तुम किसी दलित के घर पैदा होते,
विशेष कर, दलित में भी दलित कहे जाने वाले,
भंगी के घर पैदा हुए होते"…।
दलित समाज की ये वेदना आज भी उतनी ही कसक भरी है जितनी पहले थी। मै दलित के बजाय शोषित शब्द कहना ज्यादा पसंद करता हूँ लेकिन चूँकि दलित एक प्रचिलत शब्द है अतः लेख में दलित शब्द का उपयोग किया गया है। जिस समाज के लिए ज्ञान व मानव जीवन के सभी मार्ग सदियों से बंद थे जिनकी अभिलाषाएं भस्म हो चुकी थी, जीवन भंग हो चुका था, प्रतिभा जंग खा गयी थी, समाज में पशुओं से भी बदतर स्तिथि थी, जिनके लिए मानवता के सारे अधिकार नकार दिए गए थे, मृतप्रायः हुआ उस दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपने भविष्य के सूर्योदय के इंतज़ार में है । वैसे तो कई महापुरूषों ने जैसे गौतम बुद्ध, कबीर, रैदास, दादू दयाल, नामदेव, अछूतानंद ,हीरादास, स्वामी केदारनाथ, शोभाराम, ज्योतिबा फुले, पेरियार आदि ने जातिवाद, पाखंडवाद आदि का खंडन किया और दलितों की स्तिथि को प्रदर्शित कर एक जन चेतना की शुरुआत की। लेकिन दलित अधिकारों के प्रति जो बहुआयामी क्रांति आयी उसमे बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर की भूमिका अग्रणीय रही है। जिन्होंने संविधान लिखकर न केवल दलित अधिकारों को सुनिश्चित किया बल्कि कई व्यापक जन आंदोलन, चिंतन, लेखन, पत्र पत्रिकायें, भाषण आदि से दलित समाज में सूखे हुए खून को फिर लाल कर गति प्रदान की। इसलिए आज अम्बेडकर ऐसा शब्द बन गया कि हर कोई इसको अपने आप से चिपका कर इसका पूरा पूरा फायदा उठाने में लगा हुआ है, आज गली-गली में अम्बेडकरवादी जन्म ले रहे है। मतलब या बेमतलब, अधिकतर लोग चाहे, नौकरी पैसा, राजनीति, सवर्ण - दलित, बूढ़ा-युवा, साक्षर-अनक्षर, यहाँ तक की बेरोजगार लोग भी अपने आप को अम्बेडकरवादी कहते नहीं थकते। लेकिन ये गली-गली के अम्बेडकरवादी क्या वास्तविक अम्बेडकर की विचारधारा पर चल रहे है या कोई अलग विचार धारा पनपा रहे है, व्यक्तिगत या संगठन तौर पर यदि वास्तविक अम्बेडकरवाद पर चलते तो ये ऊपर वाला सवाल आज भी यूँ ही खड़ा नहीं रहा होता। आजकल मुख्यतय चार स्तर पर अम्बेडकरवादी विचार धारा पनप रही है :
(अ) व्यक्तिगत तौर पर या छोटे समूह,
(ब) सामाजिक संगठन,
(स) राजनैतिक संगठन,
(द) पत्र पत्रिकाएं ।
व्यक्तिगत तौर पर या छोटे समूह:-
बाबा साहेब ने सपना देखा था कि मेरा समाज पढ़ लिखकर उनकी विचार धारा के कारवां को आगे लेकर जायेगा लेकिन कुछेक लोगों के आलावा ज्यादातर केवल मात्र दिखावे तक ही सिमित है अधिकांश लोग फेसबुक व्हाट्स एप या अन्य सोशल मीडिया पर खूब बाबा साहेब की फोटो शेयर करके लाइक्स बटोरते है लेकिन उनकी जिंदगी में बाबा साहेब की एक भी विचार धारा देखने को नहीं मिलती। उनका मकसद केवल स्वयं को बाबा साहेब का बड़ा भक्त दिखने मात्र है, आजकल फेसबुक व्हाट्स एप पर बाबा साहेब, बुद्ध, या जातिगत या बहुजन वर्ग विशेष के नाम से बहुत अधिक संख्या में ग्रुप बनते हुए आप देख सकते है, लोग फ्री नेट का खूब फायदा उठा रहे है। शुरू में जिस तरह के पोस्ट किये किये जाते है, जैसे कि संविधान को जानना, अम्बेडकर, बुद्ध, दलितों की वास्तविक स्तिथी आदि उससे लगता है कि एक सामाजिक बदलाव के लिए विचार आदान प्रदान के लिए अच्छा