धम्म का सार है दान, दान का मूल है प्रेम और प्रेम का अर्थ है निरअहंकार..तो दान हैं देने की क्षमता, बांटने की कला और देने का आनंद.
दान से अर्थ सिर्फ धन का दान नहीं है दान का अर्थ है जिसके पास जो है बाटें, रोके नहीं. आपके पास धन,समय, ज्ञान,अनुभव ,श्रम, शक्ति, गीत , संगीत ,सुख ,खुशियां जो भी है बांटे..लुटाए.क्योंकि बांटने में सुख है लुटाने में आनंद है. जो जितना रोकता है उतना ही रुक जाता है. देने से फैलता है. बांटने से बढ़ता है. जो जितना बांटता है उतना बड़ा हो जाता है
जो देगा उसे और मिलेगा ,जो बांटेगा वह और पाने का हकदार हो जाता है और जो रोक लेता है वह सड़ जाता है. कुएं का जल निर्मल होता है, ताजा होता है.क्योंकि वह रोज लूटाता है तो उसे चारों ओर से नए झरने भरते चले जाते हैं, बहते रहते हैं. इसलिए कुआं जवान रहता है सड़ता नहीं है, गंदा नहीं होता है. नदी बहती है स्वच्छ निर्मल उज्जवल रहती है ज्योहि नदी रुकी, अटकी तो सड़ांध पैदा होती है जीवन की नदी के संबंध में भी यही सत्य है.
दान का अर्थ सिर्फ धन से नहीं है आपके पास किसी क्षेत्र का ज्ञान है,ध्यान है,अनुभव है ,समझ है तो बाटों. ऐसा कोई भी व्यक्ति इस जगत में नहीं है जिसके पास कुछ भी नहीं है. आप राह में बिखरे कांटे तो बिन सकते हो, किसी की राह में पड़े पत्थर तो हटा सकते हो, नन्हे बच्चे के पास बैठकर हंस तो सकते हो. किसी रोते हुए के आंसू तो पोंछ सकते हो. और नहीं तो किसी के पास बैठकर प्रेम के दो मीठे बोल तो बोल सकते हो.
देते समय आप आनंदित होने चाहिए . कभी क्रोध से मत देना कभी डर से भी मत देना और कभी लोभ से भी मत देना, मान सम्मान और प्रतिष्ठा के मोह से भी मत देना.जब दो तो आनंद भाव से देना. देने का सहज सरल आनंद ही दान देने का कारण हो.
ध्यान रखना दान देने का प्रचार ना हो. एक हाथ से देते हो तो दूसरे हाथ को पता तक नहीं चलना चाहिए. अपने चारों ओर प्रकृति में यह वृक्ष फूल पत्ते हरियाली,आकाश तारे चांद सितारे, नदी झरने. सब सुख व आनंद ही लुटाते हैं रोज लुटाते हैं लेकिन फिर भी वे ताजा और प्रफुल्लित नजर आते हैं.
श्रावस्ती के एक धनी सेठ के कोई संतान नहीं थी लेकिन कभी कोई दान नहीं दिया और जीवन भर कंजूसी कर लोगों का शोषण कर खूब धन जोड़ा. जब उस सेठ की मौत हुई तो कौशल नरेश ने सात दिन तक उसके धन को गाड़ियों में भरकर राज महल में मंगवाया. इस कारण नरेश बुद्ध की देशना सुनने नहीं जा सके. अगले दिन नरेश बुद्ध के पास गए ,वंदन कर ओर बैठ गए और नहीं आने का कारण बताया ..
राजा ने भगवान को कहा- भंते ! सेठ ने ठीक नहीं किया. बुद्ध के विहार के पास रहते हुए भी ना दान दिया, ना धम्म का श्रवण किया.ना अपनी संपत्ति का सदुपयोग किया, ना कोई पुण्य कमाया और सब छोड़ कर आखिर मर गया.
शास्ता ने हंसते हुए कहा- राजन! बुद्धिहीन पुरुष धन-संपत्ति पाकर भी निर्वाण की तलाश नहीं करते हैं और धन-संपत्ति के कारण पैदा हुई तृष्णा ,मोह, लोभ उनका लंबे समय तक हनन ही करती है.
हनन्ति भोगा दुम्मेध नो चे पारगवेचिनो ।
भोगतण्हाय दुम्मेधो हन्ति अन्नेव अत्तन ।।
अर्थात संसार से पार होने की कोशिश नहीं करने वाले दुर्बुद्धि मनुष्य को भोग नष्ट कर डालते हैं. भोग की तृष्णा में पड़कर वह दुर्बुद्धि पराए की तरह अपना ही घात करता है.
बुद्ध और उनके धम्म में दान की इतनी अधिक महिमा कहीं गई है कि बुद्ध के बाद धर्म के नाम पर इसका अर्थ ही गलत निकाल दिया. पंडित पुरोहितों ने दान को धंधा बना दिया. शास्त्रों में हर पेज पर लिख दिया कि धर्मगुरु, पुरोहित, पुजारी ,मंदिर को दान दो. जन्म से मृत्यु तक धन धान वस्त्र आभूषण भूमि गाय का पुरोहित को दान दो इससे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे. बुद्ध के कल्याणकारी उदघोष 'धम्म दान : महादान' के उच्च भाव का आज विकृत रूप सभी के सामने है.
धम्म का सार है दान, दान का मूल है प्रेम...!