आरक्षण का आर्थिक आधार असंवैधानिक

 

काँग्रेस पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने राहुल गाँधी को पत्र लिख कर आग्रह किया है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए। श्री द्विवेदी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी के नीति निर्धारण में प्रभावकारी भूमिका निभाते हैं। हाल ही में सम्पन्न 5 राज्यों के चुनावों के परिणामों से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का एक बड़ा वर्ग काँग्रेस पार्टी की गिरफ्त से बाहर निकल गया है। इसलिए जाति आधारित आरक्षण से इन वर्गों को पर्याप्त लाभ मिल जाने से अब आरक्षण नीति में बदलाव करना चाहिए। श्री द्विवेदी का बयान ऐसे समय में आया है जब लोक सभा चुनाव सिर पर हैं। यद्यपि पार्टी ने इनके बयान का खुल कर समर्थन नहीं किया है लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता से आए इस बयान से लगता है कि पार्टी सोचती है कि इन वर्गों को सबक सिखाया जाए। श्री द्विवेदी इन वर्गों पर दबाव बनाकर काँग्रेस की हाँ में हाँ मिलाने के लिए मजबूर करना चाहते हैं लेकिन उन्हें यह अहसास नहीं हैं कि आजादी के 65 वर्षों के बाद  भी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की सामाजिक व आथि्र्ाक स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी ग्रामीण अंचल में उत्पीड़न जारी है। सार्वजनिक पनघट व पूजा स्थल आज भी इनकी पहुँच से बाहर हैं। अपनी मर्जी का व्यवसाय चुनने व आरम्भ करने पर भय लगता है। आदिवासी आज भी फटेहाल हैं तथा उनका भारी संख्या में विस्थापन किया जा रहा है। ऐसे हालात क्यों बने हुए हैं, इस विषय पर गम्भीर चिन्तन-मनन करने की बजाए धमकी देना न केवल अनैतिक कदम है बल्कि यह काँग्रेस के लिए घातक भी सिद्ध होगा।सदियों से शिक्षा, सुरक्षा, सम्पत्ति व आत्मरक्षा के अधिकार से वंचित इस विशाल वर्ग को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए पूना पैक्ट के जरिए व्यवस्था की गई थी, जिस पर बेमन से उच्च वर्ग ने स्वीकार किया फिर अधूरे मन से लागू किया इसी कारण हालात जस के तस बने हुए हैं।

आरक्षण से तात्पर्य :

आरक्षण समाज के उन व्यक्तियों के वर्गों व जातियों को विशेष रियायत प्रदान करना है जो कतिपय कारणों से उत्पन्न भेदभाव, गैर बराबरी व धार्मिक निर्योग्यताओं के कारण शोषण, उत्पीड़न व अन्याय का शिकार रहे हैं जिनको अवसर की समानता के अधिकार से न केवल वंचित ही किया गया वरन् विकास के मूलभूत साधनों जैसे शिक्षा, सम्पिŸा व आत्मरक्षा के अधिकार से भी महरूम कर दिया गया था जो हजारां सालों से भारत में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी अमीर गरीब की खाई रही है और नश्लीय आधार पर भी भेदभाव रहा है लेकिन उन देशों ने मानवीय संवेदनाओं को नजरअंदाज नहीं किया है। 

भारतीय संविधान में जिन वंचित एवं सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है उन्हें संविधान निर्माताओं ने चिहिन्त कर तीन वर्गों में विभाजित किया है प्रथम वर्ग में उन जातियों को रखा है जो सामाजिक तौर पर अछूत मानी गई हैं जो अपमान जनक व हेय व्यवसाय से जीविकोपार्जन करती रही हैं इस प्रकार की जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया है । दूसरी प्रकार की वे जातियां हैं जो जंगलो व दूर दराज के पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती रही है जिनकी अलग सांस्कृतिक व सामाजिक पहचान बन गई और विकास की धारा से अलग थलग हो गई, इस वर्ग की जातियों को अनुसूचित जनजाति में रख गया है। इन दोनों ही वर्गों अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाने व विकसित जातियों व वर्गों की बराबरी पर लाने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (4) व 16 (4) में शिक्षा के विकास तथा सरकारी सेवाओं व पदों में इनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था की गई है , यह व्यवस्था स्थायी है जिसकी समीक्षा बाबत कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है तथा यह आरक्षण भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों की परिधि में होने के कारण न्यायपालिका से इनकी रक्षा की अपेक्षा की गई है। राजनैतिक आरक्षण संसद एवं राज्यों की विधानसभाओं में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 एवं 332 के अर्न्तगत प्रदान किया गया है जो अस्थाई है और यह आरक्षण आगे बढ़ाया जाये अथवा नहीं इसकी हर दस साल में समीक्षा होती है, वर्तमान में यह राजनैतिक आरक्षण सन् 2010 तक ही था जिसे हाल ही में भारतीय संसद में 10 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया है और अब यह आरक्षण 2020 तक के लिए हो गया है। 