मंच हो सकता है। हालाँकि वो ज्यादा दिन नहीं चलता क्योंकि कुछ ही दिनों मे लगने लगता है कि सब छद्मता का पुलिंदा है। अधिकतर मैसेज Just carry एंड फॉरवर्ड होते है, स्वयं का ढेला मात्र भी ज्ञान नहीं होता है, आप भी ऐसे बहुत से ग्रुप्स को जानते होंगे। अक्सर देखा जाता है कि धीरे धीरे ग्रुप का असली मकसद छद्मता की ओर चला जाता है, वास्तविक उद्देश्य से भटक कर दुसरे ही भंवर जाल मे फंसने लग जाता है, अधिकतर बहुजनों की हालत ऐसे ही होती है जो कि मनुवाद की ताकत बन जाती है। मनुवाद इसीलिए मजबूत नहीं है कि अम्बेडकर कमजोर है बल्कि इसीलिए है कि अम्बेडकरवादी कमजोर है। भिन्न भिन्न विचार के लोग एक अम्बेडकर रुपी छाता (सिद्धांत) के नीचे आते जरूर है लेकिन कौन किस तरफ खड़े हो, कैसे खड़े हो, कब खड़े हो (Mode of action ) इसके चक्कर मे बिखर भी जल्दी ही जाते है। समय के अनुसार मोड ऑफ़ एक्शन बदलते रहे है और बदलते रहने भी चाहिए, मनुवाद के methods भी बदलते रहे है लेकिन सही method का चयन करना एक महत्त्वपूर्ण बिंदु रहता है और इसमें मनुवादी लोग बहुत चतुर व निपुण है और शायद इसीलिए उनकी अधिकतर योजनाएं सफल होती है, मर्यादा पुरूषोत्तम राम से भगवान बनाना ऐसी ही methods का प्रमाण है।
अगर किसी उद्देश्य के लिए एक तल के नीचे खड़े हो तो एक दूसरों को जानना ही नहीं बल्कि पहचानना भी पड़ेगा। वैसे आजकल भी मनुवाद के शिकार तो हर कोई होते रहते है, बाबा साहेब अम्बेडकर के बारे मैं कुछ पढ़ने के बाद मुझे मनुवाद क्या है वास्तविक पता चला। पिछले कुछ सालों के अनुभव के आधार पर मैने देखा है कि जो अम्बेडकर मनुवाद को ललकार के उससे अकेला टक्कर लेता रहा उस अम्बेडकर को सिर्फ फोटो तक ही सीमित कर दिया है, अम्बेडकर कोई पुरुष या संत नहीं बल्कि एक विचारधारा का नाम है। जो बुद्ध स्वयं मूर्ति पूजा, पाखंड, कर्म कांड के विरुद्ध रहे, उस बुद्ध को केवल पूजने तक की परिधी तक ही बांध दिया है, खुद को कभी भगवान नहीं मानने वाले बुद्ध को, आज के बुद्धधर्म के लोग उनको भगवान बना के खूब पूज रहे है, बड़े बड़े बुद्धधम्मी आज बुद्धालयों में पूजा अर्चना करते नज़र आते है जबकि गौतम बुद्ध ने स्वयं कहा है कि बुद्ध एक अवस्था है जिसमे पहुँचने के बाद केवल मानव कल्याण ही सर्वोपरि होता है। अधिकांश लोग केवल अपने निजी स्वार्थ की पतली गली निकालकर चलते रहते है, 5 -10 साल तक अम्बेडकर / बुद्ध को प्रचार प्रसार करने के बाद, स्वयं व्यक्ति का व्यक्तित्व मैने अपनी आँखों से देखा है, उसको देखने से लगता है कि उसने अम्बेडकर/बुद्ध को केवल अपने मतलब के लिए विज्ञापन किया है, खुद को समाज सेवक/ अम्बेडकरवादी कहने वाले दहेज़ के लिए मुँह फाड़ते नज़र आते है, सामाजिक कुरूतियों के पोषक होते है, आज शायद बाबा साहब जीवित होते और अपनी आखों से देखते तो शायद उनके अश्रु रुक नहीं पाते। आज की वास्तविक स्तिथी ये है कि अगर आप अम्बेडकरवाद के प्रबल समर्थक है तो सबसे पहले आपको अपने प्रियजनों परिवार व समाज से ही लड़ना पड़ेगा, आपको लोग पागल तक समझ लेते है, हो सकता है कि आपको समाज से बाहर करने का भी फरमान सुना दिया जाये, क्यों कि उनके रक्षक रूढ़िवादी लोग बने हुए है, और ऊपर से अम्बेडकर का चौला ओढ़ रखा है। समाज सेवा के