बाबा साहब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर की प्रतिभाओं और उनके अधिकतर प्रयासों और कार्यों के बारे में भारत के आमजन को अधिक जानकारी नहीं है। जब तक हम उनके सम्पूर्ण वांग्मय को नहीं पढ़ते हैं, हमें वास्तविक अम्बेडकर को जान पाना अति कठिन है। जो तथ्य सर्वाधिक लोकप्रिय हैं वो हैं कि उन्होंने संविधान की संरचना की और यदि सवर्ण समाज, विशेषतः ब्राह्मण वर्ग की बात करें तो उनकी एक ही धुन है कि उन्होंने संविधान के माध्यम से आरक्षण का प्रावधान किया! लेकिन ये तथ्य अधिकतर भारतीय नहीं जानते कि इससे भी कहीं अधिक बाबा साहब ‘नागरिक अधिकारों’ के पुरोधा, प्रशिक्षित अर्थशास्त्री, वित्त विशेषज्ञ तथा कुषल राजनीतिक रणनीतिकार थे। तभी तो उन्होंने संविधान में ना केवल सभी के लिए न्याय और समानता के अधिकारों के प्रावधान किए बल्कि हर उस पहलू को छुआ जिसकी एक राष्ट्र के सफल संचालन में आवश्यकता हो। वरना यह देश पुरातनकालीन धर्म-ग्रन्थों के नियमों-उपनियमों का ही अनुसरण कर रहा होता। बाबा साहब की दूरदर्शिता, नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों की समझ, उनकी अर्थ-व्यवस्था और वित्तीय प्रबन्धन की कुशलता, उनकी वाक्पटुता और वाद-विवाद में आत्मविश्वास और अपने मूल समाज जिससे वे आते थे के उद्धार के प्रति सदैव समर्पण का भाव ही उन्हें महान बनाता है और विश्व का सर्वाधिक व्यापक और विस्तृत संविधान रचने में नींव का कार्य करता है। परन्तु दुर्भाग्यवश, उनकी संविधान संरचना से इतर जितनी भी विधाएँ हैं उनको उद्घाटित करने में आधुनिक इतिहासकारों ने हमेशा ही ना केवल कंजूसी दिखाई है बल्कि दुर्भावना का भी परिचय दिया है।
जिन्होंने भी अम्बेडकर को पढ़ा है उन्हें भली-भाँति ज्ञान है कि ‘‘भारतीय संविधान’’ की रचना से पहले तो बाबा साहब समाजोत्त्थान के इतने कार्य कर चुके थे कि उनका इतिहास लिखने भर में ‘संविधान’ जैसी तो कई कृतियों की रचना हो जाए! बस ये जानना आवश्यक है कि अम्बेडकर, गाँधी की तरह हर समय अपनी चमक बिखेरने के लिए आतुर नहीं थे और ना उनकी सामाजिक स्थिति उन्हें गाँधी की दकियानूसी मानसिकता के सदृष्य लाकर खड़ा करती है। यही कारण रहा कि बाबा साहब 1970 के दशक से पहले भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक अल्पज्ञात व्यक्ति थे। उनके कई लेखन तो कभी भी प्रकाशित ही नहीं हो पाए थे, जबकि गाँधी ने कुछ खास लिखा भी नहीं और दूसरों ने उनके बारे में लिख-लिख कर प्रसिद्धि दिलवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी!
