आरक्षित वर्ग की उच्चशिक्षा में दुर्गति के हम कितने जिम्मेदार...?


यद्यपि आज आरक्षित वर्ग के नुमाइन्दे लगातार प्रतियोगी परीक्षाओं में अपना परचम लहरा रहे हैं जैसे आई आई टी प्रवेश परीक्षा में कल्पित वीरवाल का 100 प्रतिशत अंक लाना, टीना डाबी और कनिष्क वर्मा का आई.ए.एस में टॉप करना इत्यादि, लेकिन इनका और गहराई से विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि ये सब निजी महाविद्यालयों से पढे, अच्छे सम्भ्रान्त परिवारों के विद्यार्थी रहे हैं। परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले, राजकीय विद्यालयों में पढ़ने वाले आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों के हालात इतने अनुकूल नहीं होते हैं। उनके संघर्ष ना केवल पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक होते हैं बल्कि संस्थागत भी होते हैं। इन विद्यार्थियों के हालातों को प्रतिकूल बनाने में अनारक्षित वर्ग के लोग तो अपना योगदान देते ही हैं, आरक्षित वर्ग के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के शिक्षकगण भी कुछ कमी नहीं छोड़ते। आइए, इन परिस्थ्तियों की कुछ बानगी यहाँ देखते हैं और चर्चा करते हैं कि हमारे अपने ही हमारी अगली पीढ़ियों को बर्बाद करने में कितनी भूमिका निभा रहे हैं।
आज सभी सरकारी महाविद्यालयों में प्रथम वर्ष  की द्वितीय सूची के छात्रों के प्रवेश की अंतिम तिथि है। शाम के चार बजे हैं, सभी प्रथम वर्ष प्रवेश समिति के सदस्य कक्ष में पाँच बजने का इन्तजा़र कर रहे हैं ताकि प्रवेश की स्थिति का पता चल सके। इतने में एक महानुभाव कक्ष में प्रवेश करते हैं। वे प्रवेश समिति के संयोजक महोदय से पूछते हैं कि महाविद्यालय में कितने प्रवेश हुए तथा सामान्य, अनु. जाति, अनु. जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के कितने-कितने छात्रों को प्रवेश मिला है? ये महाशय एक जाने-माने अख़बार के अधकचरे पत्रकार हैं जो कि वर्षों से एक ही जगह टिके वरिष्ठ निखट्टू शिक्षकों के मुँहलगे हैं। ये अपनी ‘इमेज’ चमकाने के लिए ‘सैन्सेसनल’ ख़बरें छापने के लिए ही जाने जाते हैं। पत्रकार को संयोजक महोदय बड़ी संजीदगी से बताते हैं कि महाविद्यालय में 80 प्रतिशत प्रवेश हो गए हैं तथा 75 प्रतिशत सीटों पर आरक्षित वर्ग के व 5 प्रतिशत सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों को प्रवेश मिला है। अगले दिन अख़बार में बड़े-बड़े अक्षरों में छपता है कि ‘‘महाविद्यालय की 75 प्रतिशत सीटों पर आरक्षित वर्ग का कब्जा’’! नीचे और थोड़े छोटे प्रिन्ट में लिखा था- ‘‘केवल 5 प्रतिशत सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों को ही प्रवेश मिला है। अब सामान्य वर्ग के विद्यार्थी कहाँ जाएँ?’’ 
