बुद्ध ने 'बौद्ध धर्म' नहीं दिया 'धम्म' दिया. 'बुद्धत्व' पर अपनी मोनोपोली का दावा नहीं किया. सत्य ज्ञान खोजा तो उसका पेटेंट नहीं करवाया.....
बुद्ध की शिक्षाओं का अथाह सागर है.अपने जीवनकाल में ही नहीं बल्कि महापरिनिर्वाण के सैकड़ों साल बाद तक 'बौद्ध' या 'बौद्ध धर्म' जैसे शब्दों का कहीं भी प्रयोग नहीं किया, न धम्म ग्रंथों में मिलता है. 'धम्म' के साथ कोई विशेषण जुड़ा भी है तो वह गुणवाचक है जैसे सद्धम (सत्यधम्म) अरियो धम्मो (आर्य धम्म) धम्मो सनंतनो (सनातन धम्म) आदि.
बुद्ध के अनुयायियों के लिए छ: शब्दों का प्रयोग हुआ है. धम्मि, धम्मिको, धम्मट्ठो, धम्मचारि, धम्मविहारी, धम्मानुसारी.
बुद्ध ने किसी संगठित धर्म या पंथ की स्थापना नहीं की. न ही चेले बनाकर किसी एक संप्रदाय के बाड़े में बांधने की कोशिश की. उन्होंने तो मानव जगत को 'धम्म' सिखाया. धम्म यानी प्रकृति, स्वभाव. सदियों से चले आ रहे प्रकृति के नियमों का पालन ही 'धम्म' है जिसका उद्देश्य है- बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, लोकानुकंपाय यानी बहुजन लोगों के लिए, ज्यादा से ज्यादा लोगों के कल्याण के लिए. ऐसा धम्म जो पहले भी कल्याणकारी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा.
भगवान बुद्ध की मृत्यु के ढाई सौ साल बाद युद्ध में भयंकर नरसंहार करने वाला और अपने आप को 'चंड अशोक' कहलवाने में गौरव अनुभव करने वाला सम्राट अशोक जब धम्म की शरण में आया तो दूसरों को भी धम्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया. इसी कारण वह 'धम्म अशोक' कहलाया, ना कि 'बौद्ध अशोक'. उसने प्रजा के खुशहाली के लिए 'धम्म' का प्रचार किया ना कि 'बौद्ध धर्म' का. दूर देशों में भी भारत से धम्मदूत भेजकर उपहार स्वरूप अनमोल 'धम्म रतन' ही भेजा 'बौद्ध धर्म' नहीं.
अशोक के सभी शिला लेखों में 'बौद्ध' शब्द कहीं भी नहीं मिलता है सभी जगह 'धम्म' शब्द का ही प्रयोग है. धम्म सार्वजनिक है यूनिवर्सल है, सबका है इसलिए सम्राट अशोक प्रजा को उपदेश देता है कि वे दूसरे संप्रदाय, पंथ व मान्यताओं की निंदा नहीं करें और आपस में प्रेम सद्भावना से रहें.
जब भारत में धम्म पर आक्रमण हुआ तो बुद्ध वाणी के अथाह साहित्य को जलाकर नष्ट कर दिया गया. नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे विशाल शिक्षा केंद्र भी ध्वस्त कर दिए. बुद्ध व धम्म को साजिश के तहत भुला दिया. धम्म व समृद्धि के सारे चिन्ह जमींदोज कर दिए गए. इसके साथ ही उस समय की दिनचर्या का एक प्रमुख अंग विपस्सना ध्यान विद्या भी लुप्त हो गई.
धर्म के नाम पर फिर से अंधविश्वास आडंबर पाखंड व लूट का वर्चस्व स्थापित हो गया. बुद्ध व धम्म से संबंधित गौरवशाली चिन्हों, प्रतीकों व नामों को हड़प कर दूसरी विकृत जगह प्रयोग में किए जाने लगे तब दुनिया में बुद्ध के अनुयायियों को लगा कि अब बुद्ध की मूल शिक्षाओं में भी घालमेल, मिलावट व विकृत कर इसके मूल स्वरुप को ही नष्ट कर दिया जाएगा. भविष्य की इसी चिंता को लेकर धम्म के विद्वानों ने 'धम्म' शब्द के साथ 'बौद्ध' जोड़ दिया और यह सुखमय जीवन जीने का यह मार्ग 'बौद्ध धम्म' कहलाया .
इसके बाद संकुचित मानसिकता के लोगों ने बुद्ध की कल्याणकारी शिक्षाओं को सिर्फ इसीलिए नहीं अपनाया कि यह पराया धर्म की है. विपस्सना से भी इसीलिए दूर भागते रहे.
तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पाच सौ साल बाद तक उनकी मूर्ति नही थी. प्रतीक के पदचिन्हों का वंदन और आगे से आगे मौखिक उपदेश. लेकिन जब उनके अनुयायियों को लगा कि भविष्य में साहित्य व उनके शारीरिक रुप में मिलावट आ सकती है तो लंबे समय तक बुद्ध की प्रतिमाएं खूब बनी.
समय ने करवट ली. जिस गौरवशाली बौद्ध सभ्यता को जमींदोज कर दिया गया था. वह इतिहास खुदाई के बाद फिर सामने आ रहा है. विद्वानों का कहना है कि यदि बुद्ध की इतनी प्रतिमाएं और अशोक ने चौरासी हजार स्तूप, स्तंभ, शिलालेख नहीं बनवाए होते तो आज उस गौरवशाली इतिहास, शिक्षा, संस्कृति के बारे में हमें बिल्कुल पता ही नहीं चलता.
- डॉ. एम एल परिहार,जयपुर