धन्यवाद के पात्र वे अनुसूचित समाज के प्रकाशक और कार्यकर्ता हैं जिन्होंने 70 के दशक के बाद अंबेडकर को इतिहास की राख के ढेर से निकाला और प्रकाशित किया। इससे पहले बाबा साहब का लेखन धनाभाव में प्रकाशन के लिए तरसता हुआ पांडुलिपियों में ही बन्द था तथा जनता के लिए उपलब्ध नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि अनुसूचित समाज के अलावा कोई भी व्यक्ति इसे पांडुलिपियों से निकाल कर छपवाने का उत्सुक भी नहीं था। इस दिषा में एस. आनन्द द्वारा स्थापित दिल्ली के ‘‘नवयान प्रकाषन’’ द्वारा सराहनीय कार्य किया गया है और अभी भी कर रहा है।
‘‘नवयान प्रकाशन’’ ने ही 2017 में प्रसिद्ध लेखिका और समाज सेविका, अरुन्धति रॉय के साथ मिलकर 1936 में बाबा साहब द्वारा ‘‘जाति तोड़क मण्डल’’ (ब्राह्मणों व अन्य सवर्ण बुद्धिजीवियों द्वारा बनाया गया एक संगठन) के वार्षिक सम्मेलन में ‘‘मुख्य अतिथि’’ के रूप में आमन्त्रित किए जाने पर देने के लिए लिखे गए भाषण (जिसे ‘‘जाति तोड़क मण्डल’’ ने ‘‘असहनीय’’ बताते हुए अस्वीकार कर दिया था!) को भी ‘‘द डॉक्टर एण्ड सैंट और जाति का विनाश’’ के नाम से प्रकाशित किया है।
‘‘जाति का विनाश’’ सवर्णों के विरुद्ध एक ऐसा दस्तावेज है जो बाबा साहब की पीड़ा को तथा सवर्णों के दोगलेपन, पाखण्ड और व्यर्थ के दम्भ को मूर्त्तरूप देता है। ‘‘जाति तोड़क मण्डल’’ अपने आपको समतावादी संगठन के रूप में अंग्रेजों के सामने प्रदर्शित करने के लिए आतुर था ताकि अंग्रेजों को दिखा सकें कि ‘‘समस्त हिन्दू, चाहे कोई जाति और वर्ग के हों’’ एक हैं। उनके इसी छलावे को उद्घाटित करने के लिए तथा सवर्णों को जातिवाद को समाप्त कर हिन्दूओं को वास्तव में एकता के सूत्र में बाँधने के लिए कुछ जमीनी प्रयास करने के लिए उकसाने के लिए बाबा साहब द्वारा यह भाषण लिखा गया था। लेकिन जैसा हमेशा होता आया है, ब्राह्मणों व अन्य प्रभावशाली सवर्णों ने जातिवाद के कुछ कटु प्रश्नों का सामना करने के बजाय उनसे कन्नी काटना ही उचित समझा और इस सम्मेलन को ही रद्द कर दिया ताकि बाबा साहब को मुख्य अतिथि बनाना भी ना पड़े और इसका कोई कारण भी ना बताना पड़े! बाबा साहब की जातिवाद के प्रति घृणा और समानता के प्रति उनके विश्वास का ही प्रभाव था कि उन्होंने भारतीय संविधान में लोकतंत्र, समानता और धर्म की स्वतंत्रता के अभिन्न सिद्धांतों को सम्मिलित किया और जाति-आधारित भेदभाव को रोकते हुए अस्पृश्यता जैसी कुप्रथा को गैरकानूनी बना कर इसको समूल नष्ट करने के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
बाबा साहब के परिनिर्वाण के बाद उनकी बौद्धिक और राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाला अनुसूचित समाज का कोई भी योग्य उत्तराधिकारी नहीं रहा। अनुसूचित समाज के एकाध नेता हुए भी लेकिन वे या तो उनके प्रतिद्वन्दी थे या उनसे कमतर होने के कारण उनसे वृथा ही घृणा करने वाले थे। कुछ नेता कॉन्ग्रेस के चाटूकार थे और पद की लोलुपता के कारण समाजोत्त्थान से कोई सरोकार नहीं रखने वाले थे।
बाबा साहब की विरासत के इस शून्यकाल का सर्वाधिक लाभ मिला वामपंथियों को, जिन्होंने अपने आपको अम्बेडकर के वैचारिक उत्तराधिकारी होने का दावा करने का कोई अवसर नहीं जाने दिया। परन्तु हम सभी जानते हैं कि वामपंथी दलों के उच्च स्तरीय पदों पर भी हमेशा ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी नेतृत्त्व ही काबिज रहा है (जेटली, येचुरी, करात, चटर्जी इत्यादि सब ब्राह्मण!) अतः बाबा साहब के इतिहास या उनकी विरासत से उनको बहुत अधिक सरोकार भी नहीं रहा यही कारण है कि साम्यवाद का विचार ब्राह्मणों ने भारत में कभी सफल नहीं होने दिया। वामपंथियों के लिए अम्बेडकर साहब एक ऐसी पहेली हो गए जो उनको समझ नहीं आ रहा था कि इसे हल करें या उलझा ही रहने दें। आखिरकार उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और पहेली को उलझा ही रहने दिया। यही रहा कि बाबा साहब से सम्बन्धित इतिहास और उनकी वैचारिक विरासत 70 के दशक तक इतिहास भी नहीं बन पाई थी!