जिस बिंदु में अम्बेडकर को सुख की अनुभूति होती थी, आज के लोग इसको बे मतलब या पागलपन का बिंदु कहते है या अपने स्वार्थवश काम में लेते है। अपने समाज की दयनीय स्थिति को देखकर रोने वाले अम्बेडकर की जगह आज के लोग उनसे ही दूरी बनाते नज़र आते है या फिर स्वयं उन्ही पर राज करने के लिए लालायित रहते है। यदि मै छोटे बड़े सामाजिक संगठनों की बात करूँ तो ये निष्कर्ष में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज कल बहुजन सामाजिक संगठन / प्रोग्राम सिर्फ और सिर्फ नेताओ व सरकारी महकमों के इर्द गिर्द घूमता है, ताकि उनका स्वार्थ सिद्ध हो सके और शायद यही वजह है कि दलित समाज का एक बड़ा तबका अभी भी सूर्योदय के इंतज़ार में है।
आज कल गली–गली मे कई नेता पैदा हो रहे है जो समाज को गुमराह या अपना उल्लू सीधा करने के लिए अम्बेडकर, कांसीराम, फुले की फोटो लगाते है, हर तिथि, जन्मदिन ,पुण्य तिथि पर अपना स्वयं का पोस्टर लगाते है और नीचे बड़े बड़े अक्षरों मे खुद को समाज सेवी लिखते है, बड़ी बड़ी बातें भी करते है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और होती है, देखा जाये तो उन्होंने कभी अम्बेडकर की किताब के हाथ तक नहीं लगाया होता है, सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जनता का इस्तेमाल करते है। उनमे एक भी गुण अम्बेडकर, फुले का नहीं है, न ही कोई मानवता, न ही कोई आर्थिक लेनदेन का गुण उनमे विद्यमान है (मेरे व्यक्तिगत अनुभव ये कहते है कि समाज सेवा के लिए दिया गया भामाशाह धन, अधिकतर वो लोग खुद के प्रचार प्रसार में खर्च करते है)। दूसरी तरफ जो लोग जब पावर मे रहते है तब अपने ही समाज पर रॉब झाड़ते है और सेवानिवृत के बाद सामाजिक संगठन बनाते नज़र आते है इसीलिए आज करीब हर गली मोह्ललें में छोटे मोटे बहुजन संगठन मौजूद है लेकिन उनका मकसद केवल अम्बेडकर के दिए हुए अधिकार, संसाधन की मलाई खाना है और शायद इसीलिए आज़ादी के 72साल बाद भी अम्बेडकर के सपने न केवल स्थिर है बल्कि उनके समय से पीछे भी धकेल दिए है (दो अप्रैल के भारत बंद के आंदोलन मे ये आप हूबहू देख सकते है)। इन्ही पाखंडी अम्बेडकरवादियों की वजह से आज दलितों में भी दलित पैदा हो रहे है, वो अपने अधिकारों के बारे में बार बार पूछ रहे है, जो दलित समाज पहले स्वर्णवादियों से पूछा करती थी, आज ये अति दलित, अपने ही दलित आकाओं (हंस बन बैठे दलित) से पूछ रही है:
मेरे अधिकार कहाँ है, अस्पृश्य ,पशुओं से भी बदतर ,
निज श्वासों के भी लाले है, उत्पीड़न कि जंजीरों में ,
यूँ फसां सदियों से मैं, ना ही मुर्दा हूँ, ना ही जी सकता,
मेरे मौलिक अधिकार कहाँ है”...।
आज ये सवाल किसी अबोध बालक का नहीं है बल्कि पूरी अति शोषित समाज का सवाल है। आज भी आप अपने कानों से सुन सकते है बशर्ते आपके कानों में रुई न ठूसी हुई हो। इसके कई उदाहरण सामने है जैसे SC, ST एक्ट के लिए 2 अप्रैल का जन आंदोलन, सीवेरज लाइन्स में मृतक सफाई कर्मचारी, आदिवासी भूमि अधिग्रहण आदि व कई इन जैसी घटनाओं से आप रूबरू हो सकते है जो इसकी प्रमाणितका देती है। उसमें शहीद हुए नौजवानों की आत्मा शायद यही कह रही कि उन आकाओं की आँखे क्यों बंद हो गयी है, क्या उनका जमीर मर गया है, जो मुँह से एक शब्द नहीं