तीसरी प्रकार की वे जातियां है जो कृषि, पशुपालन दस्तकारी व चाकरी से अपनी आजीविका चलाती थी, जिनको भी संविधान निर्माताओं ने शैक्षिक व सामाजिक तौर पर पिछड़ों की श्रेणी में रखा है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान किया है कि वह इन जातियों के सामाजिक व शैक्षिक पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए कमीशन नियुक्त करें और उक्त कमीशन शैक्षिक व सामाजिक पिछड़ेपन का पता लगाकर उन्हें चिन्हित करे तथा इस वर्ग के लोगों का सामाजिक व शैक्षिक विकास कैसे संभव हो सकता है, इस बाबत् सुझाव भी पेश करे ताकि राष्ट्रपति भारतीय संसद में उचित कानून हेतु रिपोर्ट पेश कर सकें । भारत सरकार ने सन् 1951 में इस हेतु काका कालेकर की अध्यक्षता में एक कमिशन का गठन किया , कमिशन ने सन् 1953 में अपनी रिपोर्ट सिफोरिशों सहित पेश की उक्त रिपोर्ट संसद के पटल पर पेश ही नहीं की गई। फिर 1979 में वी.पी. मण्डल की अध्यक्षता में एक और कमीशन नियुक्त किया गया , उक्त कमिशन ने सारे देश में भ्रमण कर ओ.बी.सी. की जातियों व उनकी सामाजिक व शैक्षिक स्थिति का पता लगाया। मण्डल कमिशन ने देश में पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत माना और इन्हें शिक्षा व सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने की सिफारिश सहित सन् 1981 में रिपोर्ट पेश की लेकिन उक्त रिपोर्ट पर 89 के पूर्व तक कोई ध्यान नहीं दिया गया तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने सन् 1989 में मण्डल कमिशन की रिपोर्ट में उल्लिखित सिफारिशों को स्वीकार किया तो देश में मण्डल कमिशन की रिपोर्ट के विरूद्ध जारी आन्दोलन ने उग्र व हिंसक रूप ले लिया। कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में पेश की गई। सुप्रीम कोर्ट ने ए.आई.आर. 1993 सुप्रीम कोर्ट पृष्ठ संख्या 477 इन्दिरा साहनी व अन्य बनाम भारत संघ के प्रकरण में मण्डल कमिशन की रिपोर्ट को स्वीकार किए जाने के विरूद्ध विचाराधीन याचिकाओं को निरस्त करते हुए सन् 1992 में पारित निर्णय से यह प्रतिपादित किया कि अन्य पिछड़ा वर्ग को शिक्षा व सरकारी सेवाओं में आरक्षण वैध है लेकिन सरकारी सेवाओ में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होने की पाबन्दी भी लगा दी, और यह भी आदेश प्रदान किया कि शेष 50 प्रतिशत सरकारी सेवा की सीटें योग्यता के आधार पर भरी जायेगी जिन पर आरक्षित व अनारक्षित दोनों ही वर्गों के व्यक्ति योग्यता के आधार पर चयनित हो सकेगें। इस प्रकार सन् 1993 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए देश में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ। 

इन्दिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ के प्रकरण की सुनवाई के दौरान ही केन्द्र की तत्कालीन नरसिंहाराव सरकार ने एक याचिका पेश कर यह अनुरोध किया था कि उच्च वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भी दस प्रतिशत आरक्षण आर्थिक आधार पर प्रदान कर दिया जाये लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर उच्च वर्ग को आरक्षण प्रदान करने की केन्द्र सरकार की याचिका को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का भारतीय संविधान में कोई प्रावधान नहीं है।

इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट की इन्दिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ के प्रकरण की सुनवाई कर रही नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने यह तय कर दिया कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा साथ ही उच्च वर्ग को आर्थिक आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का भारतीय संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए भारतीय संविधान में संशोधन जरूरी है और भारतीय संविधान में संशोधन का क्षेत्राधिकार केवल भारतीय संसद को ही है। आर्थिक आधार पर उच्च वर्ग को आरक्षण प्रदान करने का क्षेत्राधिकार राज्य सरकार को नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय के विरूद्ध किसी भी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित कोई भी अधिनियम टिक नहीं पायेगा।