अब इतिहास से वर्तमान में आते हैं। आज जब बाबा साहब का इतिहास, उनके कार्य, उनका भारत के स्थायित्त्व में योगदान, प्रजातन्त्र के इकलौते रखवाले वाला स्वरूप ना केवल भारत बल्कि समस्त विश्व के सामने उजागर हुआ है, तो वर्तमान शासकों-प्रशासकों को उनके वजूद को स्वीकारने के अलावा कोई चारा दिखाई नहीं दे रहा है। बाबा साहब मानवाधिकारों के और दबी-कुचली-आहत आवाज को सम्बल देने वाले एक छत्र पुरोधा बनकर उभरें हैं और शहरों की अट्टालिकाओं से गाँवों की झौंपड़ियों तक एक सर्वव्यापी नायक बन गए हैं।
हाल के दिनों में, उनकी छवि हिंदू राष्ट्रवादी प्रतिवाद में भी दिखाई दी। वर्तमान प्रधानमंत्री अक्सर बाबा साहब अंबेडकर का जिक्र अपने भाषणों में करने लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 में उन्हें ‘‘पिता-तुल्य सम्मानीय’’ बताते हुए कहा- ‘‘बाबा साहेब अंबेडकर को हमारी सरकार ने जिस तरह से सम्मान दिया है, उतना शायद ही किसी पूर्ववर्ती सरकार ने दिया हो। उन्हें राजनीति में घसीटने के बजाय, हम सभी को उनके दिखाए मार्ग पर चलने के प्रयत्न करने चाहिए।’’ इन बातों में लगती तो काफी ईमानदारी है। हालाँकि, ये बात अलग है कि वर्तमान हिन्दू-राष्ट्रवादी सरकार जो उनका नाम और उनकी विरासत का जिक्र आज करते हुए नहीं थकती हैं, उसने बाबा साहब द्वारा देखे गए जातिविहीन राष्ट्र के सपने को पूरा करने की दिषा में कभी कोई कदम नहीं उठाया।
इतिहासकारों और जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं के अनुसार, भारत की हिंदू राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी और उसके धर्मनिरपेक्ष वामपंथ के बीच अंबेडकर की विरासत पर लड़ाई अपेक्षाकृत नई है। ‘लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ में अंतर्राष्ट्रीय और तुलनात्मक राजनीति के प्रोफेसर सुमंत्र बोस कहते हैं- ‘‘डॉ. अम्बेडकर की भाजपा द्वारा खोज हाल ही में हुई है वो भी 2014 में मोदी को चुनाव में लाने के बाद। उस जीत के बाद, मोदी और उनके मुख्य रणनीतिकार अमित शाह ने उन गैर-उच्च जाति के हिंदुओं को लुभाने पर ध्यान केंद्रित किया, जो परंपरागत रूप से बड़ी संख्या में भाजपा के समर्थक नहीं थे। इरादा साफ था- अपने समर्थन के आधार का विस्तार करना।’’ बोस आगे कहते हैं कि- ‘‘भाजपा ने जातिगत विभाजनों में अखिल हिंदू वोट बैंक की कल्पना को साकार करने के लिए पिछड़ों के सबसे बड़े ‘‘भगवान’’ (डॉ. अम्बेडकर) की स्मृति को अपने पक्ष में भुनाने का भरपूर प्रयास किया है।’’
भाजपा ने अपने 2014 के घोषणापत्र में भारतीय समाज में छुआछूत की शेष कुरीतियों को मिटाने और अनुसूचित समाज के लोगों को गरीबी से उबारने का वादा किया था। लेकिन ‘भारतीय दलित अध्ययन संस्थान’ के पूर्व अध्यक्ष श्री सुखदेव थोराट के एक अध्ययन के अनुसार, भाजपा सरकार ने उल्टा अनुसूचित समाज के लिए, अच्छे कार्यक्रमों के लिए आवंटित धन ही कम कर दिया है।’’ थोराट ने अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ को एक साक्षात्कार में बताया कि- ‘‘उन्होंने (भाजपा व सम्बन्धित नेताओं ने) कभी जाति उन्मूलन के मुद्दे नहीं उठाए। यह प्रधानमंत्री व उनकी पार्टी द्वारा उपयोग में लाई जा रही एक सुनियोजित रणनीति के तहत किया जा रहा है। वे किसी व्यक्ति को (या बाबा साहब को) उसके विचारों और विचारधारा से इतना बड़ा बना देंगे कि लोग उस व्यक्ति को तो खूब याद रखें लेकिन उसकी विचारधारा को विस्मृत कर मार देंगे।’’
हालाँकि, हिंदू राष्ट्रवादियों का तर्क है कि वे धर्मनिरपेक्ष दलों (उनका तात्पर्य कॉन्ग्रेस व उनके घटक दलों से और वामपंथी दलों से है!) की तुलना में बाबा साहब अंबेडकर की मान्यताओं के अधिक करीब हैं। उदाहरणतः - भाजपा ने अगस्त, 2019 में संविधान की धारा 370 को रद्द कर दिया। यह धारा जम्मू-कश्मीर को अर्ध-स्वायत्तता की गारंटी देती है। इस मामले में भी भाजपा का कहना है कि डॉ. अंबेडकर ने धारा 370 का विरोध किया, हालांकि, इतिहासकारों ने उस दावे को सिरे से खारिज किया है।
भाजपा यह भी कहती है कि डॉ. अम्बेडकर भारत में ‘‘समान नागरिक संहिता’’ के प्रस्तावक थे, जो भाजपा के प्रमुख नीतिगत लक्ष्यों में से एक था। जबकि हकीकत यह है कि डॉ. अम्बेडकर का भारत में धर्मनिरपेक्षता की स्थापना के सजग प्रहरी थे। वे जो भी कानून बनाना चाहते थे उसे पहले धर्मनिरपेक्षता के तराजू में तौलते और समानता और बन्धुत्व के ताने-बाने को कोई नुकसान ना हो, इस बात का ध्यान रखते। उन्हें ‘‘समान नागरिक संहिता’’ के बारे में सोचते समय भी यह आभास था कि देश में विभिन्न धार्मिक समुदाय हैं और वे अपने अलग-अलग ‘‘व्यक्तिगत कानूनों’’ द्वारा संचालित होते हैं, लेकिन उन सभी में एक समानता है कि वे सब महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं और तलाक और विरासत में हिस्से जैसे मामलों में महिला की दुर्गति ही करते हैं। बाबा साहब ने अपने तरीके से लिख कर ‘‘समान नागरिक संहिता’’ की माँग करते हुए संविधान में एक खंड डाला। लेकिन आजादी के बाद जो माहौल बना उसके अनुसार नेहरू ने ‘‘समान नागरिक संहिता’’ से किनारा कर लिया और मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को आश्वस्त करने के लिए उनके व्यक्तिगत कानूनों को बनाए रखने की अनुमति देने का फैसला किया। इसलिए बाबा साहब ने बजाय ‘‘समान नागरिक संहिता’’ में और अधिक उलझने के, हिंदू पर्सनल कानूनों को और अधिक प्रगतिशील बनाने के लिए उनके ही सुधारों पर अपना ध्यान केंद्रित करना उचित समझा। उनके सुधारों ने अंतर्जातीय विवाह को वैध बनाया और महिलाओं को तलाक माँगने का अधिकार दिया जो कि अब तक केवल हिन्दू पुरुष का एकाधिकार था। इन सुधारों को लागू करवाने में बाबा साहब के मुख्य प्रतिद्वंद्वी वे ही हिंदू राष्ट्रवादी थे, जैसे हिन्दू महासभा, आरएसएस, जन-संघ (वर्तमान भाजपा) इत्यादि जो आज ये सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि डॉ. अम्बेडकर इस विषय में उनके जैसे ही सोचते थे!