निकलता। जिस गति से मनुवाद अपने पैर वापिस पसार रहा है, अम्बेडकरवाद की गति कहीं कछुवे जैसी है और जरूरी नहीं की खरगोश हमेशा सो जाये, और कछुआ जीत जाये। जिन महिलाओं व बहुजनों को अधिकार दिलाने के लिए अम्बेडकर ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था आज वो ही आरक्षण विरोधी पोस्टर लगाते नज़र आते है देखा जाये तो बहुजन एक कपोल संगठन है, मेने जीवन मे जितने तिरस्कार अपने ही समाज बहुजन लोगों से सहे है वो किसी स्वर्ण से नहीं सहे। हाल ही मे किसी बहुजन ने ही मेरे किसी फैमली मैम्बर से सार्वजनिक स्थल पर जाने पर जाति पूछ डाली, हालाँकि बाद मे माफ़ी मंगवा ली गयी लेकिन उसकी मानसिकता का पता चल गया। बहुजन ही आपस मे एक दूसरें के अधिकारों के विरोधी नज़र आ रहे है। कुछ वास्तविक समाज सेवकों के साथ मिलकर व अपने समय समय पर लेखन के माध्यम से निरंतर सामाजिक जन चेतना का मेरा प्रयास जारी है, लेकिन सेवा जब श्रम से मूल्य मे बदल जाती है तो लोग मूल्य देखने लगते है और वैसे भी आजकल आयल किंग्स की कमी नहीं है चाहे धन कैसे भी कमाया गया हो। भौतिकवाद के जमाने मे अनैतिक कमाई से बिलियनरीज़ बनने के सपने देखने वालों की कमी नहीं है, भौतिकवादकरण भी एक तरह का मनुवाद ही है पहले लोग भोले थे, अशिक्षित थे लेकिन आजकल लोग कुछ साक्षर (कृपया ध्यान दे शिक्षित नहीं हुए ) होकर भौतिकवाद का शिकार होते जा रहे है चकाचौंध की जिंदगी जीना चाहते है। उनके पास अम्बेडकर के नाम पर एक धेला नहीं निकलता लेकिन मंदिर मस्जिद निर्माण के लिए खूब धन लुटाते है, जागरण, यात्रायें, भंडारा, चमचागिरी आदि ही इनकी जिंदगी की दिनचर्या बन गयी है, इन्ही छद्म अम्बेडकरवादियों की वजह से सच्चे अम्बेडकरवादियों की मेहनत पर पानी फेर दिया जाता है और उनका चलना मुश्किल हो जाता है अंत में थक कर वे यही सोच लेते है कि:-
फुरसत तो मुझे भी बहुत थी समाज के लिए,
लेकिन पेट भर गया और मैं सो गया...।
सामाजिक व राजनैतिक संगठन:-
ठाकुर के खेत से, सेठ की तिजोरी तक,
मेरा ही लहू बहता है, वही सबसे सस्ता है...।
ये खून आज भी वैसे ही बह रहा है, कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं आया। आज भी मज़दूर वर्ग का बड़ा हिस्सा केवल दलित वर्ग से ही आता है। इस हालात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी दलित व्यक्ति अभी भी यही महसूस करता है कि भूख के गणित से ज्यादा जाति का व्याकरण ज्यादा दुरूह और गंभीर है। वास्तविक रूप से देखा जाये तो दलित केवल अनुसूचित जाति के लिए ही माना जाता रहा है, OBC वर्ग और कहीं कहीं ST वर्ग तो दलित के नाम से चिढ़ जाते है, और अधिकतर सामूहिक दलित शब्द केवल वोट बैंक नीति के तौर पर अपनाया जाता है। जिस प्रकार गाँधी का हरिजन शब्द बाजार में उतरा गया था वैसे ही दलित शब्द भी परवान चढ़ रहा है अन्यथा शोषित, अति शोषित, दमित जैसे शब्दों का उपयोग प्रचलन में था। जहाँ अम्बेडकर ने जातियां तोडने की बात की थी, वहां आज बहुजन अपने ही जाति का स्टिकर लगा के घमंड करते नज़र आते है। सामाजिक संगठन जाति, वर्ग, वर्ण, संप्रदाय, नौकरी आदि के आधार पर बनते है। नित नए नए जातिगत संगठन छोटे बड़े स्तर पर बनते नज़र आते रहते है, जैसी विकास समिति, तालुका या जिला स्तरीय, राज्य