बुद्ध का धम्म एवं मान्यवर कांशीराम साहेब



जापान में जन्में पले बढ़े और भारतीय नागरिकता प्राप्त बोद्धाचार्य भंते सुरई ससाई (अध्यक्ष अखिल भारतीय धम्म सेना, पूर्व सदस्य राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग भारत सरकार एवं बाबा साहेब अम्बेडकर स्मारक समिति दीक्षा भूमि नागपुर, महाराष्ट्र के प्रमुख) ने सन् 1995 के आस-पास सार्वजनिक रूप से यह ऐलान किया था कि बहुजन मूवमेन्ट के प्रवर्तक एवं महानायक कांशीराम साहेब अपने समय के सबसे बड़े बुद्धिस्ट है। यानि बड़े-बडे़ नामधारी भंतेगणों, धम्म पर व्याख्यानकारों धम्म शिक्षाचार्यो व दीक्षाचार्यो, धम्म तत्वज्ञान पर विशाल लेखनकर्ता आदि बुद्धिस्ट जगत की हस्तियों की मौजूदगी के चलते हुए भी इन सब में सबसे बड़े बुदिष्ट कांशीराम साहेब थे। आखिर यह कैसे संभव था ? भंते सुरई ससाई जी का ऐसा मानना क्यों था ? कांशीराम जी के सन्दर्भ में भंते जी की ऐसी धारणा को पुष्टकर्ता तथ्यों की सत्यता पर लोगों को अवश्य डालना चाहिए। मेरी समझ अनुसार भंते जी ने कांशीराम साहेब को इस किस्म की पदवी तुरत-फुरत अनायास व भावुवकता में नही दी थी, बल्कि उनके आचार, विचार, संस्कार व्यक्तित्व एवं कृतित्व के दृष्य एवं अदृृृशय के गुणावगुण के ठोस आधारों पर दी थी। 
हमें विदित रहना चाहिए कि कांशीराम साहेब ने अपने 40 वर्षो के बहुजन मुक्ति के संघर्ष में बुद्ध के मार्ग ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ को ही अंगीकृत एवं आत्मार्पित कर अपने आन्दोलन का सम्पूर्ण ढांचा खड़ा किया था और आन्दोलन के कई स्तरीय सोपान में कारवां को आगे बढाया था। कांशीराम साहेब ने कहा था कि ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ आज यह ज्यादा तर्क संगत है और हमको निश्चय करना चाहिए कि न केवल स्वयं की मुक्ति करने का बल्कि देश व दुनियां के उत्थान का यह सर्वोत्तम मार्ग है। एक अपूर्व प्रतिज्ञा के साथ उन्होनें उच्च वैचारिक एवं चारित्रिक मानकों पर जिस अदम्य साहस एवं दबंग मादा के द्वारा अपने मिषन में अतुल्यनीय तथा उपल्ब्धि के जो कीर्तिमान स्थापित किये थे, उनके दृश्य परिणामों से अभिभूत होकर ही सायद भंते सुरई ससाई जी ने कांशीराम साहेब को समकालीन लोगों में सबसे बड़े बुद्विष्ट होने की पदवी से अलंकृत किया गया होगा। मेरी राय में तो आजाद भारत में गुलाम बहुजनों की मुक्ति के लिए कांशीराम साहेब द्वारा चलाये गये ‘‘सामाजिक परिवर्तन एवं आर्थिक मुक्ति’’ के आन्दोलन में जब इस विषाल मूल निवासी समाज के लिए सर्वप्रथम प्रयुक्त शब्द बहुजन को बुद्ध के 2500 वर्षो बाद बुद्ध से ही लेकर जब पुनः प्रचलित कर भारत को गौर्वावित किया था, तो सही मायने में कांशीराम साहेब उसी समय बोद्धित्सत्व हो गये थे। 