आज, भाजपा का ‘‘समान नागरिक संहिता’’ के विषय में डॉ. अंबेडकर को उनके सहयोगी बताने पर ‘‘नवयान प्रकाषन’’ के संस्थापक एस. आनंद कहते हैं कि- ‘‘यह अंबेडकर की विरासत को भी हिन्दुवादी विचारधारा में रंगने का एक प्रयास मात्र है।’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘अगर भारत में समानता और एकरूपता है तो भाजपा पहले हिंदुओं में समानता और एकरूपता क्यों स्थापित नहीं करती?’’ श्री आनंद कहते हैं- ‘‘डॉ. अंबेडकर ने कभी भी ‘‘समान नागरिक संहिता’’ की प्राथमिकता के रूप में बात नहीं की। वे इसे अपने तरीके से जातिविहीन और लिंग-भेद विहीन बनाकर लागू करने के पक्षधर थे।’’
भाजपा के डॉ. अंबेडकर की विरासत को अपनाने का एक और कारण यह है कि हिंदू राष्ट्रवादियों के राजनीतिक पूर्वजों ने एडॉल्फ हिटलर और बेनिटो मुसोलिनी जैसे यूरोपीय फासीवादी नेताओं को अपना आदर्ष बताकर पूर्व में पेश किया हुआ है। इन यूरोपीय नेताओं को आज के संदर्भ में ना तो देश में ना विदेशों में आदर्श माना जा सकता है। तो उनके पास गाँधी और अम्बेडकर के अलावा आदर्श बनाने के लिए भारतीय इतिहास में कोई अन्य विकल्प नहीं हैं। चूँकि गाँधी से इनका पहले से ही 36 का आँकड़ा है क्योंकि इनके जिन पूर्वजों ने गाँधी की हत्या की थी उनका तो मंदिर बनाने तक की बात इनके नेता कर चुके हैं। अब अन्तिम विकल्प हैं डॉ. अम्बेडकर! उन्हें और उनकी विरासत को अपना बताकर और यह सिद्ध करके कि चूँकि बाबा साहब का कॉन्ग्रेस के साथ समीकरण कभी सही नहीं रहा अतः वर्तमान परिवेश में वे हमारे आदर्श हुए क्योंकि बाबा साहब दोनों ही- कॉन्ग्रेस भी और गाँधी से भी, इतर राय रखते थे। इस इतिहास को देखते हुए, विशेषज्ञों का भी कहना है कि अम्बेडकर भाजपा के लिए एक उपयोगी वैकल्पिक नायक हैं। श्री एस. आनन्द कहते हैं कि- ‘‘आज हर कोई बाबा साहब अम्बेडकर का एक टुकड़ा चाहता है। अब मोदी जी यह भी नहीं कह सकते कि उनके राजनीतिक पूर्वज हिटलर और मुसोलिनी के प्रशंसक थे क्योंकि ऐसा वे राजनीतिक और राजनयिक मजबूरियों के कारण कर नहीं सकते अतः अम्बेडकर साहब को बिना उनके आदर्शों के भी अपना बनाना उन्हें उपयुक्त लगा।’’
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि जैसे आज अम्बेडकर का नाम राष्ट्रवादी हिन्दूवादी पार्टी भुनाना चाहती है उसी प्रकार वामपंथी झुकाव वाली कांग्रेस पार्टी ने भी तो किया था! बाबा साहब ये समझते भी थे बावजूद इसके, उन्होंने आजादी के बाद की कांग्रेस सरकार के लिए संविधान तैयार करने में अपनी भूमिका निभाई थी। श्री आनंद कहते हैं कि- ‘‘उन्होंने गाँधी के साथ अपनी अनबन को भुलाते हुए, कॉन्ग्रेस