मुस्करा रहे होंगे!
इस युग का सर्वाधिक लाभ हो रहा है अम्बेडकरवादियों को! क्योंकि अम्बेडकर आपको सही दिशा और मानवतावादी धर्म अपनाने के लिए कहते हैं। आप किसी भी जाति या धर्म को मानते हों लेकिन अम्बेडकर को अपनाने में आपको कोई समस्या नहीं आएगी। जो अम्बेडकरवादी चाहते हैं कि अम्बेडकरवाद सर्वव्यापी हो और उनकी विचारधारा का हर कोई प्रशंसक हो तो वह समय आज है। जब भी कोई सवर्ण जाति का मुख्य नेता या हिन्दू धार्मिक समूहों का प्रमुख वक्ता अम्बेडकर की प्रशंसा करता है तो इसे सामान्य घटना की तरह लेना कतई सही नहीं है। ये अम्बेडकरवाद और अम्बेडकरवादियों की जीत है। यद्यपि कुछ लोग इसे वोट की राजनीति कह सकते हैं लेकिन बहुमत आधारित इस राजनीति के पथप्रदर्शक भी बाबा साहेब अम्बेडकर ही हैं। उन्होंने जो कल्पना की थी कि प्रजातन्त्र के सही क्रियान्वयन से ही इस देश से सामन्तवाद, जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता, क्षेत्रवाद इत्यादि समाप्त हो सकता है तो वह समय अब प्रारम्भ हो चुका है। चाहे सम्पूर्ण सफलता अभी बाकि हो लेकिन यदि सकारात्मक सोचा जाए तो अम्बेडकरवादियों के लिए यह अत्यन्त ही शुभ समय है क्योंकि जिन विषयों के लिए बाबा साहेब ने अथक प्रयास किए कि राजनीतिक पार्टियों के सभी पुरौधा एक मंच पर आकर सामन्तवाद, जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता, क्षेत्रवाद इत्यादि के बारे में बात करें, वह समय अब आ गया है, बाबा साहेब के जीवनकाल के बाद ही सही, कठोर हृदयी हिन्दू सभ्यता के रूढ़िवादी दत्तक पुत्र इन विषयों पर अब बात तो कर ही रहे हैं।
कॉन्ग्रेस के कभी समाप्त नहीं होने जैसे शासनकाल और उसके उत्तरोत्तर सरकारों के शासनकालों में मूलनिवासियों के वोट हड़पते रहने के बावजूद कभी भी ‘जाति’ को या ‘जाति आधारित आरक्षण’ को चर्चा का विषय नहीं बनाया उल्टा ‘जाति’ को और कठोर कवच में जकड़ने का काम ही किया। ‘आरक्षण’ पर ऐसा मौन साधा कि ‘आरक्षण’ के विरोधी गुटों को इतना असहज कर दिया कि वे किसी भी स्पष्टीकरण के अभाव में इसे बिना इसकी सत्यता और औचित्त्य जाने इसके समाप्त करने पर आमादा हो गए। संवादरहित परिस्थितियाँ न केवल संशय उत्पन्न करती हैं बल्कि अविश्वास को भी जन्म देती हैं। ऐसा नहीं है कि अम्बेडकर के समानान्तर नेता जातिवाद व सामन्तवाद से ग्रसित नहीं थे लेकिन संविधान सभा की बैठकों में चर्चा के उपरान्त उन्हें जब आरक्षण का औचित्त्य बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा समझाया गया तो उसका परिणाम हम सब ‘‘प्रतिनिधित्त्व के प्रावधान’’ के रूप में देख ही रहे हैं। जब स्वतंत्रता के ठीक उपरान्त की विकट परिस्थितियों में बाबा साहब हिन्दू समाज के लिए अनभिज्ञ से विषय ‘‘सामाजिक तुल्यता’’, ‘‘राजकीय क्षेत्र में प्रतिनिधित्त्व’’ इत्यादि को लागू करवाने में सफल हो गए तो आज तो मूलनिवासियों में भी ज्ञानी, प्रभावी और शिक्षित वर्ग की कमी नहीं है जो इन विषयों पर चर्चा कर अनारक्षित सवर्ण वर्ग को प्रभावी जवाब दे सकें।
यह समय के बदलाव का ही नतीजा है कि देश के प्रधानमंत्री कहते हैं कि ‘‘मैं डॉ. भीमराव अम्बेडकर का भक्त हूँ’’ और ‘‘अजा./अजजा. का आरक्षण अब स्वयं बाबा साहेब अम्बेडकर भी आकर समाप्त नहीं कर सकते!’’ इसी प्रकार रोहित वैमूला और कन्हैया कुमार के मामलों ने भी जातिवाद के विमर्श को बढ़ावा दिया है। वाट्सएप जैसे सोशियल मीडिया के संचार माध्यमों पर भी मूलनिवासियों के अनगिनत समूह आपस में चर्चा कर आपसी जातिवाद को मिटा कर एकता की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं। कुछ विषय जैसे ‘‘न्यायपालिका में मूलनिवासियों का प्रतिनिधित्त्व’’, ‘‘हिन्दू धर्म की सभी संस्थाओं के प्रमुख पदों पर केवल सवर्ण वर्ग का कब्जा’’, ‘‘उच्च शिक्षा के संस्थानों में उच्च पदों पर मूलविसियों की रिक्तियों की बढ़ती संख्या’’ इत्यादि ऐसे मुद्दे हैं जिन पर अब खुलकर बात सम्भव हो पा रही है। आप किसी भी विषय को उठा लीजिए और उसे सोशियल मीडिया पर पोस्ट कर दीजिए, यदि यह आगे बढ़ते हुए जिम्मेदार मीडिया या जिम्मेदार नेता या अधिकारी तक पहुँचती है तो उन पर कार्यवाही होनी ही है। यही आज की स्वस्थ चर्चा का मुख्य कारण और कारक है। चारों ओर से निरन्तर आती हुई आवाजों को नज़रअन्दाज़ करना कठिन ही नहीं असम्भव है। और सम्बन्धित को कार्यवाही करनी ही है।
हमारे पास दो विकल्प हैं, या तो हम सूचना तन्त्र और संचार के साधनों का भरपूर लाभ उठा कर अपने आप को अपडेट रख कर, वर्तमान में जिएँ और अपनी बातें मनवा कर बाबा साहेब अम्बेडकर के सपनों को व्यावहारिक तौर पर सच करने का प्रयास करें या फिर भूतकाल में जिएँ, ब्राह्मणों को गलियाते रहें और ये आशा करें कि वे आपके डर से जहाँ से आए थे वहीं वापिस भाग जाएँगें तो हो सकता है दूसरा रास्ता भी सही हो परन्तु हमारे पास सदियों का समय नहीं है इन्तज़ार करने के लिए। अतः प्रथम रास्ता अपनाएँ और बाबा साहब को मुस्कराने के और मौके दें।


-सीताराम स्वरूप


 


फोटों गुगल से साभार