सरकारी सेवाओं में आरक्षण का आधार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार सामाजिक शैक्षिक पिछड़ापन ही है। संविधान सभा में आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान किया जाना उचित रहेगा अथवा नहीं? इस बाबत् लम्बी बहस हुई थी और यह तय किया गया था कि आरक्षण आर्थिक आधार पर जायज नहीं है व्यक्ति की आर्थिक हालत  सदैव समान नहीं रहती है लेकिन हिन्दू समाज व्यवस्था में कुछ वर्गों का पिछड़ापन स्थाई है जो जाति आधारित है कुछ जातीय व्यवसाय निम्न कोटि के होने से उन्हें विशेष संरक्षण प्रदान करना उचित समझा गया था। उच्च वर्ग द्वारा पोषित व पल्लवित जातीय आरक्षण में कवेल वर्ण विशेष में जन्म लेने मात्र से ही उच्च व श्रेष्ठ बन बैठे वर्ग ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म को आधार बनाकर इस देश के बहुसंख्यक वर्ग को ईश्वरीय उपदेशों के माध्यम से शारीरिक, मानसिक व आर्थिक गुलामी का शिकार बनाया है वह व्यवस्था आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है जिसे समाप्त करने का कोई प्रयास समाज के सबसे ऊँचे पायदान पर बैठै वर्ग द्वारा नहीं किया जा रहा है जो न केवल आर्थिक दृष्टि से सबल है वरन् सामाजिक हैसियत से काफी मजबूत भी है , वह उस हैसियत को बनाए रखने हेतु कटिबद्ध है। 

संविधान निर्माताओं को कपितय वंचित वर्गो के लिए आरक्षण क्यों रखना पड़ा । और क्या वे कारण समाप्त हो गये? इस पर गंभीर मनन व चिन्तन करना आवश्यक है, अनु.जाति, जनजाति का आरक्षित कोटा अभी तक भी पूरा नहीं भरा गया है, राजस्थान में ही 83 हजार से अधिक पदों का बैकलॉग है। केन्द्र सरकार व अन्य राज्यों की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। संविधान में निहित आरक्षण नीति की प्रभावी क्रियान्विति का कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया । 

अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के अलावा इन्हें शैक्षिक क्षेत्र में भी 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश मण्डल कमीशन ने की थी, जिसे वी.पी.सिंह की सरकार ने मंजूर कर शिक्षा के क्षेत्र में भी 27 प्रतिशत आरक्षण की आज्ञा जारी की थी लेकिन उच्च वर्ग ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) को शैक्षणिक क्षेत्र में आरक्षण नहीं मिले इसलिए ही पग-पग पर विरोध जारी रखा हुआ है, उच्च न्यायालयों एवं सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं भी पेश की हैं, सुप्रीम कोर्ट ने कतिपय निर्णयों से यह भी आदेश प्रदान किए हैं कि उच्च तकनीकी शिक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण वैद्य नहीं है उच्च शिक्षण संस्थाओं में भी अन्य पिछड़ा वर्ग को शैक्षिक आरक्षण के अधिकार से न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेकर वंचित कर रखा है देश का विशाल अन्य पिछड़ा वर्ग सैकड़ो जातियों में विभाजित होने के कारण संगठित नहीं है, इनका राजनैतिक नेतृत्व काफी मजबूत है , प्रदेशों में इन वर्गों के ही मुख्य मंत्री है लेकिन राजनैतिक दलों में विभाजित होने के कारण इनकी तरफ से संगठित प्रयास नहीं किया जा रहा हें । बिना उच्च शिक्षा के सरकारी सेवा का आरक्षण प्राप्त करना आसान नहीं है इसलिए अन्य पिछड़ा वर्ग के पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों व राजनीतिज्ञों को उच्च वर्ग की इस षड़यंत्रकारी मुहिम के विरूद्ध गंभीर मनन व चिन्तन कर कारगर कदम उठाना चाहिए। ओ.बी.सी. को आरक्षण का लाभ नहीं मिले इस कारण ही आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग उच्च वर्ग द्वारा उठाई गई हैं आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान की मंशा का गला घोंटने के समान हैं इस प्रकार के असंवैधानिक प्रयास का प्रतिरोध करना न केवल सामाजिक व शैक्षिक गैर बराबरी को समाप्त करने के लिए आवश्यक है वरन् अवसर की समानता को सुगम बनाने के लिए भी लाजमी है।आर.के.आंकोदिया

पूर्व सदस्य राजस्थान मानवाधिकार आयोग

7, हनुमान नगर विस्तार,

सिरसी रोड़, जयपुर 

मो.नं. 9828627537