जिस प्रकार 28 वर्ष की उम्र में मानव को उसके दुःखों से मुक्ति के मार्ग की खोज में तथागत ने गृह त्याग किया था और सात वर्ष पश्चात लगभग 35 वर्ष की उम्र में बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे, ठीस उसी प्रकार बहुजनों की मुक्ति के लिए 30 वर्ष की उम्र (1965 में) में कांशीीराम जी ने भी गृह त्याग कर ठीक सात वर्ष पश्चचाताप में अपना मार्ग खोजकर बहुजनों की मुक्ति के आन्दोलन का सूत्रपात किया था। उन्होने घोषणा की कि भारत में मनुवाद का ईलाज केवल बहुजनवाद में ही निहित है। कांशीराम साहेब ने बहुजन मुक्ति के लिए अपने जीवन भर के संघर्ष के सोपानों से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जिस सिद्धता व ईमानदारी के साथ मन वचन एवं कर्म से जिस किस्म 
का अदभुत्त त्याग एवं समर्पित प्रयास किया उनके आधार पर वे स्वमेव ही महान बुद्ध मार्गी की उपमा के हकदार अवश्य सिद्ध हो जाते है, किन्तु यह विडम्बना ही है कि इस दुनियां में व्यक्ति को उसके मन, वचन, कर्म की उच्चता, शुद्धता व ईमानदारी की नीति पर मानव कल्याण में उसके द्वारा किये जाने वाले योगदान के आधार पर महत्व देने में ईमानदारी नही निभाई जाती रही है, जबकि दूसरी तरफ पादरियों, मोलवियों, संतो एवं भंतो के लिबास में जनता के मध्य उत्तर कर, जन कल्याण का स्वांग करने वाले कुकर्मियों तक को भी लोग अपने सिर ऊंच उनकी जय-जयकार एवं महिमामंडन कर सत्य को धकियाते रहे है। बुद्ध एवं उनके धम्म पर कांशीराम साहेब का शुरू से ही स्पष्ट मत था। उन्होनें कहां था कि ‘‘बुद्धिज्म आडम्बरपूर्ण धम्म (मार्ग) नहीं है बल्कि एक महान सामाजिक दर्शन है।


जो कहीं भी तथा प्रत्येक जगह पर अपनाया जा सकता है। समता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता पर आधारित समाज जहाँ पर न्याय होगा, ऐसा समाज बुद्ध अपनी शिक्षाओं के माध्यम से बनाना चाहते थे। यदि हम दुनियां के नक्शे पर नजर डालते है तो देखते है कि बड़ी संख्या में मानव समाज समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता से वंचित है, न्याय की क्या बात करें, जहां तक मानव समाज का बडा हिस्सा इन अधिकारों से वंचित 
रहेगा, बुद्ध के संदेश को वहां ले जाने की जरूरत है। जो लोग ईमानदारी से यह देखना चाहते है कि मानव जाति में शान्ति रहे तथा मानव जन्म के सुखों का उपयोग करे, उनको दुनियां में बुद्ध के संदेश को फैलाने के लिए आगे आना चाहिए, यही एक मात्र रास्ता है, जिससे दुनियां में शान्ति की स्थापना की जा सकती है’’ उन्होनें दि ऑप्रेस्ड इण्डियन मई, 1983 के सम्पादकीय में यह भी कहा कि ‘‘बुद्ध ने 2500 वर्ष पहले दुनियां को ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ का संदेश दिया था, उनकी शिक्षाएं और संदेश पहले के समय की अपेक्षा आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक है। यह बुद्ध ही थे, जिन्होनें सबसे पहले मानव जाति पर हर प्रकार के शोषण तथा भेदभाव के विरूद्ध हमले की शुरूआत की थी। यह बुद्ध ही थे, जिन्होनें दुनियां को भाईचारे का संन्देश दिया। उनकी 
शिक्षाएं ठोस एवं वैज्ञानिक तर्को पर आधारित है। उनमें अन्दर से एक प्रकार का लचीलापन है जो किसी 