इस खबर को पढ़ कर पूरे शहर-गाँव में यही चर्चा है कि ‘‘देखो, अब सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों का भविष्य तो अन्धकार में है। सभी सीटों पर तो आरक्षित वर्ग ने कब्जा जमा लिया है।’’ लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि महाविद्यालय में सामान्य वर्ग के कितने विद्यार्थियों ने प्रवेश फॉर्म जमा कराए तथा इन विद्यार्थियों ने 12 वीं कक्षा में कितने अंक प्राप्त किए? वास्तविकता यह है कि महाविद्यालय में उपलब्ध लगभग 4500 सीटों के विरुद्ध, सामान्य वर्ग के केवल 200 फॉर्म ही जमा हुए! और वे भी बहुत ही कम प्रतिशत अंक वालों के! क्योंकि सामान्य वर्ग के सभी अच्छे अंकों वाले विद्यार्थी तो रोजगारोन्मुख पाठ्यक्रमों जैसे- मेडिकल, इंजिनियरिंग, कम्प्यूटर कॉर्स, बिजनैस-मैनेजमैन्ट, होटल-प्रबन्धन, ग्राफिक-डिजा़इनिंग, फार्मेसी इत्यादि में प्रवेश लेने चले जाते हैं, वे कला और वाणिज्य का मोह क्यों करेंगे। इतना ही नहीं, यदि वे इन संकायों में प्रवेश लेना भी चाहेंगे तो वे महानगरों के उच्चस्तरीय निजी या स्वायतशाषी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में जाएँगें। वे साधारण सरकारी महाविद्यालय का रुख क्यों करेंगे? लेकिन आम आदमी इस बात पर ध्यान नहीं देता तथा पूर्वाग्रह से ग्रसित सम्भ्रान्त सामान्य वर्ग वही सुनता है जो उसे पसन्द है। 
आजकल सरकारी महाविद्यालयों में भी सामान्य वर्ग व आरक्षित वर्ग के प्रतिशत अंकों में 1 या 2 प्रतिशत का ही अन्तर होता है। यह न केवल सामान्य जागरूकता में आम वृद्धि के कारण हुआ है बल्कि इसमें माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के नए मार्किंग पैटर्न का भी बड़ा हाथ है जिसके कारण आम प्रतिशत ही बहुत ऊँचा हो गया है। सरकारी महाविद्यालयों में भी 85 प्रतिशत तक अंक प्राप्त करने वाले प्रवेष ले रहे हैं और सुखद आश्चर्य है कि ये अधिकांश आरक्षित वर्ग के होते हैं। चूँकि सरकारी महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले अधिकांश विद्यार्थी आरक्षित वर्ग के होते हैं अतः सामान्य वर्ग के शिक्षकों ने भी एक सोचा-समझा पूर्वाग्रह बना लिया है। वे हमेशा पढ़ाने से कतराते हैं और यह कहते पाए जाते हैं कि ‘‘आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों में पढ़ने की रुचि नहीं है और ये केवल छात्रवृत्ति के लिए प्रवेश लेते हैं!’’ यह सोच बिल्कुल गलत है क्योंकि सरकारी महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले ये विद्यार्थी दूर-दराज गाँव से आए हुए गरीब घरों से होते हैं। इनके ऊपर पढ़ाई जा़री रखने के साथ-साथ अपने घर को चलाने के लिए माता-पिता की मदद करने की जिम्मेदारी भी होती है। ये या तो कहीं न कहीं मज़दूरी करते हैं या फिर खेती-बाड़ी में हाथ बँटाते हैं। पढ़ाई इनकी प्राथमिकता होते हुए भी पेट भरना भी इनकी मज़बूरी है। साइकिल, बस या जीप की दो-तीन घण्टे की थकाऊ यात्रा करने के बाद जब ये विद्यार्थी महाविद्यालय में पहुँचते हैं तो इनके साथ सामान्य वर्ग से भरा-पूरा महाविद्यालय प्रशासन भी नाटकीय ढँग से पेश आता है। इन्हें अपना कक्षा-कक्ष व सैक्शन पता करने में ही पसीने आ जाते हैं। यदि सैक्शन मिल भी गया तो शिक्षक महोदय को कक्षा-कक्ष तक लाना लगभग असम्भव होता है क्योंकि शिक्षक महोदय/महोदया ये कहकर टालते नज़र आएँगें कि ‘‘हम अकेले को क्यों पढ़ाएँ, दस-बीस विद्यार्थी और लेकर आओ।’’ अब ये कहाँ तक छात्र-छात्राओं की उगाही करते घूमेंगें? मान लीजिए इन्होंने प्रयास करके दस-पाँच विद्यार्थी जुटा भी लिए, कुछ दिन कक्षाएँ लग भी गई तो चुनावों का नाटक प्रारम्भ हो जाता है और नेतागीरी माँझने वाले विद्यार्थीगण कक्षाओं को बन्द कराने के लिए आन्दोलनों का बहाना ढूँढ लेते हैं। पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी ऐसे माहौल में कैसे पढ़ाई करेंगे? 