या राष्ट्रीय स्तर आदि और ये अम्बेडकर की फोटो लगाए अपने ही समाज से चिपके रहते है, इनकी अगवाई कोई राजनैतिक नेता या सरकारी अफसर करता है, सिर्फ और सिर्फ अपनी रोटी सेकने के लिए। मेरा मानना है कि जब तक जातियां रहेगी, शोषण रहेगा, चाहे वो किसी जाति विशेष में हो या वर्ग विशेष में या वर्ण विशेष में। आजकल अधिकतर संगठनों का काम केवल दूसरी जातियों / सवर्णों को कोसने मात्र रह गया है कुछ तो गाली गलौच तक पर भी उतर आये है, उनके पास स्वयं की कोई मजबूत विचारधारा, रणनीति, सोच, प्लान नहीं है केवल और केवल बाबा साहेब के नाम पर भोले भाले लोगों को गुमराह कर भीड़ इक्क्ठी करते है और फिर मौका देखकर किसी बड़ी राजनैतिक पार्टी के टिकट की टकटकी लगाए रहते है, आरक्षण की बदौलत जिन राजनेताओं के कंदे पर बाबा साहेब का कारवां रखा जाना चाहिए था उनमे से अधिकतर आज अपनी ही दलित समाज पर बोझ बन के बैठे हुए है।
साम्प्रदायिकता की तेजी से बढ़ती विचारधारा और साम्प्रदायिक हिंसा भारतीय संस्था के लिए ही खतरा नहीं है बल्कि दलित समाज इस समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित है। साम्प्रदायिकता भारतीय समाज की ही नहीं समूचे दलित समाज के विकास का भी रोड़ा है। स्वतंत्रता के बाद दलितों ने जातीय दंश से मुक्ति की राह में दूसरे धर्मों में जाने को बड़े पैमाने पर क्रियान्वित किया है। उसे जब जिस धर्म में अपनी मुक्ति का रास्ता दिखा, वह उसमें गया। बौद्ध धर्म, इसाई धर्म और इस्लाम इनमें मुख्य हैं, या फिर आजकल हिन्दू धर्म में ही कट्टरता पनपा रहे है । मगर विडम्बना ये है कि वहां भी वह दलित ही बना रहा, वहां भी रूढ़िवादी प्रथा से नाता तोड़ नहीं पाता। आज भी दलितों की स्तिथि उसी प्रकार है जिसका वर्णन जय प्रकाश कर्दम अपनी कविता संग्रह " गूंगा नहीं था मैं " में करते है जैसे:-
“झूंठे है वो लोग जो कहते है कि,
देश में जातिवाद आखिरी साँस ले रहा है,
जब तक स्मृतियाँ रहेगी...,
तब तक अस्पृश्यता रहेगी...।
और इन्ही वजह से बाबासाहेब ने मनुस्मृति का दहन किया था आज वो हालत उलट जा रही है जातिवाद को स्वयं दलित लोग ही गले लगा रहे है, हालाँकि माननीय सुप्रीम कोर्ट के अनुसार जाति के आधार पर कोई राजनैतिक पार्टी बनाना निषेद है लैकिन वास्तविक रूप से देखे तो राजनैतिक पार्टियों का जातिगत ध्रुवीकरण हो रहा है ।
डा अम्बेडकर ने दलितों में जिस संगठनिक और राजनीतिक चेतना का बीज डाला था वह आज काफ़ी विकसित हो गया है। आज सैकड़ों दलित संगठन और राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं। लेकिन उनमें विचारधारा, रणनीति और लक्ष्य संबंधी बहुत सी भिन्नतायें हैं। दलित समाज के विकास को लेकर सभी के अपने-अपने दावे हैं। आज की दलित राजनीति की वस्तु स्थिति क्या है? यह जानने के लिये जरूरी है कि इन राजनीतिक पार्टियों की वैचारिकी और व्यवहार की मजबूतियों और सीमाओं का एक मूल्यांकन किया जाये ताकि भविष्य की दलित राजनीति की दिशा का पता लगाया जा सके। दलित समाज को आज़ाद भारत में पूरी आज़ादी मिले इसके लिये बाबा साहेब ने बहुत पहले से अपने राजनीतिक प्रयास आरंभ कर दिये थे। उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, अखिल भारतीय शैड्यूल्ड कास्ट फ़ैडरेशन, रिपब्लिकन पार्टी आफ़ इंडिया आदि बनाई। यह पार्टी भारत के इतिहास में दलित समाज और कामगार वर्ग की पहली और सामूहिक राजनीतिक अभिव्यक्ति थी। बाबा साहेब के लिये राजकीय समाजवाद का मतलब था- समस्त नागरिकों के लिये समता, समानता और बंधुत्व को कायम करना। इस पार्टी का लक्ष्य संविधान की विधि के ज़रिये राजकीय समाजवाद की स्थापना करना था। 