के साथ काम करना चुना क्योंकि बाबा साहब भारतीय समाज के प्रति उदार रहना चाहते थे और अपने ज्ञान और समानता के प्रति दृढ़-प्रतिज्ञता को संविधान में उतारना चाहते थे। उन्हें पता था कि यदि संविधान का मसौदा किसी और ने तैयार किया और आमजन के साथ न्याय नहीं हुआ तो वे अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाएँगें। उनके द्वारा भारतीय संविधान की प्रारूप समिति की अध्यक्षता करने का निर्णय लिया जाना एक महान कार्य था।’’ श्री सुमन्त्र बोस भी इससे सहमत हैं। वे कहते हैं- ‘‘भाजपा सरकार के विरोधियों द्वारा भी इस अम्बेडकर-पूजा का विरोध छिछला ही है क्योंकि अम्बेडकर साहब के व्यक्तित्व और राजनीतिक जीवन की जटिलता के बारे में जानकारी होना इतना आसान नहीं है और उनके आदर्शों का अक्षरशः पालन तो वर्तमान राजनीतिज्ञों के लिए लगभग असम्भव है।’’
कई बार राष्ट्रवादी हिन्दूवादी पार्टी यह भी सिद्ध करना चाहती है कि अम्बेडकर साहब स्वयं संविधान के अंतिम संस्करण से नाखुश थे, और भारत के प्रथम प्रधान मंत्री, श्री नेहरू के साथ टकराव के बाद उन्होंने मंत्रीमण्डल से 1951 में इस्तीफा भी दे दिया था। इस बारे में श्री आनंद ने कहा- ‘‘वे संविधान से नाखुश थे, क्योंकि उनको लगा कि संविधान का क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होने वाला है और ये लोग इसे खत्म कर देंगे।’’ वर्तमान विवाद है भाजपा द्वारा भारतीय संविधान को कथित रूप से कमजोर बताना! इस पर भी श्री आनंद कहते हैं कि- ‘‘इस विषय में तो अम्बेडकर साहब स्वयं ही कहते थे कि ‘संविधान उतना ही अच्छा है जितने अच्छे इसको लागू करने वाले लोग हैं।’ क्योंकि कोई भी दस्तावेज त्रुटिरहित नहीं है।’’
अन्त में यही कहना उचित होगा कि यद्यपि सभी राजनीतिक दल आज अम्बेडकर साहब की वैचारिक विरासत का दावा करने आ जाते हैं लेकिन एस. आनन्द इस विषय में भी दृढ़ता से कहते हैं कि- ‘‘अम्बेडकर साहब की विरासत का दावा करने का अधिकार हर किसी को है और किसी को भी नहीं है। पहले तर्क में तो उनकी विरासत का दावा करने का अधिकार सभी को इसलिए है क्योंकि अम्बेडकर साहब सभी के हैं और उनके द्वारा लिखित संविधान ने सबको समान अधिकार देकर सबको तुल्यता प्रदान की है! और दूसरे तर्क में उनकी विरासत का दावा करने का अधिकार किसी को भी इसलिए नहीं हैं क्योंकि यदि आप अम्बेडकर साहब को, उनकी विचारधारा को, उनके बताए हुए रास्तों को मन, कर्म और वाणी से पालन नहीं कर सकते तो आपको उनकी विरासत को अपना बताने का कोई अधिकार नहीं है फिर चाहे आप किसी भी जाति, धर्म या वर्ग के हों।’’
आज उनके विरोधियों को भी उनकी आवश्कता है...!