विडम्बना व दुःखद तथ्य यह है कि इन विद्यार्थियों को सामान्य वर्ग के शिक्षक तो घृणा के सोचे-समझे नज़रिए के कारण नहीं पढ़ाते परन्तु आरक्षित वर्ग के शिक्षकगण भी इन्हें पढ़ाने से कतराते हैं। आरक्षित वर्ग के शिक्षकगण का यह रवैया समझ से परे है। हमारे ही विद्यार्थियों को हम ही नहीं पढ़ाएँगें तो उनका क्या ख़ाक़ भविष्य बनेगा? ये विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षाओं में कैसे सफल हो पाएँगें? आरक्षित वर्ग के शिक्षकगण की सामान्य वर्ग के शिक्षकों के साथ मिलकर यह निखट्टूगिरी असहनीय है। क्या बाबा साहब अम्बेडकर ने इसी लिए आरक्षण का प्रावधान किया था कि अपनी नौकरी लगने के बाद आप भी अपनी जड़ें भूलकर सामान्य वर्ग के आतताइयों के साथ मिलकर उनके जैसे बनने के नाटक के चक्कर में अपने ही वर्ग को नज़रअन्दाज कर निखट्टू बन जाना? ऐसे शिक्षकों को समझना चाहिए कि अपना कार्य पूजा समझकर अधिक से अधिक करने पर उसमें विशेषज्ञता विकसित होती है और  विद्यार्थियों में सम्मान और लोकप्रियता भी बढ़ती है। 
आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों को बर्बाद करने का काम गाँव के सरकारी विद्यालयों के शिक्षक ही आरम्भ कर देते हैं। रही-सही कसर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को अंक भेजने पर पूरी कर दी जाती है। चाहे शिक्षक पढ़ाए या न पढ़ाए, अपना रिजल्ट अच्छा दिखाने के लिए अंक तो 99 से 100 प्रतिशत तक भेज दिए जाते हैं ताकि उन पर कोई आँच न आए। बाकी कोर-कसर महाविद्यालय में पूरी होती है जहाँ शिक्षकगण यह कहते पाए जाते हैं कि ‘‘ये तो आरक्षित वर्ग के हैं, इन्हें क्या आता-जाता है, इनका आई. क्यू. देखो कितना निम्न स्तर का है।’’ 
12वीं कक्षा में 80-85 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले ये विद्यार्थी महाविद्यालय से बमुश्किल 40-50 प्रतिशत अंक लेकर उत्तीर्ण होते हैं। अब ये किसी लायक नही रहते! न तो इनसे मज़दूरी होती है और न ही इनसे कोई प्रतियोगी परीक्षा पास होती है। गरीब माता-पिता पर बोझ ही बने रहते हैं। अब ये कामचोरी के 100 बहाने भी सीख चुके होते हैं जैसे ‘‘डिस्टर्ब मत करो प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा हूँ।’’ या मुफ्त की नेतागीरी सीख जाते हैं और ‘‘बेरोजगार फौज’’ का ‘‘अवान्छित’’ हिस्सा बन जाते हैं। यदि हम आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों का इसी प्रकार बंटा-ढार करते रहे तो हम कभी भी वो उन्नति नहीं कर सकते जिसके ख्वाब कभी संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर ने देखे थे तथा आज स्वतंत्रता प्राप्ति के 72 वर्ष  बाद जो स्थिति है वही 100 वर्ष बाद भी रहेगी। यह आरक्षित वर्ग के शिक्षकों के लिए बड़ी शर्मनाक बात होगी।                        
 



  1. -फोटो गुगल से साभार