अन्य धर्म या मार्ग में नहीं पाया जाता है। इस कथन से बुद्ध और दुःखी मानवता के प्रति कांशीराम साहेब के विचार कितने विषुद्ध और व्यापक थे, यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। अपनी उक्त धारणां को परिणामिकता प्रदान करने हेतु उन्होनें डा. अम्बेडकर द्वारा महान बुद्ध धम्म दीक्षा गृहण की 25 वीं वर्षगांठ पर 6 दिसम्बर, 1981 को ‘‘बुद्धिस्ट रिसर्च सेन्टर’’ नामक संगठन की स्थापना कर धम्म क्षेत्र में कार्यरत सम्बद्ध लोगों की मदद की रूपरेखा तैयार की थी। इस सेन्टर का दायरा भी मुख्यतया उन्ही तीन बातों पर केन्द्रित रखा गया था, जो उनके बहुजन मुक्ति के आन्दोलन के समाधान के मुख्य सूत्र में आन्तर्निहित थी। (क) आवष्यकता (ख) इच्छा (3) क्षमता। कांशीराम जी ने धम्म को पूर्णतया व्यक्तिगत मामला मानते हुए बाबा साहेब की भांति ही अपने आन्दोलन के अन्य मोर्चो यथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक में धम्म का कभी भी घालमेल नहीं किया था। 
बहुधर्मी एवं बहुजातिये भारत में बहुजन समाज निर्माण के लिए यह सावधानी बरतना अत्यन्त जरूरी भी था। 
 बौद्ध धम्म की दीक्षा लेने की घोषणाः- 
उपर्युक्तानुसार यदपि कांशीराम साहेब अपने मन, वचन, कर्म, आचार-विचार एवं व्यवहार में 1970 के दशक से ही बुद्धिस्ट थे, परन्तु वे भारत सहित दुनियां में एक बडी़ धम्म क्रान्ति लाने के उद्धेश्य से सार्वजनिक रूप से धम्म दीक्षा लेने की ओपचारिकता निभाना चाहते थे। इस महान उद्धेश्य को अंजाम देने के लिए उन्होनें 30 मार्च 2002 में नागपुर महाराष्ट्रा में घोषणा की थी कि वें अपने दो करोड़ अनुयायियों के साथ बाबा साहेब डा.अम्बेडकर द्वारा धम्म दीक्षा लिए जाने की पचास वीं वर्ष गांठ पर (दिनांक 14.10.2006 को) स्वर्ण जयन्ती मनाने के समय बौद्ध धम्म की दीक्षा लेंगे। दुनियां के इतिहास में वह नायाब परिवर्तनकारी एवं क्रान्तिकारी घटना घटित होती, कांश यदि ऐसा हुआ होता तो। परन्तु हायरे बहुजनों एवं भारत की बदकिस्मति की जैसा सबको विदित ही है कि वह महान घटना परिघटित ही नही हो सकी। जिसका जन सामान्य की दृष्टि में लौकिक एवं दर्शित कारण यह रहा था कि मान्यवर कांषीराम साहेब दिनांक 08.10.2006 की मध्य रात्री को ही हमारे बीच नहीं रहे। यानि उस महान धम्म दीक्षा के लिए निर्धारित तारीख से मात्र छः दिवस पूर्व ही बहुजन महानायक का कथित संदेहास्पद परिस्थितियों में असामयिक निधन हो गया। कांषीराम साहेब का धम्म दिवस दिनांक 14.10.2006 से मात्र 6 दिवस पूर्व निधन हो गया था, परन्तु उसी समय से देश दुनिया के जन सामान्य के जेहन में बार-बार एक बड़ा प्रश्न अवतरित होता रहा है और यह अब तक अनुन्तरित प्रश्न अभी भी उत्तरित होने की ललक से दस्तक देता आ रहा है। प्रश्न का उत्तर देने के लिए दायित्वधारियों से वह प्रश्न अभी भी लोकहित में सार्वजनिक रूप से उत्तरित होने की सख्त अपेक्षा रखता है। प्रश्न यह है कि धम्म दिवस पर दिनांक 14.10.2006 को सम्पन्न होने वाली 2 करोड़ लोगों की महाधम्म दीक्षा कार्यक्रम के लिए आवश्यक तैयारियां क्यों नही की गई ? दीक्षा स्थल का चयन और उससे लोगों को संसूचित करना, देशभर से लोगों को उक्त स्थल पर पहुंचाने हेतु सुरक्षित यातायात के साधनों यथा रेल, बसे आदि की बुकिंग, करोडो लोगों तक कार्यक्रम का प्रभावी प्रचार-प्रसार का कार्य, दीक्षा स्थल पर लोगों के बैठने, दीक्षागृहण करने, रात्री को ठहरने की व्यवस्था, खाने पीने की सामग्री का इंतजाम, विशाल भीड़ को मेडीकल सुविधाओं की 