1970 में सामने आई दलित संघर्ष की सबसे तीखी अभिव्यक्ति दलित पैंथर ने दलित आंदोलन को संघर्ष का एक नया मुहावरा दिया। लेकिन अपनी अन्तर्निहित वैचारिक और व्यवहारिक उलझनों के चलते दलित पैंथर भारतीय इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ कर धीरे-धीरे द्र्श्य-पटल से गायब हो गया। मान्यवर कांसीराम ने बहुजन समाज की अपनी राजनैतिक पार्टी की नीव रखकर परचम लहराए थे आज वो भी अपने अस्तित्व के लिए ही लड़ रही है।
आज दलित सशक्तिकरण की बात तो की जाती है मगर इस सशक्तिकरण को क्रियान्वित करने की कोई रणनीति सिवाय सत्ता प्राप्त करने के, उनके पास नहीं है। बाबा साहेब जिस बहुजन समाज को देश का शासक बनने के लिए कहा करते थे आज वो बस किसी मजबूत पार्टी में टिकट के लिए ललायत हो रहे है, आजकल तो ये भी नहीं कहते है कि जो हमारे अधिकारों की बात करेगा उसको समर्थन देंगे, ऐसे हालत में क्या खाक शासक बनेंगे। आजकल हर दलित राजनेता अपनी नई नई राजनैतिक पार्टी बना रहे है या फिर बड़ी पार्टी के लट्टू बने बैठे है। उन्होंने दलितों की असली बीमारी के प्रश्न को कभी नहीं उठाया। सत्ता पाने की रणनीति को पूरा करने के चक्कर में वह तमाम अम्बेडकरवादी सैद्धांतिकी को ताक पर धरते चले जाते है। बाबा साहेब ने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोंनो को दलित समाज के दुश्मन के तौर पर रेखांकित किया था। मगर दलित नेता किसी भी पार्टी से सत्ता पाने की होड़ में, किसी भी ऐसे दल से हाथ मिलाने को तैयार हो जाते है, जो उसे सत्ता में हिस्सेदारी का वायदा करता हो चाहे वह दल दलित विरोधी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाला दल ही क्यों ना हो। चूंकि उनका लक्ष्य केवल सत्ता पाना है इसलिये अपनी नई रणनीति सामाजिक अभियांत्रिकी के तहत बहुजन समाज की मुख्य अवधारणा को ताक पर रखकर अपने स्वार्थ सिद्ध में लग जाते है और दलितों के वास्तविक मुद्दों ( जिनसे दलित समाज आज भी जूझ रहा है, जैसे जातिवाद, बेरोज़गारी, अशिक्षा, दलित महिलाओं की आर्थिक बराबरी और सम्मान की समस्या आदि) की कोई चर्चा नहीं करते। अब यह सिर्फ़ कहने के लिये दलित समाज के प्रतिनित्व के तौर पर बड़ी पार्टी में कटपुतली की तरह दिखते है। आज भी संसद में आरक्षण की बदौलत बहुजन सांसदों की संख्या इतनी तो है कि वो एक जुट होकर अपनी बात सरकार से मनवा सकते है या अपनी शोषित समाज के लिए निर्णायक बदलाव लेने के लिए मजबूर कर सकते है।
उन समस्याओं को किसी ने भी पुरजोर तरीके से नहीं उठाया है। जहां मान्यवर कांसीराम ने बहुजन संगठन बनाने की बात की थी ये तो खुद टुकड़ों में बटे हुए है। जहाँ महापुरुषों ने उनको जगाने व संगठित करने की कोशिस की थी, ये तो वापस आरक्षण रूपी डकार मार के सो गए है। मान्यवर कांशीराम का नारा ‘जाति को जाति से काटो’ या डॉ राम मनोहर लोहिया का नारा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ जैसे नारों के साथ आगाज कर पुनः संगठित हो सकते है बशर्ते कोई साइकिल लेकर एकता भ्रमण पर निकले।