व्यवस्था, सरकार के साथ-साथ सुरक्षा के स्वयं सेवी इंतजामात, दीक्षा उपरान्त दीक्षित लोगों को अपने-अपने घरों को सुरक्षित लोटाने का प्रबंधन इत्यादि तैयारियां की जानी थी, साहेब की खराब सेहत की स्थिति में धम्म दीक्षा के उक्त विराट कार्यक्रम की तैयारियों को कम से कम छः माह पूर्व उनके कथित उत्तराधिकारियों को बडे़ स्तर पर आवश्यक रूप से शुरू करना चाहिये था, लेकिन इस दिशा में देश के किसी भी हिस्से में कुछ भी नहीं किया गया। आखिर तैयारियों के क्रम में कुछ भी क्यों नही किया गया ? जब कांशीराम साहेब स्वयं दीक्षा लेने की सार्वजनिक घोषणा कर चुके थे, तो बहुजन मूवमेन्ट के दूरगामी लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उनकी घोषणा की क्रियान्विति में 
निर्धारित दिनांक 14.10.2006 को धम्म दीक्षा के सम्बंध में पर्याप्त समय पूर्व किसी भी प्रकार की 
तैयारियां क्यां नही करवाई गई ? क्या तैयारियों के लिए उत्तरदायी कथित उत्तराधिकारियों को यह 
भविष्यवाणी हुई थी कि कांशीराम साहेब धम्म दिवस से छः दिन पूर्ण ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे? इसलिए दीक्षा कार्यक्रम से जुड़ी तैयारियों की जरूरत ही नही होगी। यदि हां तो उन्हे यह अनुमान कैसे हुआ था कि उक्त दिवस तक कांशीराम साहेब इस दुनियां में रहेंगे ही नही ? समय पूर्व ही मृत्यु हो जाने के समाधान के वे क्या आधार थे कि प्रस्तावित विराट धम्म दीक्षा कार्यक्रय की तैयारियों पर सोचा ही नही गया ? क्या उस प्रस्तावित विराट धम्म दीक्षा से ब्राह्मण धर्म पर आसन खतरे को टाल मनुवादियों को खुश रखने एवं कांशीराम साहेब को दुःख पहुंचाने की मंशा से ऐसा किया जाना प्रतीत नहीं होता है ? मेरी दृष्टि में तो कोई भी निर्पेक्ष सोच वाला ईमानदार बुद्धिजीवी व्यक्ति इसका जवाब हां में देने में तनिक संकोच नही करेगा। जनसामान्य को यह विदित रहना चाहिए कि यदि दम्म दीक्षा की वह महान घटना परिघटित होती तो इस देश में मनुवाद की जड़ो में तेजाब पड़ना तय था तथा उस घटना की पटकथा की महानायकी का श्रेय कांशीराम साहेब को जाना अवश्यभावी था। 
कांशीराम साहेब दिनांक 14.10.2006 तक जीवित नहीं रहेगें ऐसा युक्ति-युक्त अनुमान आखिर कोई कैसे लगा सकता है? धम्म दीक्षा की किसी भी प्रकार की तैयारियां नहीं करने से तो यहीं प्रतीत होता है कि इसके लिए जिम्मेवारों ने सायद ऐसा निश्चायक समाधान कर ही लिया था। इस स्थिति में प्रतीत तो ऐसा होता है कि कहीं कांशीराम साहेब की 2 करोड़ लोगों के साथ बौद्ध धम्म दीक्षा गृहण करने की क्रांतिकारी घोषणा से उपजे सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक लाभ हानि के परिदृश्य से निर्मित कोई गुप्त षड़यंत्र ही उनकी असामयिक मृत्यु की पटकथा का कारण तो नही बन गया था ? परिस्थिति जन्य साक्ष्यों के आधार पर तो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।