पत्र-पत्रिकाएं:-
डॉ अम्बेडकर ने स्वतंत्रता से पहले ही ये महसूस कर लिया था कि शोषित समाज के मुद्दों व आवाज के लिए स्वर्ण मीडिया में कोई जगह नहीं है इसीलिए उन्होंने मूकनायक से प्रबुद्ध भारत तक का पत्रकारिता का सफर किया, बुलंद आवाज उठाई, वहाँ आज कल बहुजन पत्रिकाएं केवल सामान्य खबरों तक ही सिमिट गई, अब उनके पास खबरे ही नही है। उन्होंने कुछ बुनियादी शर्तें बताई थी जैसे तथ्यों पर आधारित होना, निष्पक्ष होना आदि। लेकिन आजकल की अधिकतर बहुजन पत्र पत्रिकाएं ध्रुवीकरण की और बढ़ रही है, उनका उद्देश्य किसी पार्टी विशेष की बुराई या बड़ाई मात्र रह गया है। पहले पत्रकारिता एक पेशा थी लेकिन आजकल व्यापार बन गयी है, जिन बहुजन मुद्दों को बहुजन पत्रिकाओं को उठाना चाहिए था, वो बस किसी ध्रुवीकरण तक सीमित हो गये। Lockdown में इंटरनेट चालू है, घर बैठे जहां दूसरे लोग आराम से स्टार्टअप या अन्य क्रिएटिव वर्क कर रहे है, बहुजनों की तरफ से कोई बड़ा काम सामने नही आया। सवर्णों का सारा काम ऑनलाइन हो रहा है, घर बैठे बैठे और बहुजन लोग lockdown खुलने का बहाना बनाये बैठे है। हां फेसबुक व्हाट्सएप पर तो मैसेज इधर उधर करने में कोई कसर नही छोड़ रहे है, जैसे सारा युद्ध इन्ही माध्यम से लड़ना है। ऐसे माहौल में बहुजन पत्रकारिता का कृतव्य बढ़ जाता है लेकिन बहुजन पत्रकारीता की हालात और भी पतली है। कुछ मनुवादी पत्र पत्रिकाओं ने तो अम्बेडकर की पुरानी फ़ोटो शेयर करके जिसमे लोग मफ़लर, गर्म टोपी आदि पहने हुए थे, उसको अम्बेडकर जयंती की फ़ोटो बताकर lockdown का उल्लंघन करार दे दिया, विवाद उठने पर दूसरे दिन भूलचूक का छोटा सा कॉलम देकर पल्ला झाड़ लिया और दूसरी तरफ बहुजन पत्र कारित मासिक मैगज़ीन को द्विमासिक कर के पीडीएफ में शेयर किया गया, या कुछ ने कुछ भी नही किया, lockdown का बहाना बनाकर प्रकाशन रोक दिया, अब भला उनको कौन समझाए की ,अन्य समाचार पत्रों की तरह वो भी ऑनलाइन , पीडीएफ शेयर करके ही अपना फर्ज अदा कर ले, भला इनका काम, मनुवादी पत्रिकाएं क्यों करे।
आजकल के बहुजन साहित्य और पत्र पत्रिकाओं में आक्रोश, जोश, रस, दर्द सब ख़त्म सा हो रहा है, उनमें वो आगाज, दहाड़ नज़र नही आती जिससे मुर्दा भी जिंदा हो उठे, खून खोल जाए, या निकम्बे बहुजन शर्म में डूब जाए, उनमें रणभेरी या प्रताप पत्रिकाओं जैसा जोश नज़र नही आता। कोई ढंग की है तो धन के अभाव में दम तोड़ती नज़र आ रही है, मझे बड़ा अचरज हुआ कि बहुजन लोग एक चाय के कप से भी कम की रकम की बहुजन पत्रिका का मूल्य अदा नहीं कर पा रहे है, ये उनकी संकुचित मनोवर्ती का प्रदर्शन ही है, बकाया राशि के लिए भी संपादक महोदय को आग्रह करना पड़ता है।
‘लगा घाव है अब कठिन रह-रह के होती चमक
रहा काम अब आपका मरहम रखिए या नमक...।
स्वतंत्रता संग्राम की पत्रिका का ये सन्देश ही काफी था कि पाठकों ने चंदा जमा करके ज़मानत के लिए धन एकत्र कर दिया, जमानत जमा कर प्रकाशन पुनः आरंभ हो गया। लेकिन आज चंदा तो दूर , बकाया भी नहीं जमा करा रहे है। अगर वास्तविक रूप से अम्बेडकर आंदोलन लाना है तो पत्र पत्रिकाओं में वो जोश, आक्रोश,या फिर दर्द लाना ही पड़ेगा जो स्वतंत्रता के समय रणभेरी, प्रताप आदि या फिर बाबा साहेब अम्बेडकर की मूक नायक में हुआ करता था।
‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है’...।
ये सन्देश आते ही विद्यार्थी समूह की स्वतन्त्रा क्रांति में सहयोग की भीड़ लग गयी थी । बाबा साहेब ने कहा था कि जब तक गुलाम को गुलामी का एहसास नहीं हो जाता, वो संघर्ष नहीं करेगा, उनका जमीर जगाना होगा और ये कार्य बहुजन पत्र पत्रिकाओं का है। आज दलित साहित्य में जान डालने की जरुरत है जैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि की "झूंठन" जिसमे कहा गया है कि पढ़लिखकर जाति सुधारनी है। या फिर " आत्मकथा " जिसमे कहा गया है कि दलित जीवन कि पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव दग्द है , आज हम ऐसी व्यवस्था में साँस ले रहे है जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। अगर वास्तव में अम्बेडकर के सपनों को साकार करना है तो तथ्यों सहित अपने उद्देश्य को केंद्रित करना ही पड़ेगा। अगर आज हम अपनी आँखे खोलकर देखे तो बेशक दलित समाज के एक बड़े तबके की आवाज बाबा साहेब के सपनों से बहुत दूर है, उनकी आवाज पर अपने ही दलित समाज के मक्कार , छद्म अम्बेडकरवादियों और राजनेताओ / अफसरों ने एक आवरण बना के रखा हुआ है। खुद को अम्बेडकरवादी कहने वाले दलों व व्यक्ति को बाबा साहेब के आदर्शों के विपरीत आचरण करते हुए देखा है, और उनके समता का संघर्ष आज भी अधूरा ही है, बाबा साहेब, बहुजन समाज को भारत के मूल निवासी कहा करते थे लेकिन आज कई बहुजन लोग अपने ही निवास को तरसते नज़र आ रहे है (आदिवासी भूमि अधिकरण), या जिन बाबा साहेब ने लगभग 5 लाख लोगों को साथ लेकर बौद्ध दीक्षा ली थी और संगठन शक्ति की परिभाषा दी थी , आज वो तार तार होती नज़र आती दिख रही है। बाबा साहेब साहेब ने जिस सरकारी नौकरी को ठुकरा कर देश के शोषित समाज की आवाज बने आज वो ही शोसित समाज सरकारी नौकरी के दामाद बनने में दम्भ भरे फिरते है, और अधिकरतर रिटायरमेंट के बाद ताश पत्तों में ही ढेर हो जाते है। मेरा निजी अनुभव कहता है कि ऐसे छद्म अम्बेडकरवादियों से सदैव दूर ही रहना चाहिए , चाहे वो किसी भी स्तर का क्यों न हो, इनके बहकावे में आकर आप अपना बेशकीमती समय बर्बाद नहीं करना है अन्यथा आपको उठाने कोई भी अम्बेडकर, फुले, कांसीराम नहीं आएंगे। ऐसे समय में बहुजन पत्रिकाओं का कार्य बहुत बढ़ गया है, उनको तो नींद ही नहीं आनी चाहिए, उनका काम तो सोये हुए समाज को जगाना है। उनको सही रणनीति, संसाधनों का सही उपयोग, ईमानदारी, सच्चाई एवं एक उच्च विज़न व मिशन के साथ कार्य करना है, तब ही बाबा साहेब के सपने साकार हो सकते है, अन्यथा…।
जिन्दा लाशों को जगाने चला थे मैं,
आज खुद लाश बन गया हूँ मैं ...।
वास्तविक अम्बेडकरवादी ऐसे ही टूट कर बिखरते चले जायेंगे। उस समय तो फिर भी अम्बेडकर, कांसीराम जैसे नेता आपके हक की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन आज आपको अपने हक की लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ेगी, चाहे वो किसी भी स्तर पर विराजमान हो।
ये लेखक के निजी विचार है।
एल. एन. जाबड़ोलिया